DW फैक्ट चेकः मंकीपॉक्स के बारे में फैलती गलत जानकारी का सच
१० जून २०२२
मंकीपॉक्स बीमारी क्या एस्ट्राजेनेका के कोरानावायरस टीके के कारण ऐसे भड़की? या ये वायरस किसी लैब से निकला? मंकीपॉक्स से जुड़ी कुछ घनघोर गलत धारणाओं और मिथकों पर नजर डालिए डॉयचे वेले के फैक्ट चेक में.
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क्या मंकीपॉक्स महज फेक न्यूज है?
दावाः ऐसे सोशल मीडिया यूजर हैं जिनका दावा है कि मंकीपॉक्स का अस्तित्व है ही नहीं. अपने दावे के समर्थन में वे ऐसी रिपोर्टें दिखाते हैं जिनमें पुरानी तस्वीरें छपी हैं या दाद-खुजली जैसी दूसरी बीमारियों का हवाला दिया गया है. ट्विटर जैसे प्लेटफॉर्मों में इनकी तुलना दिखाते हुए बेशुमार फोटो सर्कुलेट किए जा रहे हैं.
डीडब्लू फैक्ट चेकः दावा गलत है
मंकीपॉक्स वाकई है. यह वायरस 1958 से अस्तित्व में है. 1970 से हम जानते हैं कि ये इंसानों में भी जा सकता है. समय बेसमय ये बीमारी भड़की है लेकिन वो पश्चिम और मध्य अफ्रीका तक ही सीमित रही है. नाईजीरिया में अभी ये बीमारी फैली हुई है. 2017 में शुरू हुई थी. 500 मामले दर्ज किए गए हैं.
मंकीपॉक्स को फर्जी बताने वाली रिपोर्टों में बतौर साक्ष्य जो "पुरानी" तस्वीरें इस्तेमाल की गई हैं वे ज्यादातर उस बीमारी की एजेंसी तस्वीरें हैं जो सालों से उनके अलग अलग प्रदाताओं की ईजाद की हुई हैं. चिकित्सा मामलों से जुड़ी रिपोर्टों में बार बार एक जैसी तस्वीरों का इस्तेमाल कोई असामान्य बात नहीं है क्योंकि कुल चयन अपेक्षाकृत छोटा होता है.
कुछ ट्वीटर यूजर मंकीपॉक्स की खबरों को झूठ साबित करने के लिए दाद-खुजली से जुड़े लेख और उनमें प्रकाशित तस्वीरें डाल रहे हैं.
ऑस्ट्रेलिया में क्वींसलैंड सरकार के दाद-खुजली पर एक बयान की तस्वीर वास्तव में ट्वीट हुई थी. मंकीपॉक्स पर हेल्थसाइट डॉट कॉम में प्रकाशित लेख का मामले थोड़ा ज्यादा पेचीदा हैं. 19 मई 2022 के उस लेख के साथ जो तस्वीर लगी है वो ट्वीट पर डाली गई तस्वीर नहीं बल्कि अलग है.
दूसरी तरफ, इसी लेख के 17 जुलाई 2021 के एक पुराने आर्काइव्ड संस्करण में दाद-खुजली की तस्वीर को गलत ढंग से मंकीपॉक्स के चित्र की तरह दिखाया गया था. वह गलती सुधार ली गई थी और आलेख संशोधित कर दिया गया था. एक वेबसाइट पर हुई संपादकीय चूक से ये तथ्य नहीं बदल जाता कि मंकीपॉक्स सच में है.
कितना जानते हैं आप टीबी के बारे में
24 मार्च को विश्व तपेदिक दिवस मनाया जाता है. 1882 में इसी दिन जर्मनी के रोबर्ट कॉख ने बेसिलस की खोज की थी जिसका इस्तेमाल आज टीबी के इलाज में किया जाता है. जानिए इस बीमारी के बारे में कुछ जरूरी बातें.
तस्वीर: Edward Miller/Keystone/Hulton/Getty Images
सबसे ज्यादा जानलेवा बीमारी
कोविड-19 से पहले टीबी दुनिया की सबसे ज्यादा जानलेवा संक्रामक बीमारी थी. 2020 में जहां कोविड-19 से 18 लाख लोगों की जान गई, जब कि टीबी से 15 लाख लोग मारे गए.
तस्वीर: Kenzo Tribouillard/AFP
हर जगह मौजूद
टीबी पांचों महाद्वीपों में मौजूद है लेकिन विकासशील देश अनुपातहीन रूप से प्रभावित हैं. 2020 में नए मामलों में से 43 प्रतिशत अकेले दक्षिणपूर्वी एशिया में सामने आए थे और 25 प्रतिशत अफ्रीका में. दो-तिहाई मामले आठ देशों में सीमित थे - बांग्लादेश, चीन, भारत, इंडोनेशिया, नाइजीरिया, पाकिस्तान, फिलीपींस और दक्षिण अफ्रीका.
तस्वीर: Metin Aktas/AA/picture alliance
हजारों साल का इतिहास
जेनेटिक अध्ययनों के मुताबिक टीबी का सबसे पहले 40,000 साल पहले पता चला. लंबे समय तक वैज्ञानिकों का मानना था कि इंसानों में तपेदिक जानवरों से आता है और नव पाषाण युग में जब मवेशियों को पालना शुरू किया गया तब यह बीमारी मवेशियों से इंसानों में आई होगी.
तस्वीर: Andrew Matthews/dpa/picture alliance
नए तथ्य
लेकिन हाल में हुए अध्ययनों ने एक अलग तस्वीर पेश की है और दिखाया है कि टीबी इंसानों में तब भी मौजूद था जब उन्होंने मवेशी पालना शुरू नहीं किया था.
तस्वीर: Aleksandra Sagan/Canadian Press/empics/picture alliance
बीसीजी का टीका
1921 में फ्रांस के पैस्टर संस्थान बीसीजी का टीका विकसित किया जो धीरे धीरे दुनिया के सबसे पुराने और भरोसेमंद टीकों में से एक बन गया. सौ सालों बाद उस टीके का आज भी इस्तेमाल होता है. बच्चों में तपेदिक होने से रोकने में वो विशेष रूप से प्रभावी है. अलग अलग वयस्कों में नतीजे अलग आते हैं.
तस्वीर: Edward Miller/Keystone/Hulton/Getty Images
टीबी का इलाज
1940 और 1950 के दशकों में स्ट्रेप्टोमाइसीन और दूसरी एंटीबायोटिक दवाओं की खोज की बदौलत फेफड़ों की टीबी का इलाज संभव हो सका, जो किशोरों और वयस्कों में सबसे ज्यादा पाई जाने वाले टीबी की किस्म है.
तस्वीर: Jekesai NJIKIZANA/AFP
एक मुश्किल जंग
लेकिन फिर टीबी के औषध प्रतिरोधी स्ट्रेन सामने आए और डॉक्टरों को एंटीबायोटिक कॉकटेलों का इस्तेमाल करना पड़ा. इनसे बैक्टीरिया को कुशलता से कमजोर कर दिया जाता है और फिर कई महीनों तक धीरे धीरे इलाज किया जाता है.
महामारी की वजह से स्वास्थ्य सेवाओं में जो खलल आया उससे टीबी के खिलाफ जंग में कई सालों में हासिल की गई तरक्की नष्ट हो गई है. इस वजह से बीमारी पूरी दुनिया में एक बार फिर बढ़ रही है. (एएफपी)
तस्वीर: Lennart Preiss/AFP/Getty Images
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कोविड टीकाकरण से हुआ मंकीपॉक्स?
दावाः कहा गया कि एस्ट्राजेनेका के कोरोना टीके में चिंपाजियों के कमजोर एडीनोवायरस, कोरोनावायरस स्पाइक प्रोटीन के डीएनए वाहक के तौर पर मौजूद हैं. कुछ सोशल मीडिया यूजरों के मुताबिक इससे पता चलता है कि मंकीपॉक्स संक्रमण वेक्टर टीके का नतीजा हैं.
डीडब्लू फैक्ट चेकः दावा गलत है
भले ही "मंकी" शब्द पहली नजर में एक संभावित जुड़ाव दिखाता है, लेकिन इन वायरसों का एक दूसरे से कोई लेनादेना नहीं है.
जर्मन सोसायटी फॉर इम्युनोलॉजी की प्रमुख क्रिस्टीन फाक बताती हैं, "इसे मंकीपॉक्स इसलिए कहा जाता है क्योंकि सबसे पहले 1958 में ये बंदरों के बीच मिला था. लेकिन असल में ये बीमारी, कतरने वाले जानवरों से आती है, बंदर इस बीमारी के संभवतः इंटरमीडिएट होस्ट हैं."
वह कहती हैं कि वेक्टर वैक्सीनों का आधार बनने वाले, चिंपाजी के एडीनोवायरस समेत तमाम एडीनोवायरस, चेचक के वायरसों से बिल्कुल ही अलग श्रेणी के वायरस हैं, उनकी विशेषताएं कतई अलग होती हैं.
क्रिस्टीन फाक के मुताबिक, ये वायरस सर्दी जैसे संक्रमण दे सकते हैं. "इनमें से कुछ ऐसे हैं जिन्हें चिंपाजियों से अलग कर टीके बनाने के लिए संवर्धित किया गया है ताकि हमारे शरीरों में पहले से इम्युनिटी न पैदा हो सके, जैसा कि मानव एडीनोवायरस में होता है." फाक और दूसरे जानकार जोर देकर कहते हैं कि कोविड-19 टीकों का मंकीपॉक्स बीमारी से कोई लेनादेना नहीं है.
क्या मंकीपॉक्स वायरस वुहान की लैबोरेटरी से निकला था?
दावाः कहा जाता है कि वुहान स्थित वाइरोलजी संस्थान ने मंकीपॉक्स वायरसों पर प्रयोग किए हैं. कुछ के लिए ये मौजूदा बीमारी के मूल स्थान का साफ संकेत है. ये कोरानावायरस की "लैब थ्योरी" की याद दिलाता है. वैज्ञानिक बताते हैं कि ऐसा नहीं है लेकिन इसे पूरी तरह से खारिज भी नहीं किया है.
डीडब्लू फैक्ट चेकः दावा भ्रामक है
मंकीपॉक्स वायरसों की पीसीआर टेस्टिंग से जुड़े प्रयोग वुहान में बेशक हुए थे. ये निर्विवाद है. फरवरी 2022 में संस्थान की ओर ये प्रकाशित अध्ययन भी इसे पारदर्शी बनाता है. लेकिन इस अध्ययन में वायरस के एक अंश पर ही प्रयोग किया गया जिसमें मंकीपॉक्स का एकतिहाई जीनोम ही था. अध्ययन के मुताबिक, वो अंश पूरी तरह से महफूज था क्योंकि उसके संक्रमित होने का किसी भी तरह का जोखिम एक बार फिर मिटा दिया गया था.
ओरेगॉन नेशनल प्राइमैट रिसर्च सेंटर में इम्युनोलॉजिस्ट और प्रोफेसर मार्क स्लीफ्का ने डीडब्लू को बताया कि "इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि मंकीपॉक्स किसी लैब से निकला था. मध्य और पश्चिमी अफ्रीका के कई देशों में ये ये जानवरों के आसरों के आसपास ही, कुदरत में मौजूद है. कमोबेश हर साल मानवों में छिटपुट संक्रमण होते रहे हैं."
उनका ये भी कहना है कि वैज्ञानिक जीनोम की सिक्वेन्सिग से वायरस के अलग अलग स्ट्रेनों में अंतर भी कर सकते हैं. इससे उन्हें ये स्थापित करने में मदद मिलती है कि वायरस का संबंध, मंकीपॉक्स वायरस के पश्चिम अफ्रीकी स्ट्रेन या मध्य अफ्रीकी स्ट्रेन से है या नहीं. उनके मुताबिक, "मेरी जानकारी में शुरुआती संक्रमित मामलों में से कोई भी ऐसा नहीं था जिसने पहले चीन की यात्रा की हो."
सिर्फ बीमारी नहीं फैलाते हैं चमगादड़
कोरोना वायरस का स्रोत माने जाने की वजह से चमगादड़ बड़े बदनाम हो गए हैं, लेकिन असल में धरती पर इनकी काफी उपयोगिता भी है. क्या आप जानते हैं ये सब इनके बारे में?
तस्वीर: DW
ना कैंसर और ना बुढ़ापा छू सके
साल में केवल एक ही संतान पैदा कर सकने वाले चमगादड़ ज्यादा से ज्यादा 30 से 40 साल ही जीते हैं. लेकिन ये कभी बूढ़े नहीं होते यानि पुरानी पड़ती कोशिकाओं की लगातार मरम्मत करते रहते हैं. इसी खूबी के कारण इन्हें कभी कैंसर जैसी बीमारी भी नहीं होती.
ऑस्ट्रेलिया की झाड़ियों से लेकर मेक्सिको के तट तक - कहीं पेड़ों में लटके, तो कहीं पहाड़ की चोटी पर, कहीं गुफाओं में छुपे तो कहीं चट्टान की दरारों में - यह अंटार्कटिक को छोड़कर धरती के लगभग हर हिस्से में पाए जाते हैं. स्तनधारियों में चूहों के परिवार के बाद संख्या के मामले में चमगादड़ ही आते हैं.
तस्वीर: Imago/Bluegreen Pictures
क्या सारे चमगादड़ अंधे होते हैं
इनकी आंखें छोटी होने और कान बड़े होने की बहुत जरूरी वजहें हैं. यह सच है कि ज्यादातर की नजर बहुत कमजोर होती है और अंधेरे में अपने लिए रास्ता तलाशने के लिए वे सोनार तरंगों का सहारा लेते हैं. अपने गले से ये बेहद हाई पिच वाली आवाज निकालते हैं और जब वह आगे किसी चीज से टकरा कर वापस आती है तो इससे उन्हें अपने आसपास के माहौल का अंदाजा होता है.
तस्वीर: picture-alliance/Mary Evans Picture Library/J. Daniel
काले ही नहीं सफेद भी होते हैं चमगादड़
यह है होंडुरान व्हाइट बैट, जो यहां हेलिकोनिया पौधे की पत्ती में अपना टेंट सा बना कर चिपका हुआ है. दुनिया में पाई जाने वाली चमगादड़ों की 1,400 से भी अधिक किस्मों में से केवल पांच किस्में सफेद होती हैं और यह होंडुरान व्हाइट बैट तो केवल अंजीर खाते हैं.
चमगादड़ों को आम तौर पर दुष्ट खून चूसने वाले जीव समझा जाता है लेकिन असल में इनकी केवल तीन किस्में ही सचमुच खून पीती हैं. जो पीते हैं वे अपने दांतों को शिकार की त्वचा में गड़ा कर छेद करते हैं और फिर खून पीते हैं. यह किस्म अकसर सोते हुए गाय-भैंसों, घोड़ों को ही निशाना बनाते हैं लेकिन जब कभी ये इंसानों में दांत गड़ाते हैं तो उनमें कई तरह के संक्रमण और बीमारियां पहुंचा सकते हैं.
कुदरती तौर पर चमगादड़ कई तरह के वायरसों के होस्ट होते हैं. सार्स, मर्स, कोविड-19, मारबुर्ग, निपा, हेन्ड्रा और शायद इबोला का वायरस भी इनमें रहता है. वैज्ञानिकों का मानना है कि इनका अनोखा इम्यूम सिस्टम इसके लिए जिम्मेदार है जिससे ये दूसरे जीवों के लिए खतरनाक बीमारियों के कैरियर बनते हैं. इनके शरीर का तापमान काफी ऊंचा रहता है और इनमें इंटरफेरॉन नामका एक खास एंटीवायरल पदार्थ होता है.
तस्वीर: picture-lliance/Zuma
ये ना होते तो ना आम होते और ना केले
जी हां, आम, केले और आवोकाडो जैसे फलों के लिए जरूरी परागण का काम चमगादड़ ही करते हैं. ऐसी 500 से भी अधिक किस्में हैं जिनके फूलों में परागण की जिम्मेदारी इन पर ही है. तस्वीर में दिख रहे मेक्सिको केलंबी नाक वाले चमगादड़ और इक्वाडोर के ट्यूब जैसे होंठों वाले चमगादड़ अपनी लंबी जीभ से इस काम को अंजाम देते हैं. (चार्ली शील्ड/आरपी)
तस्वीर: picture-alliance/All Canada Photos
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विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी इस बात की पुष्टि की है कि तमाम मौजूदा मामले, पश्चिम अफ्रीका में पाए गए मंकीपॉक्स वायरस के स्ट्रेन से जुड़ते हैं. यूरोपीय रोग नियंत्रण केंद्र से प्रकाशित एक पर्चे के मुताबिक यूरोप में मंकीपॉक्स से संक्रमण के मामलों में वृद्धि शायद कथित रूप से स्प्रेडर घटनाओं यानी रोग फैलाने वाली घटनाओं से है. ऐसे मामले भी देखे गए जब पुरुषों के परस्पर यौन संसर्ग में भी वायरस संक्रमित हुआ. क्योंकि मंकीपॉक्स बुनियादी रूप से सीधे म्यूकस यानी श्लेष्म झिल्ली के संपर्क से फैलता है.
हार्ट फेल होने के इन संकेतों की अनदेखी ना करें
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क्या मंकीपॉक्स एक "सुनियोजित महामारी" है?
दावाः मंकीपॉक्स काफी पहले ही तैयार किया जा चुका था- ये दावा भी सोशल मीडिया नेटवर्कों में फैलाया जा रहा है. म्युनिख सुरक्षा सम्मेलन में, मंकीपॉक्स जैसे एक हालात पर आधारित एक सिम्युलेशन गेम इसका एक सबूत माना जा सकता है. बिल गेट्स और मंकीपॉक्स फैलने के बीच सीधा संबंध भी कई दावों में किया जाता है. कहा जाता है कि वो लगातार ऐसे किसी सूरतेहाल के बारे में लगातार आगाह करते रहे थे.
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डीडब्लू फैक्ट चेकः दावा भ्रामक है
म्युनिख सुरक्षा सम्मेलन में कथित तौर पर योजनाबद्ध मंकीपॉक्स महामारी के सबूत के रूप में इस्तेमाल किया गया सिम्युलेशन गेम अस्तित्व में है और उसमें मई 2022 में काल्पनिक मंकीपॉक्स महामारी का परिदृश्य भी दिखाया गया है. म्युनिख सुरक्षा सम्मेलन के एक हिस्से के रूप में न्यूक्लियर थ्रेट इनिशिएटिव (एनटीआई) ने वैश्विक महामारी समन्वय में कमियों की ओर ध्यान दिलाने के लिए ये सिम्युलेशन शुरू किया था.
सिम्युलेशन गेम्स का इस्तेमाल कई संदर्भों में, पेचीदा हालात या सुरक्षा जोखिमों की तैयारी के लिए या प्रक्रियागत अभ्यास या समीक्षा के लिए किया जाता है. इस तथ्य से ये पता चलता है कि इस किस्म के हालात आज की तारीख में मौजूद हैं और इससे इसके यथार्थवादी होने का पता चलता है.
इसमें दिखाए हालात काफी नजदीकी हैं, लेकिन वास्तविकता से मेल नहीं खाते. मिसाल के लिए वास्तविक रोगाणु कम संक्रामक होता है और संक्रमण फैलने के मार्ग भी म्युनिख सुरक्षा सम्मेलन में दिखायी प्रस्तुति से अलग होते हैं. एनटीआई ने हाल में एक बयान के जरिए इससे फिर स्पष्ट भी किया था: "हमारे अभ्यास के तहत निर्मित परिदृश्य में मंकीपॉक्स वायरस के एक स्ट्रेन का काल्पनिक डिजाइन रखा गया था जो कि ज्यादा संक्रामक भी था और वायरस के प्राकृतिक स्ट्रेनों के मुकाबले ज्यादा खतरनाक भी, और जो वैश्विक स्तर पर फैलने वाला था- जिससे आखिरकार 18 महीनों के दरमियान तीन अरब से ज्यादा मामले और 27 करोड़ मौतें दिखाई गई थीं."
स्वास्थ्य सेवाएं देने में कौन सा राज्य अव्वल
नीति आयोग ने राज्य स्वास्थ्य सेवा सूचकांक 2021 जारी किया है. इस सूचकांक में दक्षिण के राज्यों ने अच्छा प्रदर्शन किया है. जानिए, किस राज्य का रहा बेहतर प्रदर्शन.
तस्वीर: Diptendu Dutta/AFP/Getty Images
केरल
स्वास्थ्य सेवाएं देने के मामले में केरल एक नंबर स्थान पर है.
रिपोर्ट को तीन भागों में बांटा गया था. बड़े राज्य, छोटे राज्य और केंद्र शासित प्रदेश. छोटे राज्यों में मिजोरम सबसे अच्छा प्रदर्शन करने वाला राज्य था और नागालैंड सबसे नीचे था. बड़े राज्य में तेलंगाना तीसरे नंबर पर रहा.
नीति आयोग ने विश्व बैंक की तकनीकी सहायता से स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय की मदद से रिपोर्ट तैयार की है. आंध्र प्रदेश 70 अंकों के साथ चौथे पायदान पर है.
तस्वीर: Murali Krishnan/DW
महाराष्ट्र
महाराष्ट्र 69.14 अंकों के साथ पांचवें स्थान पर है.
तस्वीर: Punit Paranjpe/AFP/Getty Images
उत्तरी राज्य पिछड़े
बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं देने के मामले में उत्तर प्रदेश 19वें स्थान पर हैं.
तस्वीर: PAWAN KUMAR/REUTERS
बिहार-मध्य प्रदेश की हालत भी खराब
रिपोर्ट के मुताबिक बिहार और मध्य प्रदेश की स्थिति भी खराब है.
तस्वीर: Manish Kumar/DW
दिल्ली का हाल
केंद्र शासित प्रदेशों की श्रेणी में दिल्ली के बाद जम्मू और कश्मीर ने सबसे अच्छा क्रमिक प्रदर्शन किया है.
तस्वीर: Anushree Fadnavis/REUTERS
चौथी बार जारी हुआ सूचकांक
नीति आयोग ने चौथी बार ये स्वास्थ्य सूचकांक जारी किया है. नीति आयोग के मुताबिक हेल्थ इंडेक्स के लिए चार दौर का सर्वे किया गया है और इस आधार पर अंक दिए गए हैं. चारों दौर में केरल शीर्ष पर रहा है.
तस्वीर: Payel Samanta/DW
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एनटीआई का कहना है कि मौजूदा महामारी में ये मानने का कोई आधार नहीं है कि, "ये पहले से तैयार किए रोगाणु की वजह से फैली है, ऐसी किसी परिकल्पना को साबित करने वाला कोई पक्का सबूत हमने नहीं देखा है. हम ये भी नहीं मानते हैं कि मौजूदा महामारी में काल्पनिक रूप से डिजाइन किए हुए रोगाणु जितनी तेजी से फैलने की क्षमता है या वो उतनी ज्यादा जानलेवा भी होगी."
जहां तक बिल गेट्स से जुड़े दावों का सवाल है, तो ये सही है कि अरबपति गेट्स समाजसेवी भी हैं और लंबे समय से अपनी फाउंडेशन के जरिए रोग नियंत्रण कार्यों में जुड़े रहे हैं. लंबे समय से वे जैव-आतंकवाद और वैश्विक महामारियों के खतरों से भी आगाह कराते आए हैं जिनमें मिसाल के तौर पर चेचक महामारी का भी जिक्र है. ऐसी किसी महामारी की संभावना या चेचक के वायरसों के संभावित जैव-आतंकवादी हमलों के बारे में विभिन्न शोध आलेखों में चर्चा और बहस होती आ रही है. गेट्स ने अपने बयानों में विशेषतौर पर मंकीपॉक्स का जिक्र कभी नहीं किया है.
रिपोर्टः जिमोन शिरमाखेर (सहयोग इनेस आइजेले)
इस रोग के पनपने का पता ही नहीं चलता
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बंदरों का द्वीप: जहां कैद हैं प्रयोग का शिकार बने अफ्रीका के बंदर
बंदरों का द्वीप: जहां कैद हैं प्रयोग का शिकार बने अफ्रीका के बंदर
अफ्रीका के लाइबेरिया में बंदरों का एक समूह रहता है जिन पर कई प्रयोग किए जा चुके हैं. अब छह सुदूर द्वीपों पर कैद ये बंदर कई संक्रामक बीमारियों से पीड़ित हैं और जिंदा रहने के लिए इंसानों पर निर्भर हैं.
तस्वीर: JOHN WESSELS/AFP
चिम्पांजियों पर प्रयोग
1974 में गैर लाभकारी अमेरिकी संस्था न्यूयॉर्क ब्लड सेंटर (एनवाईबीसी) ने लाइबेरिया के पश्चिमी तट पर एक प्रयोगात्मक प्रयोगशाला की शुरुआत की. लाइबेरिया बायोमेडिकल रिसर्च संस्थान के साथ मिल कर उन्होंने जंगली चिम्पांजियों को पकड़ा और उन पर शोध और दवाओं के ट्रायल किए.
तस्वीर: JOHN WESSELS/AFP
पिंजरों में कैद
इन चिम्पांजियों को राजधानी मोनरोविया के बाहर विलाब टू शोध केंद्र में इस तरह के पिंजरों में रखा गया. शोधकर्ताओं ने इन्हें हेपेटाइटिस बी और रिवर ब्लाइंडनेस जैसी बीमारियों से संक्रमित किया ताकि अलग अलग इलाजों की प्रभावकारिता का अध्ययन किया जा सके.
तस्वीर: JOHN WESSELS/AFP
दुर्गम द्वीप
इन चिम्पांजियों की कुल संख्या 85 थी. 1990 के दशकों और 2000 के शुरुआती दशकों में लाइबेरिया में गृह युद्ध हुए और उस दौरान इस प्रयोगशाला में काम प्रभावित हुआ. 2005 में उस केंद्र को हमेशा के लिए बंद कर दिया गया और चिम्पांजियों को धीरे धीरे कर फार्मिंगटन नदी की खाड़ी में छह निर्जन द्वीपों में पहुंचा दिया गया. आज पशु अधिकार कार्यकर्ता नियमित रूप से वहां नाव से जाते हैं और चिम्पांजियों को खाना खिलाते हैं.
तस्वीर: JOHN WESSELS/AFP
महंगी देखभाल
ह्यूमन सोसाइटी संगठन के लोग नियमित रूप से यहां फलों और पीने का पानी लाते हैं. द्वीपों पर इन दोनों चीजों की कमी है. एनवाईबीसी ने जिंदगी भर इन चिम्पांजियों की देखभाल का खर्च उठाने का वादा किया था लेकिन उसने 2015 में इसके लिए पैसे में कटौती कर दी. आलोचना के बाद उसने 2017 में अतिरिक्त 60 लाख डॉलर दिए लेकिन ह्यूमन सोसाइटी के मुताबिक ये बिल्कुल भी काफी नहीं था.
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अपने परिवार की रक्षा
अब यहां करीब 65 चिम्पांजी रहते हैं, जिनमें बच्चे भी शामिल हैं. अब जब भी कोई इनके द्वीप पर जाने की कोशिश करता है तो अक्सर ये आक्रामक हो जाते हैं. ये अजनबियों पर चिल्ला सकते हैं या पानी भी फेंक सकते हैं. अल्फा नर हर चीज पर कड़ी नजर रखते हैं. अब इन्हें कहीं और ले जाना भी जोखिम से भरा होगा, खास कर दूसरे जानवरों के लिए, क्योंकि इनमें अभी भी संक्रामक बीमारियां मौजूद हैं.
तस्वीर: JOHN WESSELS/AFP
सुरक्षित दूरी
चिम्पांजी प्राकृतिक रूप से तैरना नहीं जानते, इसलिए ये समूह भी पानी में ज्यादा दूर तक नहीं जाता. वॉलंटियर सुरक्षात्मक कपड़े पहन कर खाना लाते हैं और एक सुरक्षित दूरी बनाए रखते हैं. बीते सालों में सिर्फ कुछ ही कार्यकर्ताओं के इन चिम्पांजियों से करीबी रिश्ते बने हैं. एक बार इन्हें इनके फल मिल जाएं उसके बाद ये थोड़े सहज हो जाते हैं.
तस्वीर: JOHN WESSELS/AFP
कड़वी सफलता
एनवाईबीसी ने इन चिम्पांजियों पर जो शोध किया उसका हेपेटाइटिस बी के एक टीके को बनाने में और हेपेटाइटिस सी का पता लगाने की एक प्रक्रिया को बनाने में योगदान रहा. लेकिन 2005 तक इस प्रयोगशाला की प्रमुख रही शोधकर्ता बेट्सी ब्रॉटमैन ने एक साक्षात्कार में बताया, "पशु अधिकार कार्यकर्ता सही थे. इस तरह के प्रयोगों के लिए चिम्पांजियों का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए. मुझे वाकई ऐसा लगता है." (क्लॉडिया डेन)