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भारत का ड्रामेबाज मीडिया

ओंकार सिंह जनौटी२० जून २०१६

भारतीय अखबारों में विज्ञान, कला या सामाजिक विवेचना की खबरें कहां होती हैं? टीवी पर दूसरे की बोलती बंद कराने की कोशिश के अलावा आपको कितने सार्थक कार्यक्रम दिखाई पड़ते हैं.

तस्वीर: dapd

शुरुआत एक निजी अनुभव से करता हूं. जर्मनी आने से पहले मुझे लगता था कि पश्चिम में शराब और अय्याशी सबसे ज्यादा होती है. इस सोच का कारण था. भारत में जब भी न्यूज चैनल देखा या अखबार उठाये तो उनमें पश्चिम का मतलब अर्धनग्न लड़कियां होती थीं. कभी यह नहीं बताया गया कि जर्मनी, फ्रांस, जापान या अमेरिका जैसे देश इतनी समृद्धि तक कैसे पहुंचे. क्या कारण हैं कि यह देश तकनीक और सामाजिक चेतना के लिहाज से इतने आगे हैं. दिखाई गई तो सिर्फ अय्याशी या ऊल जलूल खबरें. आज कल यूरो 2016 चल रहा है, आप खुद ही देखिये, मैच की रिपोर्ट से ज्यादा आपको फैंस के चुंबन दिखाई पड़ेंगे.

भारतीय मीडिया का यही हाल है. सुबह न्यूज चैनल देखिये, आपका भविष्य टेलीविजन स्क्रीन पर होगा. शाम को घर बैठे बैठे कुछ चटपटा या मनोरंजक देखने का मूड हो तो टीवी पर न्यूज चैनल लगा दीजिए. बाकी काम खुद हो जाएगा. चैनल बदलते जाइये देश की सबसे बड़ी खबर बदलती जाएगी. उसके तथ्य बदलते जाएंगे. कहीं लाल घेरा होगा तो कहीं नीला.

क्रिएटिविटी के नाम पर कहीं स्टूडियो में बाढ़ आ जाएगी तो कहीं आसमान से आग के गोले बरस रहे होंगे. कई टीवी एंकरों के देखकर आपको साफ साफ पता चलेगा कि उन्हें खबर की रत्ती भर भी जानकारी नहीं है, लेकिन रोबोट की तरह बस वे उसे पढ़े जा रहे हैं. वाह, क्या दृश्य है.

तस्वीर: RAVEENDRAN/AFP/Getty Images

टीवी पर शाम की बहस तो और जोरदार है. एक घटना हुई और फिर जिन लोगों का उससे कोई लेना देना नहीं है, उनसे पूछा जाएगा कि आप इस मुद्दे पर क्या सोचते हैं, अब फलां व्यक्ति जो भी कहेंगे वो देश की सबसे बड़ी खबर होगी. बिना तथ्यों के एक दो लोगों की राय पूरे मुल्क पर लाद दी जाएगी. एक्शन पर रिएक्शन लिया जाएगा और फिर रिएक्शन से बार बार एक्शन पैदा किया जाएगा.

टीवी पर आपने बहुत बार टीम इंडिया की जीत या होली का जश्न मनाते लोगों को देखा होगा. ऐसा नहीं है कि पहले लोगों को इन चीजों पर खुशी नहीं होती थी, लेकिन बीते 10-15 सालों से खुशी का मतलब है, कुछ लोगों का टीवी कैमरे के सामने हुड़दंग करना. चार या छह जगहों के हुड़दंगियों को अलग अलग बॉक्स में टीवी पर दिखाया जाएगा और कहा जाएगा कि पूरा देश इसी तरह जश्न में डूबा है. ये भारत के टीवी मीडिया की हकीकत है. तमाम नामी गिरामी संपादक इसके जिम्मेदार हैं. पत्रकारों की नई पीढ़ी उनसे निरर्थक बहस करना और दूसरे की बोलती बंद कराकर वाहवाही बटोरने जैसी बुरी आदतें सीख रही है.

ये तो रहा टीवी का हाल, अखबारों की पहुंच भले ही बढ़ रही हो, लेकिन उनका असर खत्म हो रहा है. पहले अखबार के पत्रकारों कि इज्जत होती थी. उन्हें खबर की गहराई में पहुंचने वाला माना जाता था. लेकिन फिर अखबारों को टीवी बनाने की कोशिश शुरू हुई. अब खबर की तह तक पहुंचने के बजाए जो टीवी पर चला उसी को चार पैराग्राफ में लिख देने की परंपरा बन चुकी है. कुछेक अखबारों को छोड़ दें तो ज्यादातर अखबार इस हमाम में नंगे खड़े हैं.

तस्वीर: Pia Chandavarkar

लेकिन बहाने बनाने के लिए मशहूर भारतीय मीडिया से अगर आप इन मुद्दों पर सवाल करेंगे तो एक और नया बहाना बना देगा और कहेगा हमारी रेगुलेटरी बॉडी काम कर रही है, सब्र कीजिए, धीरे धीरे बदलाव आएगा. लेकिन असल में कोई बदलाव नहीं आ रहा है. और ऐसा तब तक नहीं होगा जब तक व्यापक बदलाव नहीं किये जाएंगे. कई संपादक ऐसे तर्क देते हैं कि जो जनता देखना या पढ़ना चाहती है, वे वहीं परोसते हैं. लेकिन वे मास कम्युनिकेशन के उस सिद्धांत को भूल जाते हैं, जो कहता है कि टीवी, रेडियो या अखबार जो परोसता है, पाठक, दर्शक या श्रोता वही ग्रहण करते हैं.

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों को देखिये, टीवी 24 घंटे खबर नहीं देता. बीच बीच में अच्छे कार्यक्रम दिखाता है ताकि किसी भी चीज की जरूरत से ज्यादा पुनरावृत्ति न हो और एक संतुलन बना रहे. अखबार वीकेंड पर जबरदस्त पेज पेश करते हैं. भारतीय संपादक चाहें तो इससे बहुत कुछ सीख सकते हैं, लेकिन ऐसा करने के लिए पहले स्वीकार करना होगा कि सूचना, सनसनी से ज्यादा अहम होती है.

ओंकार सिंह जनौटी

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