जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में भारतीय सुंदरबन का जिक्र तो अक्सर होता है लेकिन बांग्लादेश में स्थित सुंदरबन की हालत पर खास चर्चा नहीं होती. हकीकत यह है कि वह इलाका भी ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन की चपेट में है.
तस्वीर: DW/Muhammad Mostafigur Rahman
विज्ञापन
वहां कोयला आधारित बिजली संयंत्रों और जहाजों से तेल रिसने की घटनाओं ने इस विपदा को और बढ़ाया है. पर्यावरण के लिहाज से बेहद संवेदनशील इस इलाके में बीते तीन वर्षों के दौरान कोयले और दूसरे रसायनों से लदे तीन बड़े जहाज डूब चुके हैं. समुद्र का जलस्तर बढ़ने के कारण इलाके की नदियों के पानी का खारापन भी बढ़ रहा है. नतीजतन आजीविका पर संकट गंभीर हो रहा है. जैविक विविधता से भरपूर सुंदरबन का छह हजार वर्ग किलोमीटर इलाका बांग्लादेश में है और चार हजार वर्ग किलोमीटर भारत में.
बांग्लादेश के सुंदरबन इलाके में मैंग्रोव जंगलों से महज 14 किलोमीटर के दायरे में ताप बिजली संयंत्रों की स्थापना पर लंबे अरसे से विवाद चल रहा है. पर्यावरणविदों ने इन संयंत्रों और इनके लिए जहाज से कोयले की ढुलाई को इलाके के पर्वारण और सुंदरबन के पारिस्थितिकी संतुलन के लिए गंभीर खतरा करार दिया है. सुंदरबन से सटे इलाके में 1320 मेगावाट क्षमता वाले रामपाल ताप बिजली संयंत्र ने तमाम पर्यावरणविदों को गहरी चिंता में डाल दिया है. इस संयंत्र के लिए सालाना 47.2 लाख टन कोयले की जरूरत होगी. इस कोयले और संयंत्र के संचालन के लिए जरूरी रसायनों समेत तमाम वस्तुएं जल मार्ग से ही परियोजना स्थल पर पहुंचेंगी.
मैनग्रोव खत्म तो जमीन खत्म
05:14
This browser does not support the video element.
विशेषज्ञों का कहना है कि जलमार्ग से रोजाना लगभग 13 हजार टन कोयले की ढुलाई से रिसाव का भारी खतरा है. पर्यावरणविदों की यह चिंता जायज है. बीते कुछ वर्षों के दौरान जलमार्ग पर कई हादसे हो चुके हैं. वर्ष 2014 में साढ़े तीन लाख लीटर तेल के रिसाव ने संवेदनशील जंगल वाले इस इलाके पर दूरगामी असर डाला था. तब सुंदरबन इलाके के 359 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में तेल फैल गया था. हाल में नजदीकी पासूर नदी में एक हजार टन कोयले से लदी एक नाव भी डूब चुकी है. सबसे ताजा मामले में बीते साल 12 हजार टन कोयले से लदे एक जहाज के डूबने से पर्यावरणविदों की चिंता बढ़ गयी है.
पर्यावरणविदों का कहना है कि हो सकता है कि इन घटनाओं का तत्काल कोई असर महसूस नहीं हो, लेकिन आगे चल कर इनसे जंगल नष्ट होने की प्रक्रिया तेज होगी. सुंदरबन इलाके में कई नदियों और उनकी सहायक नदियों का जाल बिछा है. इन घटनाओं से इलाके के तेजी से घटते जंगल पर खतरा और बढ़ गया है. पर्यावरणविदों का कहना है कि सुंदरबन होकर गुजरने वाला जहाजों का रास्ता वैसे भी पर्यावरण के लिहाज से सुरक्षित नहीं है.
सुंदरबन में तेल रिसाव
भारत और बांग्लादेश के बीच बसा दुनिया का सबसे बड़ा डेल्टा सुंदरबन इस वक्त भारी मुश्किल का सामना कर रहा है. संरक्षित सुंदरबन में तेल टैंकर जहाज डूबने से तेल फैल गया है. सुंदरबन कई दुर्लभ जन्तुओं का बसेरा है.
तस्वीर: DW/M, Mamun
ऐसे आई आफत
हादसा बांग्लादेश के इलाके में हुआ. अधिकारियों के मुताबिक टैंकर जब डूबा तो उसमें करीब 3,57,000 लीटर तेल लदा था. इसमें से ज्यादातर तेल रिस कर डेल्टा की कई धाराओं में पहुंच गया. गुरुवार को टैंकर को बाहर निकाले जाने तक ज्यादातर तेल रिस चुका था.
तस्वीर: DW/M, Mamun
दुर्लभ डॉल्फिन
सुंदरबन डेल्टा गंगा नदी की दुर्लभ डॉल्फिनों के लिए मशहूर है. मीठे पानी की इन डॉल्फिनों के लिए सुंदरबन को सबसे महफूज बसेरा माना जाता है. तेल रिसाव की वजह से कई डॉल्फिनें मारी गई हैं.
तस्वीर: Ingrid Kvale
बाघों का बसेरा
रॉयल बंगाल टाइगर का बसेरा भी सुंदरबन ही हैं. डेल्टा की दलदली जमीन और वहां मौजूद मैनग्रोव के जंगल बंगाल टाइगर को छिपने और शिकार करने के भरपूर मौके देते हैं. बाघ हर दिन तैरते हुए शिकार ढूंढने निकते हैं. रिसाव ने बाघों को संकट में डाल दिया है.
तस्वीर: picture-alliance/AP
मारे गए मगरमच्छ
तेल रिसाव वाले इलाकों में मछलियों समते कई मगरमच्छ मरे मिल हैं. डेल्टा के बड़े इलाके में मरे हुए मगरमच्छ उल्टे तैरते हुए दिखाई पड़ रहे हैं.
तस्वीर: DW/M, Mamun
प्रशासन के हाथ पैर फूले
बांग्लादेश के स्थानीय प्रशासन को समझ ही नहीं आ रहा है कि तेल के फैलाव को कैसे रोका जाए. प्रशासन के पास इसके लिए सही इंतजाम भी नहीं है. स्थानीय मछुआरे बाल्टी, स्पंज और जाल की मदद से तेल फैलाव को रोकने की कोशिश कर रहे हैं.
तस्वीर: STR/AFP/Getty Images
विकराल होती आफत
सुंदरबन से गुजरते हुए गंगा नदी की सैकड़ों धाराएं समुद्र में मिलती हैं. ज्वार और भाटे की वजह से हर दिन यहां पानी का स्तर ऊपर और नीचे होता है. वैज्ञानिकों को आशंका है कि पानी ऊपर चढ़ने की वजह से तेल दूर दूर तक फैलेगा.
तस्वीर: STR/AFP/Getty Images
कदम उठाए सरकार
बांग्लादेश में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की निदेशक पॉउलीन टामेसिस ने तेल रिसाव पर गहरी नाराजगी जताते हुए बांग्लादेश सरकार से सुंदरबन में व्यावसायिक जहाजों की आवाजाही बंद करने की मांग की है. सुंदरबन में मछली मारने पर रोक है, लेकिन नावें और छोटे जहाज वहां से गुजर सकते हैं.
तस्वीर: DW/M, Mamun
7 तस्वीरें1 | 7
वैसे, बीते साल जहाज डूबने की घटना के बाद बांग्लादेश सरकार ने मालवाहक जहाजों की आवाजाही पर पाबंदी लगा दी है. लेकिन पर्यावरणविदों को डर है कि व्यापारिक दबाव में यह पाबंदी शीघ्र हटा ली जाएगी. इससे पहले तेल से लदे जहाज के डूबने के बाद भी ऐसी ही पाबंदी लगायी गयी थी लेकिन उसे जल्दी ही हटा लिया गया था.
रामपाल संयंत्र को केंद्र में रख कर इलाके में कई सहायक उद्योगों की स्थापना भी होनी है. इनमें एक निजी कंपनी का 565 मेगावाट क्षमता वाला एक अन्य ताप बिजली संयंत्र भी शामिल है. यह जगह सुंदरबन से महज 12 किलोमीटर दूर है. दूसरी ओर, सरकार का दावा है कि रामपाल परियोजना से अगर सुंदरबन को कोई नुकान हुआ भी तो वह लगभग नगण्य होगा.
सुंदरबन इलाके में मैंग्रोव जंगल की अवैध कटाई भी बड़े पैमाने पर हो रही है. सरकारी अधिकारियों की मिलीभगत से सुंदरबन के पेड़ों को काट कर नावों के जरिए नजदीकी जिले में कुकुरमुत्ते की तरह उगी लकड़ी मिलों तक पहुंचाया जाता है. पर्यावरणविदों का कहना है कि मैंग्रोव जंगलों में तूफान जैसी प्राकृतिक आपदा के असर पर अंकुश लगाने की क्षमता होती है. लेकिन तेजी से कटते जंगलों ने देश में सुंदरबन को खतरे में डाल दिया है. इस साल अप्रैल से अगस्त के दौरान ही कोस्टगार्ड पश्चिमी जोन के अधिकारियों ने कोई पांच सौ घनमीटर लकड़ी जब्त की है. इससे यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि अधिकारियों की निगाहें बचा कर अवैध रूप से कितनी लकड़ी बाहर गयी होगी.
मौसम विज्ञानियों ने चेतावनी दी है कि औसत तापमान में एक डिग्री की वृद्धि भी कई दुर्लभ वनस्पतियों का वजूद हमेशा के लिए मिटा सकती है. जलवायु परिवर्तन के असर के चलते बीते एक दशक के दौरान बांग्लादेश में चक्रवाती तूफानों के बीच का अंतराल घटा है. अब देश को साल में कई बार ऐसे तूफानों का समाना करना पड़ता है जिनमें जान-माल का भारी नुकसान होता है. लगभग हर साल आने वाले इन तूफानों के चलते सुंदरबन को जो नुकसान हुआ है उसकी भरपाई में कम से कम 40 साल लगेंगे.
किन देशों को पड़ रही है मौसम की मार
बॉन में चल रहे जलवायु सम्मेलन के दौरान जर्मनी की गैरलाभकारी संस्था जर्मनवॉच ने ग्लोबल क्लाइमेट इंडेक्स, 2018 जारी किया. यह ऐसे देशों की सूची है जहां जलवायु परिवर्तन का असर सबसे अधिक रहा.
तस्वीर: Reuters/Jitendra Prakash
हैती
रिपोर्ट के मुताबिक हैती की अर्थव्यवस्था सितंबर 2016 के मैथ्यू और निकोल चक्रवात के चलते बुरी तरह प्रभावित हुई है.
तस्वीर: AFP/Getty Images/E. Santelices
जिम्बाब्वे
अल नीनो जैसी मौसमी दशाओं के चलते देश में सूखा पड़ा जिसके चलते कृषि को खासा नुकसान हुआ.
तस्वीर: Reuters/B. Stapelkamp
3. फिजी
सम्मलेन की अध्यक्षता कर रहे फिजी की अर्थव्यवस्था को भी जलवायु परिवर्तन का खामियाजा भुगतना पड़ा. चक्रवात विंस्टन के चलते यहां काफी तबाही मची
तस्वीर: NU-EHS/C. Corendra
श्रीलंका
बीते साल मई के रोआनू तूफान ने देश की तटीय क्षेत्रों को बहुत अधिक प्रभावित किया. जिसके चलते बड़े हिस्से सूखाग्रस्त भी रहे
तस्वीर: Getty Images/AFP/L. Wanniarachchi
वियतनाम
वियतनाम में साल 2016 में सूखा पड़ा, जिसे पिछले 100 सालों का सबसे भयंकर सूखा कहा गया.
तस्वीर: Getty Images/AFP
भारत
भारत में 2 हजार लोग प्राकृतिक आपदाओं के चलते मारे गये. साथ ही दक्षिणी भारत में चेन्नई के निकट आये चक्रवात वर्धा ने बड़ी संख्या में लोगों को प्रभावित किया.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/B. Rout
ताइवान
ताइवान में जोरदार ठंड के चलते 85 लोगों की मौत हो गयी. साल 2016 में इस क्षेत्र में यहां 6 टायफून आये थे.
तस्वीर: Getty Images/B.H.C.Kwok
रिपब्लिक ऑफ मैसेडोनिया
साल 2016 के दौरान मैसेडोनिया में तापमान -20 डिग्री तक कम हो गया. यहां बाढ़ ने भी काफी लोगों को प्रभावित किया.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/G. Licovski
बोल्विया
साल 2016 में बोलिविया की राजधानी ला पेज में जबरदस्त सूखा पड़ा. साथ ही भूस्खलन ने लोगों को सीधे तौर पर प्रभावित किया.
तस्वीर: AP
अमेरिका
अमेरिका के उत्तरी और दक्षिणी कैरोलाइना में बाढ़ और तूफान में कई जानें गयी. पिछले कुछ समय से अमेरिका में जलवायु परिवर्तन का असर सीधे तौर पर नजर आ रहा है.
तस्वीर: picture alliance/AP Images/G. Herbert
10 तस्वीरें1 | 10
बढ़ता खारापन
मौसम विज्ञानियों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से समुद्र का जलस्तर बढ़ने के कारण बांग्लादेश के तटवर्ती इलाकों की नदियों के पानी में खारेपन का स्तर हाल के वर्षों में तेजी से बढ़ा है. इससे मीठे पानी की मछलियां नष्ट हो रही हैं. बांग्लादेश की ज्यादातर आबादी खेती और मछलियों पर निर्भर है. इन नदियों के खारे पानी से सिंचाई की स्थिति में खेतों की उर्वरता के भी कम होने का खतरा है. इससे लाखों लोगों की आजीविका संकट में है. समय के साथ इस खारेपन में और वृद्धि का अंदेशा है. विश्व बैंक की एक हालिया रिपोर्ट में कहा गया है कि बदलते मौसम के साथ पानी और मिट्टी के बढ़ते खारेपन का सुंदरबन के नाजुक इको सिस्टम पर गंभीर प्रभाव पड़ेगा और आसपास के इलाकों में रहने वाली गरीब आबादी भी इसकी चपेट में आ जाएगी. इसकी वजह से पीने के साफ पानी का संकट भी गहराएगा.
बॉ़न में शुरू हुआ जलवायु सम्मेलन
02:13
This browser does not support the video element.
विश्व बैंक के अलावा इंस्टीट्यूट ऑफ वाटर माडलिंग एंड वर्ल्ड फिश, बांग्लादेश की ओर से वर्ष 2012 से 2016 के बीच किए गये अध्ययन भी नदियों के पानी में बढ़ते खारेपन की पुष्टि करते हैं. खासकर बांग्लादेश के तटवर्ती इलाकों में जलवायु परिवर्तन का असर अब साफ नजर आने लगा है. जाने-माने पर्यावरणविद अबुल कलाम मोहम्मद इकबाल फारुक कहते हैं, "देश के जैविक संसाधनों और तटवर्ती इलाकों में जलवायु परिवर्तन के असर के बारे में विस्तृत अध्ययन जरूरी है. उसके आधार पर ही इससे निपटने के कारगर उपायों की रूपरेखा तय की जा सकती है."
वह कहते हैं कि ऐसे अध्ययन से खासकर सुंदरबन इलाके में डूब क्षेत्र में रहने वाले लोगों और पशुओं को समय रहते किसी ऊंचे स्थान पर शिफ्ट किया जा सकता है. विशेषज्ञों की राय में नदियों का खारापन बढ़ने से आने वाले कुछ वर्षों में लगभग एक करोड़ लोगों की जिंदगी और आजीविका गंभीर रूप से प्रभावित हो सकती है.
तत्काल ठोस उपाय जरूरी
देश के मौसम विज्ञानियों और पर्यावरणविदों में इस बात पर आम राय है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के लिए तत्काल ठोस कदम उठाना जरूरी है. उनका कहना है कि वैश्विक उत्सर्जन न्यूनतम स्तर पर और ग्लोबल वार्मिंग 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड से नीचे रहने पर ही बांग्लादेश के लोगों का वजूद निर्भर है. फिलहाल 83 लाख लोग तूफान के प्रति सबसे ज्यादा संवेदनशील इलाकों में रहते हैं. लेकिन ग्लोबल वॉर्मिंग इसी दर से जारी रही तो वर्ष 2050 तक ऐसे लोगों की तादाद बढ़ कर 2.10 करोड़ तक पहुंच जाएगी. इसी तरह समुद्र का जलस्तर और 45 सेमी बढ़ने पर तीन-चौथाई मैंग्रोव जंगल पानी में समा जाएंगे.
विशेषज्ञों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने की दिशा में समय रहते ठोस कदम नहीं उठाये गये तो वर्ष 2050 तक डेढ़ करोड़ लोगों को विस्थापन का शिकार होना पड़ सकता है, यह मानवीय इतिहास में ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से होने वाला सबसे बड़ा विस्थापन होगा.
जलवायु परिवर्तन पर दुनिया का रुख रहा सुस्त
ब्रिटेन की साइंस पत्रिका लैंसेट में छपी एक रिपोर्ट मुताबिक जलवायु परिवर्तन का साल 2000 के बाद से मानव स्वास्थ्य पर बेहद ही बुरा असर पड़ा है. गर्म हवायें और बीमारियों में वृद्धि हुई है और फसलों पर भी प्रतिकूल असर पड़ा है.
तस्वीर: DW/Mustafiz Mamun
सुस्त कदम
रिपोर्ट के मुताबिक पिछले 25 सालों में ग्लोबल वार्मिंग से निपटने के लिए बेहद ही सुस्त कदम उठाये गये जिसने मानवीय जीवन और आजीविका को खतरे में डाल दिया है.
तस्वीर: Getty Images/AFP/O. Sierra
स्पष्ट प्रभाव
स्टडी के मुताबिक जलवायु परिवर्तन के मानव जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव स्पष्ट हैं और ये नहीं बदलते हैं. साइंस पत्रिका में छपी इस रिपोर्ट को कई विश्वविद्यालयों समेत विश्व बैंक और विश्व स्वास्थ्य संगठन(डब्ल्यूएचओ) ने मिलकर तैयार किया है.
तस्वीर: DW/Mustafiz Mamun
अमेरिका बाहर
हालांकि अब दुनिया के कई देश पेरिस जलवायु समझौते के तहत ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती करने का प्रयास कर रहे हैं लेकिन अमेरिका जैसा बड़ा कार्बन उत्सर्जन करने वाला देश अब इस समझौते से बाहर चला गया है.
तस्वीर: Reuters/K. Lamarque
बुजुर्गों पर खतरा
रिपोर्ट के मुताबिक साल 2000 से 2016 के दौरान दुनिया के तकरीबन 12.5 करोड़ लोग हर साल गर्म हवाओं के संपर्क में आते रहे, इसमें बुजुर्गों के स्वास्थ्य पर विशेष रूप से जोखिम बना रहा और इनके स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ा.
तस्वीर: Getty Images/AFP/P. Parks
डेंगू के मामले
जलवायु और स्वास्थ्य से जुड़े 40 मानकों के आधार पर तैयार इस रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन के चलते दुनिया में डेंगू के मामले बढ़े हैं जिसके चलते सालाना 10 करोड़ लोग प्रभावित हो रहे हैं.
तस्वीर: Getty Images/D. Ardian
क्षमता घटी
कृषि मजदूरों की उत्पादकता में साल 2000 के बाद से तकरीबन 5.3 फीसदी की कमी आई है, भारत और ब्राजील जैसे देशों में गर्मी बढ़ने के चलते मजदूरों और श्रमिकों की कार्य क्षमता घटी है.
तस्वीर: picture-alliance/Pacific Press/A. Verma
कुपोषण
जलवायु परिवर्तन का सबसे बड़ा प्रभाव कुपोषण के रूप में सामने आया है. रिपोर्ट मुताबिक अफ्रीका और एशिया के करीब 30 देशों में कुपोषण के मामले बढ़े हैं, साल 1990 में कुपोषण से जुड़े मामलों की संख्या 39.8 करोड़ थी जो साल 2016 में 42.2 करोड़ तक पहुंच गई.
तस्वीर: DW/C. Johnson
प्राकृतिक आपदायें
तूफान और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं में भी साल 2000 के बाद से 46 फीसदी की वृद्धि हुई है. हालांकि इसमें जान जाने के मामलों में वृद्धि नहीं हुई है. कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि प्रशासन ने प्राकृतिक आपदाओं से बचने के लिए कदम उठाये हैं.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/B. Birchall
आगे भी असर
स्टडी में जलवायु परिवर्तन के चलते अब तक कितनी जानें गयी हैं इसका तो कोई आंकड़ा पेश नहीं किया गया है लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपने एक अध्ययन में कहा था कि साल 2030 से 2050 के बीच ये आंकड़ा 2.5 लाख तक पहुंच सकता है.
तस्वीर: Bob Berwyn
बॉन में उम्मीदें
इन नतीजों के बावजूद विश्व स्वास्थ्य संगठन के निदेशक और लैंसेट काउंटडाउन स्टडी के सहअध्यक्ष कर रहे एंथनी कोस्टेलो को अब भी उम्मीद नजर आती है. शोधकर्ताओं को उम्मीद है कि बॉन में होने वाली जलवायु परिवर्तन कांफ्रेस पर इन मसलों पर विस्तार से चर्चा होगी.