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उग्र दक्षिणपंथ की जीत के बाद उठते सवाल

५ अक्टूबर २०१७

जर्मनी की संसद में भी उग्र दक्षिणपंथी पार्टी मौजूद होगी. डॉयचे वेले के अलेक्जांडर फ्रॉयंड का कहना है कि एएफडी की जीत का मतलब लोकतंत्र की कमजोरी नहीं है, यह असंतुष्ट वोटरों तक पहुंचने में स्थापित पार्टियों की विफलता है.

Deutschland | Neonazi-Konzert in Themar
तस्वीर: picture-alliance/dpa-Zentralbild/M. Schutt

नहीं, आपको चिंता नहीं होनी चाहिए, जर्मनी की इमारतों पर स्वस्तिका के झंडे नहीं लहरा रहे हैं और सड़कों पर कोई भूरे नाजी यूनिफॉर्म में आता जाता नहीं दिख रहा है. संसदीय चुनावों के बाद जर्मनी मूल रूप से बदला नहीं है. यह डर कि नाजियों ने सत्ता हासिल कर ली है, बकवास है.

लेकिन हां, बहुत से लोग अचंभे में हैं, खासकर यहां जर्मनी में कि लगभग 60 साल बाद पहली बार एक धुर दक्षिणपंथी पॉपुलिस्ट पार्टी का जर्मन संसद में प्रतिनिधित्व होगा. एएफडी पार्टी ने करीब 13 प्रतिशत सीटें जीती हैं, लेकिन 87 प्रतिशत लोगों ने उनके राष्ट्रवादी नारों को पूरी तरह नकार दिया है. #87percent के साथ बहुत से लोग शांतिपूर्ण और सहिष्णु समाज के लिए आवाज उठा रहे हैं. इतना ही नहीं देश में कोई राजनीतिक पार्टी, कोई राजनीतिक गुट, कोई भी नहीं है जो विरोध का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टी के साथ सहयोग करना चाहता हो. ऐसा इसलिए है कि द्वितीय विश्व युद्ध के 70 साल बाद बहुमत जर्मन लोगों की राष्ट्रवादी और पॉपुलिस्ट नीतियों पर चिढ़ वाली प्रतियोगिता होती है. नाजी शासन में जर्मनी के काले इतिहास और उससे निबटने में देश के कठिन रास्ते को देखते हुए इसमें कोई आश्चर्य भी नहीं है.

अल्टरनेटिव फॉर जर्मनी पार्टी को उन इलाकों में समर्थन मिला है जहां अप्रशिक्षित लोगों में औसत से ज्यादा बेरोजगारी हैं. मसलन पश्चिम जर्मनी के रुअर इलाके में कोयला और स्टील उद्योग के खत्म होने के बाद पुरानी अर्थव्यवस्था का कारोबार आधारित अर्थव्यवस्था में बदलाव नये रोजगार बनाने में नाकाम रहा है. लेकिन ज्यादातर एएफडी वोटर पूर्वी जर्मनी में हैं. हालांकि 1990 में जर्मन एकीकरण के बाद उस इलाके में बहुत ज्यादा निवेश किया गया है लेकिन खूबसूरत इमारतें और सड़कें लोगों के लिए नौकरी और भविष्य का विकल्प नहीं है. साथ ही पूर्व जीडीआर में विदेशियों की संख्या बहुत कम थी. समझौते पर काम करने वाले विदेशियों को सिर्फ काम करने का अधिकार था, वहां स्थायी तौर पर रहने का नहीं. अब एएफडी विदेशियों से डर और मौकों के अभाव का फायदा उठा रही है. मजेदार बात है कि पिछले संसदीय चुनावों में असंतुष्ट वोटरों ने वामपंथी पॉपुलिस्ट पार्टी को वोट दिया था.

यूरोप में धुर दक्षिणपंथ

यूरोप के दूसरे देशों में भी धुर दक्षिणपंथी पार्टियों का यही रवैया है. वे विदेशियों के विरोध को यूरोप के विरोध से जोड़ते हैं और असंतुष्ट वोटरों के लिए राजनीतिक जमावड़ा बनाने का मौका देते हैं. वे समस्याओं का आसान समाधान देने का दिखावा करते हैं और विदेशियों तथा सामाजिक समस्याओं को बलि का बकरा बनाते हैं. हर यूरोपीय देश में समाज की मुख्यधारा उग्र दक्षिणपंथियों पर अलग रवैया अपनाती है. पश्चिम की तरफ फ्रांस और नीदरलैंड्स में नेशनल फ्रंट और पार्टी ऑफ फ्रीडम का मुख्यधारा की पार्टियां बहिष्कार करती हैं. लेकिन उत्तर में डेनमार्क में डैनिश पीपुल्स पार्टी या फिनलैंड में फिन्स पार्टी सालों से कंजरवेटिव पार्टियों को बहुमत सरकार बनाने में मदद देती आयी हैं. और दक्षिण में इटली और ऑस्ट्रिया में नॉर्थ लीग और फ्रीडम पार्टी काफी समय से मुख्यधारा में शामिल हो चुके हैं.

राष्ट्रों को अपने खोल में समेटकर अपने हितों को सर्वोपरि बनाने की लोकप्रिय अपील को हाल में अमेरिका में राष्ट्रवादी कंजरवेटिव डॉनल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति चुनाव जीतने के बाद से काफी बल मिला है. उनकी अमेरिका फर्स्ट नीति को यूरोप सहित दुनिया भर के लोग अजीबोगरीब से लेकर खतरनाक तक मानते हैं. यह हो सकता है कि अमेरिका फर्स्ट के साथ ट्रंप उन अमेरिकी नागरिकों की जरूरतों को पूरा करना चाहते हैं जिन्हें लगता है कि वे पीछे छूट गये हैं या जिन्हें अपनी अस्मिता पर खतरा लगता है. लेकिन दुनिया को यह गलत संकेत भेजता है. लोकतंत्र में हर सरकार मुख्य रूप से अपने वोटरों के लिए जिम्मेदार है लेकिन उन्हें अपना होमवर्क भी करना होता है. मसलन अमेरिकी स्टील और कोयला उद्योग एशियाई प्रतिस्पर्धा के कारण नहीं बल्कि संरचनात्मक परिवर्तन करने में विफलता के कारण कमजोर हुआ है. इसी तरह वैश्विक चुनौतियों का सामना अकेले नहीं साथ मिलकर ही किया जा सकता है. सिर्फ राष्ट्रीय हितों पर ध्यान देना या अलग थलग होने से भूमंडलीकृत दुनिया में काम नहीं चलेगा.  

वोटरों की बात सुननी होगी

75 प्रतिशत मतदान के साथ 2017 का जर्मन चुनाव लोकतंत्र की स्पष्ट पुष्टि था. पॉपुलिस्ट एएफडी की सफलता लोकतांत्रिक व्यवस्था में कमजोरी का परिचायक नहीं है, वह समाज के असंतुष्ट वर्ग तक पहुंचने में व्यवस्था की कमजोरी का लक्षण है. यह मुख्य रूप से स्थापित राजनीतिक दलों की चिंता है लेकिन अंत में इसका पूरी व्यवस्था से लेना देना है, समाज के संभ्रांत तबके से. तेजी से बदलती दुनिया में बहुत से लोग समझते हैं कि व्यवस्था उनका प्रतिनिधित्व नहीं करती. राजनीतिक दल आम लोगों तक पहुंचने की पुरजोर कोशिश करते हैं लेकिन बहुत से वोटरों की चिंताओं से अक्सर काफी दूर हैं. मुख्यधारा की मीडिया भी उनकी चिंताओं को आवाज देने की कोशिश करती है, लेकिन उन्हें भी असंतुष्ट यूजरों से कनेक्ट करने में मुश्किल हो रही है. यही दूरियां नागरिक संगठनों, ट्रेड यूनियनों और धार्मिक समुदायों में भी दिख रही है.

समाज का यह असंतुष्ट हिस्सा निराश है और विकास के दौर में पीछे छूट गया समझता है. उन्हें लगता है कि सरकार और स्थापित संस्थाएं उनके लिए कुछ नहीं कर रही हैं. फायदा व्यवस्था में बैठे लोगों और दूसरों का हो रहा है. दूसरे यहां विदेशी हैं. एएफडी जैसे उग्र दक्षिणपंथी संगठनों के उदय को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता लेकिन न तो उन्हें बढ़ाकर आंका जाना चाहिए और न ही उनके साथ सहयोग करना चाहिए. हर कहीं ऐसे लोग होंगे जो असंतुष्ट हैं, और कहीं ऐसी पार्टियां होंगी जो स्थिति का लाभ उठाएंगी. लेकिन यह भी सच है कि सिर्फ लफ्फाजी करने वाली पार्टियां ही कहेंगी भविष्य में सबके लिए सबकुछ बेहतर होगा. भूमंडलीकृत विश्व में ये बस सपना लगता है. लेकिन असंतोष और निराशा को सुना जाना चाहिए. राष्ट्रीय स्तर पर नयी सरकार को अपना होमवर्क करना होगा. ये सबकी मदद नहीं करेगा लेकिन यह और बहुत लोगों की मदद कर पायेगा.

 

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