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मीथेन समझौते में इसलिए नहीं शामिल हुआ भारत

४ नवम्बर २०२१

ग्लासगो में सौ देशों ने मीथेन प्रतिज्ञा पर दस्तखत कर कहा कि 2030 तक मीथेन गैस के उत्सर्तन को एक तिहाई तक कम करना है. लेकिन भारत उनमें शामिल नहीं हुआ. क्यों?

तस्वीर: Jeff J Mitchell/Pool via REUTERS

दुनिया के सबसे बड़े ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जकों में से एक भारत ने ग्लासगो सम्मेलन के दौरान मीथेन प्रतिज्ञा पर दस्तखत नहीं किए. मंगलवार को दुनिया के सौ देशों ने कसम उठाई कि मीथेन गैस का उत्सर्जन 2030 तक एक तिहाई कर देंगे. इससे पृथ्वी का तापमान कम रखने में मदद मिलेगी. हालांकि विशेषज्ञों का कहना है कि बड़े उत्सर्जक तो कसम उठाने वालों में शामिल ही नहीं हैं मसलन, भारत, चीन, रूस और ऑस्ट्रेलिया इस समझौते में शामिल नहीं हुए.

भारत में विशेषज्ञों का कहना है कि वन कटाई और मीथेन उत्सर्जन रोकने के लिए हुए समझौतों में भारत इसलिए शामिल नहीं हुआ क्योंकि इससे उसके कृषि और व्यापार क्षेत्र प्रभावित होंगे. सरकारी अधिकारियों ने कहा कि कृषि और मवेशियों का भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था में अहम योगदान है और उन्हें प्रभावित होने से बचाना जरूरी है.

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भारत की 27 खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था का 15 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा कृषि क्षेत्र से आता है. देश की 130 करोड़ आबादी का आधे से ज्यादा इसी क्षेत्र पर निर्भर है. दो तिहाई से ज्यादा भारतीय गांवों में रहते हैं और पशु पालन वहां की मुख्य आर्थिक गतिविधियों में शामिल है. इस कारण मीथेन उत्सर्जन रोकना भारत के लिए एक बड़ी चुनौती है. मवेशियों, खासकर गायों को मीथेन गैस के उत्सर्जन का बड़ा कारक कहा जाता है.

व्यापार पर समझौता नहीं

दो सरकारी अधिकारियों ने नाम ना छापने की शर्त पर बताया कि वन क्षेत्र अपने आप में भारत के लिए ज्यादा बड़ा मुद्दा नहीं है लेकिन जलवायु सम्मेलन में वन कटाव रोकने पर हुए समझौते में एक धारा ऐसी है जिससे भारत को दिक्कत थी. यह धारा वन क्षेत्र पर आधारित व्यापार को सीमित करती है.

एक अधिकारी ने बताया, "चूंकि हमारा अंतरराष्ट्रीय व्यापार तेजी से हमारी अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा बन रहा है, तो जाहिर है कि हम व्यापार पर कोई धारा नहीं चाहते थे. हम व्यापार का कोई जिक्र तक नहीं चाहते थे क्योंकि हमारा रुख यह है कि पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन पर किसी भी प्रतिबद्धता में व्यापार का जिक्र नहीं होना चाहिए.”

भारत विश्व व्यापार संगठन (WTO) का सदस्य है और उसका कहना है कि व्यापार से संबंधी कोई भी मसला संगठन के तहत ही सुलटाया जाना चाहिए.

क्यों जरूरी है मीथेन उत्सर्जन रोकना?

कार्बन डाईऑक्साइड के बाद मीथेन ही ग्लोबल वॉर्मिंग के लिए सबसे बड़ी जिम्मेदार है. हालांकि इसकी उम्र कम होती है, लेकिन 100 साल की अवधि में यह कार्बन डाईऑक्साइड से 29 गुना ज्यादा असरकारी होती है और 20 वर्ष की अवधि में इसका असर 82 गुना ज्यादा होता है. आठ लाख साल में मीथेन का उत्सर्जन इस वक्त सबसे अधिक है.

गायों की गैस का पर्यावरण पर असर

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मीथेन गैस के उत्सर्जन में कमी होने से तापमान में हो रही वृद्धि पर फौरन असर होगा. इससे पृथ्वी का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा ना बढ़ने देने का लक्ष्य हासिल करने में मिलेगी.

मीथेन उत्सर्जन के लिए सबसे बड़ा जिम्मा कृषि क्षेत्र पर है. उसके बाद तेल और गैस उद्योग का नंबर आता है और इसमें कटौती ही उत्सर्जन को सबसे तेजी से कम करने में सक्षम है. उत्पादन और परिवहन के दौरान अगर तेल और गैस उद्योग में गैस लीक को काबू किया जा सके तो बड़ा असर हो सकता है.

यूएनईपी ने हाल ही में ग्लोबल मीथेन असेसमेंट मंच शुरू किया है. यूएनईपी का कहना है कि तेल और प्राकृतिक गैस क्षेत्र में मीथेन गैस के उत्सर्जन को 75 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है और इसमें से आधी कटौती तो बिना अतिरिक्त खर्च के ही हो सकती है.

वीके/सीके (रॉयटर्स, एएफपी)

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