महिलाओं को महाजनों से बचाने की कोशिश है माइक्रोफाइनैंस
७ दिसम्बर २०२२
माइक्रोफाइनेंस योजनाओं ने भारत में करोड़ों गरीब महिलाओं की जिंदगी बदल दी है. लेकिन महाजन इन योजनाओं को लोगों तक पहुंचने ही नहीं देना चाहते.
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मध्य भारत के एक गांव में रहने वालीं चंद्रावती राजपूत को तब रातों को नींद नहीं आती थी. उन्होंने बेटे की पढ़ाई के लिए महाजन से दो बार कर्ज लिया था और उसे चुकाना पहाड़ हो गया था. रोजाना का पांच प्रतिशत ब्याज लगता था. 20 हजार रुपये के उस लोन का ब्याज देने के लिए चंद्रावती ने अपनी अपने सोने के कंगन बेच दिए थे. पर महाजन का तकाजा खत्म नहीं हुआ.
मध्य प्रदेश के नरेला गांव में रहने वालीं चंद्रावती राजपूत याद करती हैं, "जब जरूरत होती है तो महाजन ही एकमात्र विकल्प होता है. लेकिन वे निर्दयी होते हैं.” महाजन ने उन्हें डराया, धमकाया, गालियां दीं और मारने-पीटने की धमकी भी दी.
पर अब वे दिन गुजर चुके हैं. 2020 में वह स्थानीय महिलाओं के लिए चलाई जा रही माइक्रोफाइनेंस परियोजना से जुड़ीं. उस परियोजना में संस्था ही गारंटर बन जाती है जिसके चलते महिलाओं को कर्ज मिल पाता है. राजपूत ने 30 हजार रुपये का कर्ज लिया और दूध की डेयरी शुरू की. उनके पास एक भैंस और सात गायें हैं. साथ ही उन्होंने बच्चों के कपड़ों की एक दुकान भी खोल ली है.
अब राजपूत मासिक 90 हजार रुपये तक कमा रही हैं जो खेतीहर मजदूरी के दौरान की उनकी कमाई से लगभग तीन गुना ज्यादा है. वह कहती हैं कि वह आसानी से स्पंदन स्फूर्ति माइक्रोफाइनेंस कंपनी के कर्ज की मासिक किश्त चुका पा रही हैं जो लगभग 1660 रुपये बनती है. वह कहती हैं, "पहली बार ऐसा हुआ है कि मुझे ये फिक्र नहीं होती कि घर कैसे चलेगा.” वह अपने व्यापार को बढ़ाना चाहती हैं और बच्चों को भी अपना व्यापार करने के लिए प्रेरित कर रही हैं.
सफेद सोने के ढेर पर बैठे हैं, मगर गरीबी ने पीछा नहीं छोड़ा
जीवाश्म ईंधन से छुटकारा पाने की कोशिशों से दुनियाभर में लिथियम का उत्पादन और कीमतें आसमान छू रही हैं. मगर इसका फायदा आसपास के स्थानीय निवासियों को शायद ही मिला है. वे अब भी गरीब हैं और जिंदगी संवरने का इंतजार कर रहे हैं.
तस्वीर: Martina Silva/AFP
लिथियम त्रिकोण
यूएस जियोलॉजिकल सर्वे के मुताबिक अब तक धरती पर 8.9 करोड़ टन लिथियम भंडार का पता चला है. इसमें से 56 फीसदी दक्षिण अमेरिकी त्रिकोण में मौजूद है. इस त्रिकोण में चिली, अर्जेंटीना और बोलिविया का इलाका शामिल है. इलेक्ट्रिक कारों की बैटरी में इस्तेमाल होने की वजह से लिथियम की मांग काफी ज्यादा बढ़ गयी है. अब इसे व्हाइट गोल्ड कहा जा रहा है.
तस्वीर: Alzar Raldes/AFP
लिथियम उत्पादन का असर
लिथियम उत्पादन के साथ ही इलाके के भूजल पर इसके असर की चिंता बढ़ रही है, क्योंकि जल संसाधनों की स्थिति यहां पहले ही बहुत खराब है. बहुत सारे इलाके सूखे की तरफ बढ़ रहे हैं और इसका संकेत गिरते पेड़ों और फ्लेमिंगों की मौत के रूप में दिख रहा है.
तस्वीर: Martina Silva/AFP
स्थानीय लोगों को नहीं मिला फायदा
इलाके में लिथियम भंडारों का फायदा यहां रहने वाले लोगों तक अब तक पहुंचता नहीं दिखा है. अर्जेंटीना के सालिनास ग्रांदेस में रहने वाली वेरोनिका चावेज कहती हैं, "न तो हम लिथियम खाते हैं और न बैटरियां. हम पानी जरूर पीते हैं." इलाके में पोस्टर भी लगा है, "नो टू लिथियम, येस टू वाटर एंड लाइफ"
तस्वीर: Alzar Raldes/AFP
हर दिन लाखों लीटर पानी का इस्तेमाल
धरती से लिथियम निकालने वाले प्लांटों में प्रतिदिन लाखों लीटर पानी इस्तेमाल होता है. लिथियम का एक बड़ा निर्यातक है ऑस्ट्रेलिया. ऑस्ट्रेलिया में लिथियम चट्टान से निकाला जाता है और इसकी प्रक्रिया काफी अलग है.
तस्वीर: Martina Silva/AFP
नमक से निकलता है लिथियम
दक्षिण अमेरिका में लिथियम नमक से निकाला जाता है. इसके लिए धातु वाले नमक के पानी को जमीन के नीचे मौजूद खारे पानी की झीलों से निकाला जाता है. इसके बाद इसका पानी वाष्प बनाकर उड़ा दिया जाता है और नीचे धातु बच जाती है.
तस्वीर: Martina Silva/AFP
एक चौथाई लिथियम चिली से आया
नवंबर 2020 में लिथियम की औसत कीमत 5,700 डॉलर प्रति टन थी, जो सितंबर 2022 में 60,500 प्रति टन तक जा पहुंची. लिथियम त्रिकोण का पश्चिमी हिस्सा चिली के अटाकामा डेजर्ट में है. 2021 में दुनियाभर में लिथियम के कुल उत्पादन का 26 फीसदी यहीं से आया. (तस्वीर सालिनास ग्रेंडेस की है)
तस्वीर: Martina Silva/AFP
लिथियम उत्पादन के लिए आदर्श जगह
चिली में लिथियम निकालने का काम 1984 में शुरू हुआ. कम बारिश और तेज सौर विकिरण के कारण यह आदर्श जगह है, जो वाष्पीकरण की प्रक्रिया को तेज कर देती है. हालांकि, चिली के तानाशाह शासक आगुस्तो पिनोचेट ने इस धातु को परमाणु बमों में इस्तेमाल की क्षमता के चलते रणनीतिक संसाधन घोषित कर दिया है.
तस्वीर: Oliver Llaneza Hesse/Construction Photography/Photosh/picture alliance
खुदाई की अनुमति नहीं
लिथियम की खुदाई के लिए कंपनियों को सरकार से मंजूरी नहीं मिल रही है. चिली की एसक्यूएम और अमेरिका की अल्बमार्ले को ही इसकी इजाजत है और उन्हें अपनी बिक्री का 40 फीसदी बतौर टैक्स देना होता है.
तस्वीर: Alzar Raldes/AFP
अर्जेंटीना का लिथियम भंडार
अर्जेंटीना में जुजुय और पड़ोसी राज्य साल्टा और काटामार्का के साल्ट लेक इसे दुनिया में लिथियम का दूसरा सबसे बड़ा भंडार बनाते हैं. महज 3 प्रतिशत टैक्स की दर और खुदाई पर कम पाबंदियों के कारण अर्जेंटीना सिर्फ दो खदानों की बदौलत दुनिया का चौथा सबसे बड़ा लिथियम उत्पादक बन गया है.
तस्वीर: Martina Silva/AFP
सबसे आगे जाने का सपना
अमेरिका, चीन, फ्रांस, दक्षिण कोरिया के साथ ही कई स्थानीय कंपनियां भी यहां दर्जनों नई परियोजनाओं में जुटी हुई हैं. इनके दम पर अर्जेंटीना का कहना है कि वह 2030 तक लिथियम के उत्पादन में चिली को पीछे छोड़ देगा.
तस्वीर: Martina Silva/AFP
"मुझे लिथियम नहीं चाहिए"
अर्जेंटीना के लिथियम वाले इलाके में स्ट्रीट फूड बेचने वाली 47 साल की बारबरा क्विपिलडोर नाराजगी के साथ कहती हैं, "मैं चाहती हूं कि वे हमें अकेले शांति से रहने के लिए छोड़ दें. मुझे लिथियम नहीं चाहिए. मेरी चिंता मेरे बच्चों का भविष्य है."
तस्वीर: Alzar Raldes/AFP
इतना लिथियम, फिर भी आधे से ज्यादा गरीब
जुजुय के उत्तर में करीब 300 किलोमीटर दूर है बोलिविया का उयुनी. यहां पर धरती की किसी भी जगह से ज्यादा यूरेनियम है. पूरी दुनिया का लगभग एक चौथाई. यह इलाका चांदी और टिन के लिहाज से भी काफी अमीर है, लेकिन यहां के आधे से ज्यादा लोग गरीबी में जी रहे हैं.
तस्वीर: Martina Silva/AFP
संसाधनों का राष्ट्रीयकरण
बोलिविया के वामपंथी पूर्व प्रधानमंत्री इवो मोरालेस ने हाइड्रोकार्बन और लिथियम जैसे दूसरे संसाधनों का राष्ट्रीयकरण करके शपथ ली कि धातुओं की वैश्विक कीमत वह तय करेगा. 2018 में इसे निजी क्षेत्रों के लिए खोला गया, लेकिन राष्ट्रीयकरण खत्म नहीं किया गया. इसीलिये निजी कंपनियां खुदाई शुरू नहीं कर सकीं.
तस्वीर: Pablo Cozzaglio/AFP/Getty Images
आम लोगों का फायदा?
बोलिविया इस धातु से फायदा उठाना चाहता तो है, लेकिन अब तक यह काम शुरू नहीं हुआ है. अब ये तीनों देश बैटरी और इलेक्ट्रिक कार बनाने के बारे में सोच रहे हैं, ताकि प्राकृतिक संसाधन से आधुनिक उद्योग खड़े किये जा सकें. बड़ा सवाल यह है कि जब धातु की खुदाई शुरू होगी, तब क्या उसका फायदा स्थानीय लोगों को मिलेगा.
तस्वीर: Pablo Cozzaglio/AFP/Getty Images
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माइक्रोफाइनेंस की इस परियोजना से हजारों ग्रामीण महिलाओं का जीवन बदल रहा है. दूर-दराज इलाकों में जहां बैंकों की या तो पहुंच नहीं है या फिर वे गरीब लोगों को कर्ज नहीं देना चाहते, वहां इस परियोजना ने लोगों की जिंदगी संवार दी है. 20 से ज्यादा महिलाओं ने थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को बताया कि वे कर्ज के लिए बैंक नहीं गईं क्योंकि बैंक वाले या तो गिरवी रखने के लिए कुछ संपत्ति चाहते हैं जो उनके पास नहीं है, या फिर इतनी कागजी कार्रवाई करते हैं कि गरीब अनपढ़ ग्रामीण महिलाएं बेबस हो जाती हैं.
भारत के नेशनल सेंटर फॉर फाइनेंस एजुकेशन के मुताबिक भारत के 75 प्रतिशत वयस्क वित्तीय रूप से अनपढ़ हैं. महिलाओं की संख्या तो 80 फीसदी है. वीगो (WEIGO) एक नेटवर्क है जो अनौपचारिक क्षेत्र में काम कर रहे मजदूरों, खासकर महिलाओं की मदद करता है. भारत में वीगो की प्रतिनिधि शालिनी सिन्हा कहती हैं यदि गरीब महिलाओं को वित्तीय शिक्षा नहीं दी गई तो उनका महाजनों के चंगुल में फंसना जारी रहेगा.
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हर ओर महाजन
ये महाजन जगह-जगह फैले हैं. स्थानीय बाजारों में सुनार, या इसी तरह के दुकानदार से लेकर ठेकेदार तक, तमाम लोग महाजनी करते हैं. बैंकों की तुलना में उन तक पहुंचना आसान है और वे बिना कागजात के कर्ज दे देते हैं. सिन्हा कहती हैं, "लेकिन वे जो ब्याज लेते हैं वो इतना ज्यादा होता है कि चुकाया ही नहीं जा सकता. उसे चुकाने के लिए महिलाएं दूसरा कर्ज लेती हैं और फिर तीसरा. इस तरह वे कुचक्र में फंस जाती हैं.”
ग्रामीण भारत में कर्ज के बाजार पर महाजनों का कब्जा है, जो पीढ़ियों से चला आ रहा है. विशेषज्ञ बताते हैं कि वे 10 प्रतिशत रोजाना तक ब्याज लेते हैं. और जो चुका ना सके, उसे बख्शा नहीं जाता. उनके साथ जोर-जबरदस्ती और मारपीट तक होती है.
सितंबर में आंध्र प्रदेश के एक शादीशुदा जोड़े ने इसलिए खुदकुशी कर ली क्योंकि महाजन उन्हें परेशान कर रहे थे. उनकी निजी तस्वीरों को सोशल मीडिया पर पोस्ट करने की धमकी तक दी गई थी. आंध्र प्रदेश माइक्रोफाइनेंस का बड़ा केंद्र रहा है. हालांकि उधार लेने वालों में खुदकुशी के बढ़ते मामलों के चलते राज्य ने करीब एक दशक पहले सख्ती बरतनी शुरू कर दी थी. 2015 में बिना लाइसेंस लिए महाजनी करने पर पाबंदी लगा दी गई और करीब 200 महाजनों को गिरफ्तार भी किया गया क्योंकि वे लोगों को धमका रहे थे.
सम्मानजनक जीवन
विवेक तिवारी दिल्ली स्थित सत्य माइक्रोकैपिटल लिमिटेड के प्रमुख हैं. वह कहते हैं कि उनकी मुख्य चुनौती नई नई जगहों पर अनौपचारिक रूप से कर्ज देने वालों से निपटना होती है. एक बार तो उनके एक सहकर्मी को बंदूक की नोक पर धमकाया गया था. वह कहते हैं, "वे इस बाजार में हमें बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं.”
दान में कितना धन देते हैं भारतीय
2020 से 2021 के बीच भारत में लोगों ने 23,700 करोड़ रुपये नकद दान में दे दिए. दान को लेकर किए गए एक नए सर्वेक्षण में ऐसे कई दिलचस्प तथ्य सामने आए हैं.
तस्वीर: Aamir Ansari/DW
23,700 करोड़ रुपये नकद
अक्टूबर 2020 से सितंबर 2021 के बीच भारत में लोगों ने 23,700 करोड़ रुपये नकद दान में दे दिए. अशोका विश्वविद्यालय के एक सर्वेक्षण "हाउ इंडिया गिव्स 2020-21" में यह आंकड़ा सामने आया. सर्वेक्षण में 18 राज्यों के 81,000 परिवारों को शामिल किया गया.
तस्वीर: Aamir Ansari/DW
बहुत हैं दान देने वाले
सर्वेक्षण में शामिल होने वाले परिवारों में से 87 प्रतिशत परिवारों ने इस अवधि में कहीं न कहीं या किसी न किसी को कुछ धनराशि दान में जरूर दी. साथ ही, दान देने वाले लगभग सभी आय वर्गों में देखे गए, चाहे वो अमीर हों, मध्यम वर्गीय हों या आर्थिक रूप से कमजोर हों.
तस्वीर: Khaled Abdullah/REUTERS
ज्यादातर दान नकद में
धार्मिक संगठन, गैर-धार्मिक संगठन, भिखारियों, दोस्तों और रिश्तेदारों को भी दान दिया गया. अधिकांश दान (56 प्रतिशत) नकद में दिया गया, सात प्रतिशत सामान के रूप में दिया गया और 37 प्रतिशत दान दोनों को मिला कर दिया गया. नकद के बाद, चेक या कार्ड की जगह डिजिटल वॉलेटों को ज्यादा इस्तेमाल किया गया.
तस्वीर: Janusz Pienkowski/Zoonar/picture alliance
धार्मिक संगठनों को वरीयता
सर्वेक्षण में यह भी पता चला कि इस धनराशि में से करीब 16,600 करोड़ रुपये, यानी 70 प्रतिशत हिस्सा, धार्मिक संगठनों को दिया गया. धार्मिक संगठनों के बाद स्थान रहा भिखारियों का, जिन्हें दान में दी गई राशि का कुल 12 प्रतिशत मिला.
तस्वीर: Zobaer Ahmed/DW
गांव, शहर में अंतर
कुल मिला कर तो गांवों और शहरों में एक जैसी दान की आदतें देखी गईं, लेकिन ग्रामीण इलाकों में धार्मिक संगठनों और भिखारियों को ज्यादा परिवारों ने दान दिया. शहरों में ज्यादा परिवारों ने गैर-धार्मिक संगठनों और दोस्तों, रिश्तेदारों को दान दिया.
तस्वीर: Subrata Goswami/DW
प्रांतों में भी फर्क
देश के पूर्वी और उत्तरी इलाकों में दान देने के चलन का प्रचलन ज्यादा पाया गया. इन प्रांतों में पाया गया कि 10 में से नौ परिवारों ने इस अवधि में कम से कम एक बार दान जरूर दिया.
तस्वीर: Marco Longari/AFP
क्यों देते हैं दान
धार्मिक मान्यताओं, आर्थिक तनाव से गुजर रहे लोगों की मदद करने की जरूरत और इच्छा और परिवार में दान देने की परंपरा को दान देने के लिए तीन सबसे महत्वपूर्ण कारण माना गया.
तस्वीर: Aamir Ansari/DW
क्यों नहीं देते हैं दान
जिन परिवारों ने इस अवधि में एक बार भी दान नहीं दिया, उनमें से 37 प्रतिशत परिवारों ने कहा कि उनके पास दान देने के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं थे. वहीं, इनमें से 31 प्रतिशत परिवारों ने कहा कि उन्होंने दान इसलिए नहीं दिया क्योंकि कोई उनके पास दान मांगने के लिए आया ही नहीं.
तस्वीर: Subrata Goswami/DW
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तिवारी दिल्ली स्थित माइक्रोफाइनेंस इंस्टीट्यूशंस नेटवर्क (MFIN) के उपाध्यक्ष भी हैं. वह कहते हैं कि ये संस्थान अंदरूनी इलाकों तक पहुंच रहे हैं और लोगों की मदद करने में उन्हें बड़ी कामयाबी मिली है.
भारत में छह करोड़ से ज्यादा महिलाओं के पास ऐसे गांरटी बिना कर्ज हैं, जिसका लाभ 30 करोड़ परिवारों को मिला है. तिवारी कहते हैं, "हम लोगों को ज्यादा आजादी दे रहे हैं. वे कर्ज ले सकते हैं और सिर उठाकर उसे चुका सकते हैं. इसीलिए वे दोबारा महाजनों के चंगुल में नहीं फंसना चाहते.”