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अजन्मी बेटियां और जन्मजात भेदभाव का सच

ऋतिका पाण्डेय१९ अगस्त २०१५

सही है कि इंटरनेट कंपनियों को लिंग निर्धारण वाले विज्ञापन भारत में नहीं दिखाने चाहिए क्योंकि इनका इस्तेमाल कन्या भ्रूण की हत्या में होता है. लेकिन क्या इस अपराध की जड़ में लड़कियों के प्रति बरता जाने वाला भेदभाव नहीं है?

तस्वीर: Mobisante/Sailesh Chutani

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की हाल की रिपोर्ट दिखाती है कि उत्तर प्रदेश, बिहार और असम में आधी से ज्यादा महिलाओं का अपहरण फिरौती के लिए नहीं बल्कि शादी के लिए हुआ. अपहरण जैसे अपराध में देश में सबसे आगे रहने वाला राज्य है उत्तर प्रदेश और उसके बाद आता है बिहार. यहां से उठाई जा रही महिलाएं पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में ले जाकर शादी के नाम पर बेची जा रही हैं, जहां कुछ हजार से लेकर कुछ लाख रूपयों के बीच औरतों की कीमत लगती है.

असल परेशानी तो ये है कि कई लोगों को ये हालात अब चौंकाते भी नहीं हैं. आखिर ऐसे राज्यों में आप उम्मीद भी क्या कर सकते हैं जहां लिंग अनुपात में हर हजार लड़कों के मुकाबले 900 से काफी कम लड़कियां हों. प्रसिद्ध अर्थशास्त्री डॉक्टर अमर्त्य सेन ने 1986 में भारत की आबादी से "गायब" करोड़ों महिलाओं की बात की थी, जिसमें मादा भ्रूण हत्या, दहेज हत्या, ऑनर किलिंग या 5 साल से कम उम्र की बच्चियों की अनदेखी के कारण होने वाली मौतों का जिक्र था.

ऐसे कई राज्य हैं जहां लिंग अनुपात के काफी खराब होने के बावजूद मादा भ्रूण हत्या के मामले रूके नहीं हैं. सुप्रीम कोर्ट ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए इंटरनेट कंपनियों गूगल, याहू और माइक्रोसॉफ्ट को निर्देश दिए कि वे ऐसे कोई विज्ञापन ना दिखाएं जिससे भारतीय कानून के पीसी-पीएनडीटी एक्ट (प्री-कंसेप्शन एंड प्री-नेटल डायग्नोस्टिक टेकनीक्स एक्ट, 1994) का उल्लंघन होता हो. लेकिन ऐसे कितने लोग हैं जो इंटरनेट पर इन विज्ञापनों को देखकर कन्या भ्रूण की गर्भ में ही हत्या करने को प्रेरित होते हैं?

ऋतिका पाण्डेय, डॉयचे वेलेतस्वीर: DW/P. Henriksen

जर्मनी जैसे दुनिया के कई विकसित देशों में लिंग जांच के टेस्ट होते हैं लेकिन विकसित समाज अपनी बच्चियों को चुन चुन कर नहीं मारता. क्या ये सच नहीं कि भारत में ज्यादातर मामलों में घर परिवार के लोगों की अपेक्षाओं का बोझ ही लड़कियों की गर्भ में हत्या का कारण बनता है?

कई मामलों में मां बनने वाली महिला के दिमाग में काफी पहले से यह बात भरी होती है कि अगर उसने लड़के को जन्म नहीं दिया तो परिवार और समाज में उन्हें सम्मान नहीं मिलेगा. अगर बचपन से ही खुद उस महिला ने समाज में दोयम दर्जे का व्यवहार ही झेला है तो वह अपनी इस संभावित अवनति से और भी परेशान हो जाती है.

इसके अलावा अगर पति और परिवार को उससे वंश का नाम आगे चलाने वाला, चिता को आग या लाश को कंधा दे सकने वाला कर्णधार ही चाहिए, तो ऐसे माहौल में पैदा हुई बच्ची के सही पालन पोषण की संभावना और भी कम हो जाती है. ऐसे में अगर महिला खुद आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर भी ना हो, तो उसे परिवार और पति की इच्छा के अनुरुप ही चलना पड़ता है. जाहिर है, अगर मां खुद कमजोर हो तो वह अपनी अजन्मी बेटी की जान बचाने के लिए लड़ने के भी काबिल नहीं होती.

पैदा हो भी जाएं तो देश की कई बेटियों को उनके भाईयों के मुकाबले खाने पीने, शिक्षा और विकास के अवसर कम मिलते हैं. भारत में 5 साल से कम उम्र के 40 फीसदी से भी अधिक बच्चे कुपोषण के शिकार पाए गए हैं, जिनमें भी लड़कियों की संख्या ज्यादा है. यह वे सच्चाईयां हैं जो हमें अगर अब भी नहीं झकझोड़तीं तो शादी के लिए अपहरण ही नहीं, हत्याएं भी होंगी. बलात्कार और जबर्दस्ती और भी आम होगी. परिवार की संरचना छिन्न भिन्न होगी, मांएं खुद धरती पर बच्चे के जन्म के वरदान को आगे बढ़ा सकने वाली लड़की नहीं जन्मेंगी, और गर्भ में मादा भ्रूण को मारने वाला हत्यारा इंसान खुद ही मानव जाति का अंत कर देगा.

पुरुष अपनी जिम्मेदारी समझें और महिलाएं सशक्त बनें तो ही विनाश का ये चक्र रूक सकता है, वरना हम तो इस तबाही के रास्ते पर अब काफी आगे निकल ही चुके हैं. इसकी बानगी रोजाना अखबारों में हिंसा, अपहरण और बलात्कार की खबरों में दिखती है. कभी खबरों के पीछे दस्तक दे रहे इस सबसे बड़े खतरे को भी देखें.

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