मानवाधिकार संगठन एमनेस्टी इंडिया के खिलाफ दो समुदायों के बीच भावनाएं भड़काने और देशद्रोह का मामला दर्ज हुआ है. हार्दिक पटेल और जेएनयू विवाद के बाद देशद्रोह का मुद्दा एक बार फिर गरमा सकता है.
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एमनेस्टी इंडिया पर आरोप है कि बेंगलुरु में उसके एक सेमीनार में कश्मीर की आजादी और भारतीय सेना के खिलाफ नारे लगाए गए. भाजपा की छात्र ईकाई एबीवीपी और अन्य संगठनों से मिली शिकायत और सेमीनार का वीडियो फुटेज सामने आने के बाद पुलिस ने एमनेस्टी इंडिया के खिलाफ देशद्रोह का मामला दर्ज किया है.
क्याहैपूरामामला?
एमनेस्टी इंटरनेशनल ने मानवाधिकार के उल्लंघन विषय पर पिछले हफ्ते बेंगलुरु के यूनाइटेड थियोलॉजिकल कॉलेज में 'ब्रोकन फैमिलीज' के नाम से सेमीनार आयोजित किया था. इस दौरान कश्मीर पर चर्चा हुई. कश्मीर में मानवाधिकार उल्लंघन का मुद्दा उठाते हुए कार्यक्रम में शामिल कुछ कश्मीरियों ने भारतीय सेना पर आरोप लगाया कि वह लोगों को तंग करती है. इसका विरोध कार्यक्रम में मौजूद कश्मीरी पंडितों ने किया.
राजद्रोह के मायने, दायरे और इतिहास
भारत में राजद्रोह के नाम पर हुई गिरफ्तारियों से इसकी परिभाषा और इससे जुड़े कानून की ओर ध्यान खिंचा है. आइए देखें कि भारतीय कानून व्यवस्था में राजद्रोह का इतिहास कैसा रहा है.
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भारतीय दंड संहिता यानि आईपीसी के सेक्शन 124-A के अंतर्गत किसी पर राजद्रोह का आरोप लग सकता है. ब्रिटिश औपनिवेशिक काल की सरकार ने 19वीं और 20वीं सदी में राष्ट्रवादी असंतोष को दबाने के लिए यह कानून बनाए थे. खुद ब्रिटेन ने अपने देश में राजद्रोह कानून को 2010 में समाप्त कर दिया.
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सेक्शन 124-A के अनुसार जो भी मौखिक या लिखित, इशारों में या स्पष्ट रूप से दिखाकर, या किसी भी अन्य तरीके से ऐसे शब्दों का प्रयोग करता है, जो भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार के लिए घृणा या अवमानना, उत्तेजना या असंतोष पैदा करने का प्रयास करे, उसे दोषी सिद्ध होने पर उम्रकैद और जुर्माना या 3 साल की कैद और जुर्माना या केवल जुर्माने की सजा दी जा सकती है.
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"देश विरोधी" नारे और भाषण देने के आरोप में हाल ही में दिल्ली की जेएनयू के छात्रों, दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर एसएआर गिलानी से पहले कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी, लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता अरुंधती रॉय, चिकित्सक और एक्टिविस्ट बिनायक सेन जैसे कई लोगों पर राजद्रोह का आरोप लगा.
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सन 1837 में लॉर्ड टीबी मैकॉले की अध्यक्षता वाले पहले विधि आयोग ने भारतीय दंड संहिता तैयार की थी. सन 1870 में ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन ने सेक्शन 124-A को आईपीसी के छठे अध्याय में जोड़ा. 19वीं और 20वीं सदी के प्रारम्भ में इसका इस्तेमाल ज्यादातर प्रमुख भारतीय राष्ट्रवादियों और स्वतंत्रता सेनानियों के लेखन और भाषणों के खिलाफ हुआ.
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पहला मामला 1891 में अखबार निकालने वाले संपादक जोगेन्द्र चंद्र बोस का सामने आता है. बाल गंगाधर तिलक से लेकर महात्मा गांधी तक पर इस सेक्शन के अंतर्गत ट्रायल चले. पत्रिका में छपे अपने तीन लेखों के मामले में ट्रायल झेल रहे महात्मा गांधी ने कहा था, "सेक्शन 124-A, जिसके अंतर्गत मुझ पर आरोप लगा है, आईपीसी के राजनीतिक वर्गों के बीच नागरिकों की स्वतंत्रता को दबाने के लिए रचे गए कानूनों का राजकुमार है."
सन 1947 में ब्रिटिश शासन से आजादी मिलने के बाद से ही मानव अधिकार संगठन आवाजें उठाते रहे हैं कि इस कानून का गलत इस्तेमाल अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ किए जाने का खतरा है. सत्ताधारी सरकार की शांतिपूर्ण आलोचना को रोकना देश में भाषा की स्वतंत्रता को ठेस पहुंचा सकता है.
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सन 1962 के एक उल्लेखनीय 'केदार नाथ सिंह बनाम बिहार सरकार' मामले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कानून की संवैधानिकता को बरकरार रखने का निर्णय लिया था. हालांकि अदालत ने ऐसे भाषणों या लेखनों के बीच साफ अंतर किया था जो “लोगों को हिंसा करने के लिए उकसाने वाले या सार्वजनिक अव्यवस्था पैदा करने की प्रवृत्ति वाले हों.”
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आलोचक कहते आए हैं कि देश की निचली अदालतें सुप्रीम कोर्ट के फैसले को नजरअंदाज करती आई हैं और राज्य सरकारों ने समय समय पर मनमाने ढंग से इस कानून का गलत इस्तेमाल किया है. भविष्य में इसके दुरुपयोग को रोकने के लिए कुछ लोग केंद्र सरकार से सेक्शन 124-A की साफ, सटीक व्याख्या करवाने, तो कुछ इसे पूरी तरह समाप्त किए जाने की मांग कर रहे हैं.
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आजादी समर्थक कश्मीरियों में अधिकतर युवा और छात्र थे जिन्होंने कश्मीरी पंडितों द्वारा भारतीय सेना की सराहना किये जाने पर आपत्ति जतायी. माहौल तब और ज्यादा तनावपूर्ण हो गया जब कथित तौर पर भारत विरोधी और कश्मीर की आजादी के नारे लगने लगे. कार्यक्रम के दौरान कुछ छात्रों ने कथित तौर पर सेना द्वारा मुठभेड़ में मार गिराए गए आतंकी बुरहान वानी को अपना हीरो भी बताया.
कश्मीर की आजादी के नारे सुन भड़के वहां मौजूद एक वर्ग ने तत्काल 'भारत माता की जय' और 'वंदे मातरम' के नारे लगाए. इस कारण दोनों गुटों में तीखी बहस और हल्की झड़प भी हुई. स्थिति के तनावपूर्ण होते ही पुलिस ने कार्यक्रम को रुकवा दिया.
जांचकेबादहोगीकार्रवाई
इस हंगामे के बाद से ही एबीवीपी और दूसरे संगठन, आयोजकों और भारत विरोधी नारे लगाने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की मांग कर रहे हैं. घटना के विरोध में एबीवीपी ने विरोध प्रदर्शन किया है. भाजपा की कर्नाटक ईकाई के अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदुरप्पा ने गृह मंत्री राजनाथ सिंह से मामले की जांच और दखल की मांग की है. उन्होंने एमनेस्टी इंटरनेशनल के खिलाफ कार्रवाई की मांग की.
आलोचना को दबाती सरकारें
इंटरनेट ने समाज को लोकतांत्रिक बनाने का काम किया है और ब्लॉगरों ने लोकतांत्रिक बहस को नई दिशा दी है. लेकिन आलोचना सरकारों को रास नहीं आ रही है और ब्लॉगरों को हर कहीं दमन का शिकार बनाया जा रहा है.
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सउदी ब्लॉगर रइफ बदावी को इस्लाम के कथित अपमान के लिए सुनाई गई 1,000 कोड़ों की सजा जनता में शासन का डर बनाए रखने का एक क्रूर तरीका है. मई 2014 में सुनाई गई सजा को बरकरार रखते हुए सउदी कोर्ट ने बदावी को हर हफ्ते सार्वजनिक रूप से 50 कोड़े मारे जाने के अलावा 10 साल की जेल की सजा भी सुनाई है.
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पहली बार जनवरी 2015 में बदावी को जेद्दाह में सार्वजनिक रूप से 50 कोड़े मारे गए. इसके विरोध में नीदरलैंड्स के द हेग में प्रदर्शन हुए. दुनिया भर में सजा का विरोध हुआ. अब इस सजा के खिलाफ किसी कोर्ट में अपील करना संभव नहीं है. अब केवल सउदी किंग सलमान बिन अब्दुलअजीज ही 31 साल के बदावी को क्षमादान दे सकते हैं.
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ब्लॉगर रइफ बदावी 2012 से सउदी अरब में कैद हैं. उनकी वेबसाइट को बंद कर दिया गया है. बदावी पर धर्मनिरपेक्षता की तारीफ करने का आरोप है.
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बदावी की सजा के खिलाफ मॉन्ट्रियल में हुए प्रदर्शन में उनकी पत्नी इंसाफ हैदर ने भी भाग लिया. उन्होंने कोड़ों की सजा की तुलना मुस्लिम आतंकवादियों के हमलों से की.
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बदावी अपने इंटरनेट पेज पर सउदी अरब में वहाबी इस्लाम का कड़ाई का पालन करवाने के लिए धार्मिक पुलिस की नियमित रूप से आलोचना करते थे. एमनेस्टी इंटरनेशनल सजा के खिलाफ अभियान चला रहा है.
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ईरान के सोहैल अराबी को फेसबुक पर टिप्पणियों के लिए इमामों के अपमान का आरोप लगाकर सजा दी गई है. वे अभी भी जेल में हैं.
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बांग्लादेश के रसेल परवेज ने भौतिकी की पढ़ाई कर देश में धार्मिक मान्यताओं को चुनौती देने की कोशिश की. ईशनिंदा के आरोप में उन्हें जेल की सजा मिली.
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मिस्र के प्रमुख ब्लॉगर अला अब्देल फतह पिछले साल एक मुकदमे के दौरान अदालत के पिंजड़े में. उन पर देश के विरोध प्रदर्शन कानून को तोड़ने के लिए मुकदमा चलाया गया.
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ब्लॉगरों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के साथ ऐसा बर्ताव सिर्फ इस्लामी देशों में ही नहीं होता. पुतिन विरोधी अलेक्सी नवाल्नी को भी सरकार की ताकत का दंश झेलना पड़ा है.
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एबीवीपी और अन्य संगठनों से मिली शिकायत पर कार्रवाई करते हुए बेंगलुरू पुलिस ने एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया के खिलाफ सोमवार को एफआईआर दर्ज की. एमनेस्टी के खिलाफ देशद्रोह समेत भारतीय दंड संहिता की 5 धाराओं में केस दर्ज किया गया है. पुलिस के अनुसार ये सभी मामले संस्था के खिलाफ दर्ज हुए हैं, किसी व्यक्ति के नहीं. पुलिस का कहना है कि जांच पूरी करने के बाद जिम्मेदार लोगों पर कार्रवाई होगी. कर्नाटक के गृह मंत्री जी परमेश्वर ने इस मामले पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा है कि इसमें शामिल लोगों की पृष्ठभूमि और इरादे की जांच की जाएगी.
एमनेस्टीनेउठाएसवाल
एमनेस्टी इंटरनेशनल ने एक विज्ञप्ति जारी कर अपना बचाव किया है. एमनेस्टी का कहना है कि मानवाधिकारों से जुड़े मामलों पर संगठन ऐसे कार्यक्रमों का आयोजन करता रहता है और वह किसी का पक्षधर नहीं है. एमनेस्टी इंडिया की बेंगलुरु शाखा ने देशद्रोह का मामला दर्ज किये जाने पर नाराजगी जताते हुए कहा है कि उसके किसी कर्मचारी ने भारत विरोधी नारा नहीं लगाया.
संस्था का कहना है कि सेमीनार का उद्देश्य कश्मीर में मानवाधिकार की स्थिति पर चर्चा भर करना था. एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया के एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर आकार पटेल ने देशद्रोह का मामला दर्ज होने पर कहा कि संवैधानिक मूल्यों की सुरक्षा विषय पर कार्यक्रम भी अब अपराध माना जा रहा है. इस कार्यक्रम के लिए पुलिस को भी बुलाया गया था.
प्रेस फ्रीडम इंडेक्स 2016
प्रेस की आजादी पर दुनिया भर में दबाव बढ़ रहा है. यह कहना है कि मीडिया वाचडॉग रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स का जिसने प्रेस की आजादी, सेल्फ सेंसरशिप, कानूनी राज्य और दमन के मानकों पर अंतरराष्ट्रीय सूची जारी की है.
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1. फिनलैंड
पिछले पांच साल से वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में पहले स्थान पर. प्रति व्यक्ति अखबार पढ़ने वालों की सूची में तीसरे नंबर पर. देश में 31 दैनिकों सहित 200 अखबार लेकिन ज्यादातर मिल्कियत दो हाथों में.
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2. नीदरलैंड्स
पिछले साल के मुकाबले दो स्थान बेहतर. मीडिया और अभिमत की स्वतंत्रता की लंबी परंपरा. अपमान, भेदभाव और घृणा भड़काने पर रोक के लिए कानून लेकिन व्यंग्य की पूरी आजादी.
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3. नॉर्वे
पिछले साल के मुकाबले एक स्थान पीछे. मीडिया स्वतंत्रता का आधार 1814 का देश का संविधान. रेडियो, टेलिविजन और अखबारों में 40 प्रतिशत से ज्यादा शेयर रखने पर प्रमुख मीडिया ग्रुपों पर रोक.
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16. जर्मनी
शरणार्थी संकट के बीच जर्मनी में पत्रकारों पर हमलों में तेजी आई. हेट स्पीच और नाजी प्रचार पर रोक के बावजूद पत्रकार उग्र दक्षिणपंथियों के निशाने पर. पिछले साल के मुकाबले चार स्थान नीचे.
तस्वीर: Reuters/I.Fassbender
133. भारत
पिछले साल के मुकाबले सूची में भारत की स्थिति सुधरी लेकिन पत्रकारों और ब्लॉगरों पर धार्मिक गुटों के हमलों में तेजी. पत्रकारों की समस्याओं और उनकी सुरक्षा के मुद्दों पर सरकारें गंभीर नहीं.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/D. Yasin
147. पाकिस्तान
पिछले साल के मुकाबले पाकिस्तान ने सूची पर 12 स्थानों की छलांग लगाई लेकिन पत्रकारों को अतिवादी गुटों, इस्लामी संगठनों और खुफिया एजेंसियों से खतरा बना हुआ है. मीडिया के खिलाफ ये सब एकजुट हो जाते हैं.
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148. रूस
हालांकि रूस 2015 के मुकाबले चार स्थान ऊपर गया लेकिन 2012 में राष्ट्रपति पुतिन के क्रेमलिन में वापस लौटने के बाद से स्वतंत्र मीडिया और वेबसाइटों पर दबाव लगातार बढ़ता गया.
तस्वीर: Getty Images/AFP/A. Nemenov
151. तुर्की
राष्ट्रपति रेचेप तय्यप एरदोवान ने मीडिया के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है. पत्रकारों पर काफी दबाव है, कई को राष्ट्रपति के अपमान के आरोप में प्रताड़ित किया जाता है. वे खुद भी शिकायत दर्ज करने से नहीं चूकते.
चीन पिछले साल की ही तरह 176वें स्थान पर है. ब्लॉग और सोशल मीडिया को कंट्रोल करने के लिए फायरवॉल बनाने के अलावा भी चीन की कम्युनिस्ट पार्टी देश की मीडिया पर पूरा नियंत्रण रखती है.