ट्वीट के लिए हो या अखबार में मांस लपेट कर बेचने के लिए, भारत में राजनीति से प्रेरित गिरफ्तारियों का चलन बढ़ता जा रहा है. अस्पष्ट कानूनी प्रावधानों को इन मामलों में लोगों की आजादी छीनने का जरिया बनाया जा रहा है.
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उत्तर प्रदेश के संभल में एक ढाबा चलाने वाले तालिब हुसैन को पुलिस ने इसलिए गिरफ्तार कर लिया क्योंकि उनके खिलाफ हिंदू देवी-देवताओं की तस्वीरों वाले अखबार में मांसाहारी खाना पैक करने की शिकायत की गई थी.
शिकायतकर्ता का कहना था कि ऐसा करने से उसकी धार्मिक भावनाएं आहत हुई थीं. भारतीय डंड संहिता की धारा 295 ए के तहत यह शिकायत का वैध आधार है और दोषी पाए जाने पर तीन साल तक जेल की सजा का प्रावधान भी है.
लेकिन किस किस तरह के कदम से भावनाएं आहत हुईं यह फैसला पुलिस और अदालतों के विवेक पर छोड़ा गया है. इसी वजह से कई मामलों में छोटी छोटी बातों पर भी इस धारा के तहत कोई ना कोई शिकायत कर देता है और फिर पुलिस आरोपित व्यक्ति को गिरफ्तार भी कर लेती है.
पत्रकार मोहम्मद ज़ुबैर को भी पुलिस ने जिन धाराओं के तहत गिरफ्तार किया उनमें यह धारा भी शामिल है. हालांकि दिलचस्प बात यह है कि उनके जिस ट्वीट के खिलाफ 'धार्मिक भावनाएं आहत' करने की शिकायत की है वो ट्वीट उन्होंने 2018 में किया था.
अगर आप किसी के कदम, बयान, संदेश या सोशल मीडिया पोस्ट से आहत हुए हैं तो आप कितनी अवधि तक उसके खिलाफ शिकायत कर सकते हैं, इस सवाल पर भी कानून मूक है. नतीजतन, इस लिहाज से भी गिरफ्तारी पूरी तरह पुलिस के विवेक पर निर्भर है.
मई 2022 में महाराष्ट्र में अभिनेत्री केतकी चितले को उनकी एक फेसबुक पोस्ट की वजह से गिरफ्तार कर लिया गया था. 29 साल की चितले ने फेसबुक पर मराठी में किसी और की लिखी एक कविता डाली थी जिसमें एक ऐसे शख्स की आलोचना है जिसका चित्रण एनसीपी के अध्यक्ष शरद पवार से मिलता जुलता है.
इस फेसबुक पोस्ट के लिए ठाणे पुलिस की अपराध शाखा ने चितले के खिलाफ आईपीसी की धारा 500 (मानहानि), 501 (मानहानि करने वाली सामग्री छापना) और 153ए (दो समुदायों के बीच वैमनस्य फैलाना) के तहत मामला दर्ज कर उन्हें गिरफ्तार किया था.
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एक साथ कई एफआईआर
लेकिन सिर्फ ठाणे ही नहीं, बल्कि महाराष्ट्र के कई जिलों में चितले के खिलाफ कुल 22 एफआईआर दर्ज की गईं. उन्हें हाल ही में इनमें से सिर्फ एक मामले में जमानत मिली है जिसकी बदौलत वो जेल से बाहर निकल पाई हैं. 21 मामलों में सुनवाई अभी बाकी है.
पुलिस को गिरफ्तारी की इजाजत कानून देता है लेकिन उसके लिए भी एक तय प्रक्रिया है, जिसका अक्सर पुलिस द्वारा उल्लंघन देखा जा रहा है. संभव है कि पुलिस ऐसा राजनैतिक आदेशों के तहत करती हो. कई मामलों में अदालतें पुलिस की कार्रवाई को उलट भी देती हैं.
जून में सहारनपुर में पैगंबर मोहम्मद के कथित अपमान के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों के बाद पुलिस ने कुछ लोगों को गिरफ्तार कर लिया था. बाद में हिरासत में पुलिस द्वारा आठ लोगों को मारते पीटते हुए दिखाने वाला वीडियो भी वायरल हुआ.
लेकिन उन्हें लगभग एक महीना जेल में रखने के बावजूद पुलिस उनके खिलाफ कोई भी सबूत इकट्ठा नहीं कर पाई. रविवार तीन जुलाई को उनके खिलाफ आरोप साबित नहीं हो पाने के बाद अदालत ने उन्हें बरी कर दिया.
बढ़ती जा रही है जेलों में विचाराधीन कैदियों की संख्या
एनसीआरबी के ताजा आंकड़े दिखाते हैं कि देश की जेलों में ऐसे कैदियों की संख्या हर साल बढ़ती जा रही है जिनके खिलाफ आरोपों पर सुनवाई अभी चल ही रही है. जानिए और क्या बताते हैं ताजा आंकड़े.
तस्वीर: UNI
कितनी जेलें
2019 में देश में कुल 1,350 जेलें थीं, जिनमें सबसे ज्यादा (144) राजस्थान में थीं. दिल्ली में सबसे ज्यादा (14) केंद्रीय जेलें हैं. कम से कम छह राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों में एक भी केंद्रीय जेल नहीं है.
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जेलों में भीड़
इतनी जेलें भी बंदियों की बढ़ती संख्या के लिए काफी नहीं हैं. ऑक्यूपेंसी दर 2018 में 117.6 प्रतिशत से बढ़ कर 2019 में 118.5 प्रतिशत हो गई. सबसे ज्यादा ऊंची दर जिला जेलों (129.7 प्रतिशत) है. राज्यों में सबसे ऊंची दर दिल्ली में है (174.9 प्रतिशत).
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महिला जेलों का अभाव
'पूरे देश में सिर्फ 31 महिला जेलें हैं और वो भी सिर्फ 15 राज्यों/केंद्रीय शासित प्रदेशों में हैं. देश की सभी जेलों में कुल 4,78,600 कैदी हैं, जिनमें 19,913 महिलाएं हैं.
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कर्मचारियों का भी अभाव
2019 में जेल स्टाफ की स्वीकृत संख्या थी 87,599 लेकिन वास्तविक संख्या थी सिर्फ 60,787. सबसे बड़ा अभाव प्रोबेशन अधिकारी, कल्याण अधिकारी, मनोवैज्ञानिक, मनोचिकित्सक आदि जैसे सुधार कर्मियों का था.
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कैदियों पर खर्च
2019 में देश में कैदियों पर कुल 2060.96 करोड़ रुपए खर्च किए गए, जो कि जेलों के कुल खर्च का 34.59 प्रतिशत था. इसमें से 47.9 प्रतिशत (986.18 करोड़ रुपए) भोजन पर खर्च किए गए, 4.3 प्रतिशत (89.48 करोड़ रुपए) चिकित्सा संबंधी खर्च पर, 1.0 प्रतिशत (20.27 करोड़ रुपए) कल्याणकारी गतिविधियों पर, 1.1 प्रतिशत (22.56 करोड़ रुपए) कपड़ों पर और 1.2 प्रतिशत (24.20 करोड़ रुपए) शिक्षा और ट्रेनिंग पर किया गया.
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70 प्रतिशत कैदियों के मामले विचाराधीन
2019 में देश की सभी जेलों में अपराधी साबित हो चुके कैदियों की संख्या (1,44,125) ऐसे कैदियों की संख्या से ज्यादा थी जिनके खिलाफ मामले अभी अदालतों में विचाराधीन ही हैं (3,30,487). एक साल में विचाराधीन कैदियों की संख्या में 2.15 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है. इनमें से लगभग आधे कैदी जिला जेलों में हैं और 36.7 प्रतिशत केंद्रीय जेलों में.
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न्याय के इंतजार में
विचाराधीन कैदियों में 74.08 प्रतिशत कैदी (2,44,841) एक साल तक की अवधि तक, 13.35 प्रतिशत कैदी (44,135) एक से दो साल की अवधि तक, 6.79 प्रतिशत (22,451) दो से तीन सालों तक, 4.25 प्रतिशत (14,049) तीन से पांच सालों तक और 1.52 प्रतिशत कैदी (5,011) पांच साल से भी ज्यादा अवधि से जेल में बंद थे.
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शिक्षा का स्तर
सभी कैदियों में 27.7 प्रतिशत (1,32,729) अशिक्षित थे, 41.6 प्रतिशत (1,98,872) दसवीं कक्षा तक भी नहीं पढ़े थे, 21.5 प्रतिशत (1,03,036) स्नातक के नीचे तक पढ़े थे, 6.3 प्रतिशत (30,201) स्नातक थे, 1.7 प्रतिशत 8,085 स्नातकोत्तर थे और 1.2% प्रतिशत (5,677) कैदियों के पास टेक्निकल डिप्लोमा/डिग्री थी.
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मृत्युदंड वाले कैदी
सभी कैदियों में कुल 400 कैदी ऐसे थे जिन्हें मौत की सजा सुना दी गई थी. इनमें से 121 कैदियों को 2019 में मृत्युदंड सुनाया गया था. 77,158 कैदियों (53.54 प्रतिशत) को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी.
तस्वीर: AFP/STR
जेल में मृत्यु
2018 में 1,845 कैदियों के मुकाबले 2019 में 1,775 कैदियों की जेल में मृत्यु हुई. इनमें से 1,544 कैदियों की मौत प्राकृतिक कारणों से हुई. अप्राकृतिक कारणों से मरने वाले कैदियों की संख्या 10.74 प्रतिशत बढ़ कर 165 हो गई. इनमें से 116 कैदियों की मौत आत्महत्या की वजह से हुई, 20 की मौत हादसों की वजह से हुई और 10 की दूसरे कैदियों द्वारा हत्या कर दी गई. कुल 66 मामलों में मृत्यु का कारण पता नहीं चल पाया.
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पुनर्वास
2019 में कुल 1,827 कैदियों का पुनर्वास कराया गया और 2,008 कैदियों को रिहाई के बाद वित्तीय सहायता दी गई. कैदियों द्वारा कुल 846.04 करोड़ रुपए मूल्य के उत्पाद भी बनाए गए.