श्रीकृष्णा राजहंसिया ने तीन साल रोजाना 14 घंटे काम किया. ईंट के भट्ठे की आंच में उनकी जिंदगी के तीन साल जलकर स्वाहा हो गए. लेकिन यह कीमत उनकी आजादी के लिए काफी साबित नहीं हुई. वह आज भी गुलाम हैं और ये गुलामी उन्हें एक छोटे से कर्ज के बदले में मिली थी. ओडिशा के सुरगुल गांव में अपने घर के सामने बैठे राजहंसिया याद करते हैं, "हमें गांव छोड़ना पड़ा क्योंकि हम भूखे मर रहे हैं. तब हमने सोचा था कि मेहनत करेंगे तो इज्जत की जिंदगी जी लेंगे."
लेकिन दुनिया वैसी नहीं है जैसी राजहंसिया ने सोची थी. उसमें बंधुआ मजदूरी जैसी प्रथा भी है जो न इज्जत देती है ना रोजी रोटी. भारत में यह प्रथा विकास के साथ और बढ़ती जा रही है. विकास के नाम पर देश में जमकर निर्माण कार्य हो रहा है. इसके लिए ईंटें चाहिए. ईंटें भट्ठों पर बनती हैं. और भट्ठे बंधुआ मजदूरी का गढ़ बनते जा रहे हैं.
देखिए, ये हैं 21वीं सदी के गुलाम
मानवाधिकार संगठन ह्यूमन राइट्स वॉच ने मानवाधिकारों के हनन के लिए एक बार फिर कतर की आलोचना की है. फुटबॉल विश्व कप की मेजबानी करने जा रहे कतर में विदेशी मजदूरों की दयनीय हालत है.
तस्वीर: picture-alliance/augenklick/firo Sportphotoअंतरराष्ट्रीय फुटबॉल संघ (फीफा) ने विवादों के बावजूद कतर को 2022 के वर्ल्ड कप की मेजबानी सौंपी. मानवाधिकार संगठनों का आरोप है कि कतर में स्टेडियम और होटल आदि बनाने पहुंचे विदेशी मजदूरों की बुरी हालत है.
तस्वीर: picture-alliance/augenklick/firo Sportphotoएमनेस्टी इंटरनेशनल भी कतर पर विदेशी मजदूरों के शोषण का आरोप लगा चुका है. वे अमानवीय हालत में काम कर रहे हैं.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/A. Gebertएमनेस्टी के मुताबिक वर्ल्ड कप के लिए निर्माण कार्य के दौरान अब तक कतर में सैकड़ों विदेशी मजदूरों की मौत हो चुकी है.
तस्वीर: picture-alliance/HJS-Sportfotosमानवाधिकार संगठनों के मुताबिक कतर ने विदेशी मजदूरों की हालत में सुधार का वादा किया था, लेकिन इसे पूरा नहीं किया गया है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/Foto: Amnesty Internationalवर्ल्ड कप के लिए व्यापक स्तर पर निर्माण कार्य चल रहा है. उनमें काम करने वाले विदेशी मजदूरों को इस तरह के कमरों में रखा जाता है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/Foto: Amnesty Internationalस्पॉन्सर कानून के तहत मालिक की अनुमति के बाद ही विदेशी मजदूर नौकरी छोड़ या बदल सकते हैं. कई मालिक मजदूरों का पासपोर्ट रख लेते हैं.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/B.v. Jutrczenkaब्रिटेन के "द गार्डियन" अखबार के मुताबिक कतर की कंपनियां खास तौर नेपाली मजदूरों का शोषण कर रही हैं. अखबार ने इसे "आधुनिक दौर की गुलामी" करार दिया.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/Foto: Amnesty Internationalअपना घर और देश छोड़कर पैसा कमाने कतर पहुंचे कई मजदूरों के मुताबिक उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि हालात ऐसे होंगे.
तस्वीर: Getty Images/AFP/M. Naamaniकई मजदूरों की निर्माण के दौरान हुए हादसों में मौत हो गई. कई असह्य गर्मी और बीमारियों से मारे गए.
तस्वीर: picture-alliance/Pressefoto Markus Ulmerकतर से किसी तरह बाहर निकले कुछ मजदूरों के मुताबिक उनका पासपोर्ट जमा रखा गया. उन्हें कई महीनों की तनख्वाह नहीं दी गई.
तस्वीर: Getty Images/AFP/M. Naamaniकुछ मजदूरों के मुताबिक काम करने की जगह और रहने के लिए बनाए गए छोटे कमचलाऊ कमरों में पीने के पानी की भी किल्लत होती है.
तस्वीर: Getty Images/AFP/M. Naamaniमजदूरों की एक बस्ती में कुछ ही टॉयलेट हैं, जिनकी साफ सफाई की कोई व्यवस्था नहीं है.
तस्वीर: Getty Images/AFP/M. Naamani मानवाधिकार कार्यकर्ता बताते हैं कि इन भट्ठों पर कोई श्रम कानून नहीं चलता. यहां बस दो तरह के लोगों की चलती है. एक वे जो भट्ठों के मालिक हैं और दूसरे वे दलाल जो दूर-दराज के गरीब गांवों से लोगों को बहला-फुसलाकर यहां मजदूरी करने ले आते हैं. उसके बाद ये गरीब लोग ऐसे कुचक्र में फंसते हैं कि ताउम्र गुलामी में बिता देते हैं. राजहंसिया की कहानी इसकी एकदम सही तस्वीर है.
राजहंसिया से एक दलाल ने संपर्क किया. राजहंसिया आंध्र प्रदेश में एक ईंट भट्ठे पर काम करने को तैयार हो गए लेकिन वह अपने बीवी बच्चों को भी साथ ले जाना चाहते थे. इसके लिए दलाल ने उन्हें 18 हजार रुपये का कर्ज दिया. राजहंसिया ने सोचा था कि मजदूरी करेंगे तो कमाई से चुका देंगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. वह बताते हैं, "सबसे पहले तो उन्होंने हमसे हमारे फोन छीन लिए. वहां 24 घंटे गार्ड तैनात रहते थे ताकि कोई मजदूर भाग न जाए. यहां तक कि हम बाजार भी अकेले नहीं जा पाते थे. रात को हमारे बच्चों को मालिक के घर में रखा जाता था ताकि हम लोग रात को भाग न सकें. अब कोई अपने बच्चे छोड़कर कैसे भाग सकता था."
तस्वीरों में, भारत में बाल मजदूरी
भारत सरकार ने बाल मजदूरी कानून में बदलाव लाने का फैसला किया है. 14 साल से कम उम्र के बच्चे अब स्कूल के बाद और छुट्टियों में घर से जुड़े उद्यमों में काम कर सकेंगे. शर्त यह है कि पारिवारिक उद्यमों में जोखिम वाले काम न हों.
तस्वीर: DW/J. Singhभारत का मौजूदा कानून 14 साल से कम उम्र के बच्चों को 18 तरह के जोखिम वाले काम करने से ही रोकता है पर अब 18 साल तक के बच्चे भी इस तरह के काम नहीं कर पाएंगे. लेकिन घर पर चल रहे काम खतरनाक हैं या नहीं, इसे कौन तय करेगा?
तस्वीर: DW/J. Singhकुटीर उद्योग से जुड़े लोगों का कहना है कि पारंपरिक हुनर कम उम्र में ही सिखाना जरूरी है. अगर संसद ने बाल श्रम कानून बदल दिया तो भारत द्वारा वर्ष 2016 तक बाल श्रम के उन्मूलन के द हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन में किए गए वायदे का क्या होगा?
तस्वीर: DW/J. Singhबाल अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे कार्यकर्ताओं का कहना है कि अगर बाल श्रम पर नया कानून अस्तित्व में आया तो भारत के मौजूदा सवा करोड़ से भी ज्यादा बाल श्रमिकों की संख्या और बढ़ जाने की आशंका है.
तस्वीर: DW/J. Singhपिछले साल ही बाल मजदूरों को बंधुआगिरी कराने वालों के शिंकजे से निकालने का अभियान चला रहे भारत के कैलाश सत्यार्थी को नोबेल पुरस्कार दिया गया. उनके देश में कॉपी-किताबों की जगह होगी बच्चों के लिए मां बाप की दुकान.
तस्वीर: DW/J. Singhदुनिया भर में सवा सौ करोड़ बाल श्रमिक हैं. बच्चों को पढ़ने लिखने का और बेहतर जिंदगी का मौका देने की तो बहुत बात होती है लेकिन इस समस्या को जड़-मूल से नष्ट करने का कोई ठोस हल अब तक नहीं निकला है.
तस्वीर: DW/J. Singhढाबा, होटल, दुकान, खान या फैक्ट्री में काम नहीं, हमारे लिए तो कंधे पे बस्ते का भार है सही. बच्चों को परिवार चलाने की जिम्मेदारी नहीं पढ़ने लिखने और व्यक्तित्व का विकास करने की संभावना चाहिए.
तस्वीर: DW/J. Singhबाल श्रम से निजात पाने के लिए स्कूल के बाद काम की बेड़ियां नहीं खेलों और पुस्तकों की ज़रुरत है. पर लोग करें भी क्या? उद्योग में नए रोजगार बन नहीं रहे और बढ़ती आबादी और बच्चों का लालन पालन भी तो सब से बड़ी परेशानी है.
तस्वीर: DW/J. Singh"घर से है मंदिर बहुत दूर, चलो यूं कर लें, एक रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए.” लेकिन कितने लोग हैं जो यह तय कर पाते हैं. इन बच्चों की हंसी में बेहतर जिंदगी की उम्मीद ठहाके लगा रही है लेकिन बहुत से बच्चों की उम्मीद पूरी नहीं होती.
तस्वीर: DW/J. Singh गाली-गलौज रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा था. अगर कोई मजदूर कहता कि वह बीमार है और काम नहीं कर सकेगा तो उसकी आंखों में लाल मिर्च पाउडर डाल दिया जाता. दलाल ने वादा किया था कि एक हजार ईंट बनाने पर 250 रुपये मिलेंगे लेकिन मिलते थे बस 100 रुपये. राजहंसिया कहते हैं, "हमें हर हफ्ते कुछ पैसे दिए जाते थे जिनसे हम बस जरूरी चीजें खरीद पाते थे. कहते थे कि बाकी पैसा एक साथ काम खत्म होने के बाद मिलेगा. उन्हें डर था कि पूरा पैसा लेकर हम भाग जाएंगे."
राजहंसिया एक पुलिस छापे के बाद ही भट्ठे से निकल पाए. पुलिस ने उन्हें वहां से छुड़ाया और तब वे घर लौट सके. लेकिन अभी सब खत्म नहीं हुआ है. राजहंसिया का बेटा आज भी उसी भट्ठे में काम कर रहा है. वह कहते हैं, "18000 रुपये का कर्ज अभी बाकी है. मेरा बेटा अभी वहीं काम कर रहा है. पत्नी को भी शायद जाना होगा. क्योंकि पेट तो भरना ही है और हमारे पास और कोई विकल्प नहीं है."
राजहंसिया की यह कहानी हजारों लोगों की कहानी है. हालांकि कोई सटीक आंकड़ा नहीं है कि कितने लोग भट्ठों पर काम करते हैं लेकिन सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायर्नमेंट ने 2015 में एक रिसर्च की थी जिसके मुताबिक ऐसे करीब एक करोड़ लोग हैं. सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 1978 से अब तक 18 राज्यों के 172 जिलों से कुल दो लाख 82 हजार बंधुआ मजदूरों को मुक्त कराया गया है. ओडिशा के बलांगीर जिले से ही 2011 से अब तक 2488 बंधुआ मजदूर रिहा कराए जा चुके हैं.
देखिए, फैशन की चमक के पीछे क्या है
सस्ते कारीगर, घंटों मेहनत और कम भत्ते के रास्ते गुजर कर आप तक पहुंचते हैं, आपके पसंदीदा ब्रांड वाले कपड़े. बांग्लादेश में हुई कई फैक्ट्री दुर्घटनाओं ने सारी दुनिया का ध्यान इन कारीगरों की तरफ खींचा था.
तस्वीर: DW/M. Mohseniज्यादातर कपड़ों की बनवाई विकासशील देशों के सस्ते कारीगरों के हाथों होती है. बड़ी कंपनियां अक्सर दक्षिण एशियाई और लातिन अमेरिकी देशों से कपड़ों का निर्माण करवाती हैं, जहां भत्ता कम देना पड़ता है. फिर माल सस्ता होने के आगे मजदूरों के अधिकारों और उनकी सुरक्षा पर किसी का ध्यान कहां जाता है.
तस्वीर: picture-alliance/dpaऔद्योगिक उत्पादन की शुरुआत 18वीं सदी में औद्योगिक क्रांति के समय ब्रिटेन में हुई थी. लंदन और मैनचेस्टर के इलाकों में 1859 तक 100 से ज्यादा सूती मिलें आ चुकी थीं. बाल श्रम, घंटों काम और कम मजदूरी के अलावा मजदूरों की गिरती सेहत आम बात हो गई थी.
तस्वीर: gemeinfreiमजदूरों के साथ ज्यादती सिर्फ ब्रिटेन तक ही सीमित नहीं रही. 1911 में न्यूयॉर्क की एक कपड़ा फैक्ट्री में आग लगने से 146 मजदूर मारे गए. फैक्ट्री के निकास द्वार मालिकों ने बंद कर रखे थे. इस फैक्ट्री में काम करने वाली ज्यादातर युवा महिलाएं थीं.
तस्वीर: picture-alliance/dpaज्यादा से ज्यादा कारोबार की होड़ में देशों के बीच सस्ते उत्पादन की दौड़ शुरू हो गई. 1970 में निर्माण का ज्यादातर काम अमेरिका और एशिया से चीन और लातिन अमेरिका पहुंच गया. चीन में फिलहाल भत्ता दूसरे एशियाई देशों के मुकाबले ज्यादा है जिसके चलते फैक्ट्री मालिकों ने चीन के पड़ोसी देशों की तरफ रुख किया है.
तस्वीर: picture-alliance/dpaदक्षिण भारतीय राज्य तमिलनाडु में सुमंगली की लड़कियों के लिए कपड़े के कारखाने में काम करना कोई नई बात नहीं. तमिल भाषा में सुमंगली का मतलब होता है वह वधू जो घर में समृद्धि लाती है. वहां करीब एक लाख बीस हजार लड़कियां इन कारखानों में चार साल की ट्रेनिंग के लिए भेजी जाती हैं जिसमें मिलने वाले पैसे उनके दहेज में काम आते हैं. उन्हें 12 घंटे काम करने के बदले करीब 50 रुपये मिलते हैं.
तस्वीर: picture-alliance/Godongकंबोडिया में तीन लाख से ज्यादा महिलाएं बदतर हालत में कपड़ा फैक्ट्रियों में काम कर रही हैं. वे महीने में 4000 रुपये कमाती हैं. कई मजदूरों ने भत्ता बढ़वाने के लिए विरोध प्रदर्शन किए तो उन पर गोली चला दी गई. इसमें कई लोगों की जान गई. बांग्लादेश में करीब 40 लाख लोगों का जीवन कपड़ा उद्योग पर निर्भर है, जिनमें ज्यादातर महिलाएं हैं.
तस्वीर: Reutersइन मजदूरों की दर्दनाक कहानी की तरफ दुनिया का ध्यान हाल में तब गया जब बांग्लादेश की एक कपड़ा फैक्ट्री के ढह जाने से 1100 से ज्यादा लोगों की जान चली गई. इस त्रासदी के बाद जर्मनी की किक और मेट्रो जैसी 80 बड़ी कंपनियों ने फैक्ट्री में काम करने वाले मजदूरों की सुरक्षा के लिए करार किया.
तस्वीर: Reutersदुकानों के कांच में चमकते दमकते कपड़े देख कर तो हमें इनके बनने की कहानी का पता नहीं चलता. विकासशील और गरीब देशों में कम मजदूरी पर काम करवाने वाले देशों में जर्मनी सहित कई देश शामिल हैं.
तस्वीर: DW/M. Mohseni लेकिन मुक्त करा लेने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि इन मजदूरों के पास और कोई रोजगार नहीं होता. इसलिए वे फिर से उसी जगह जा फंसते हैं. बलांगीर के पुलिस अधिकारी आशीष कुमार बताते हैं, "पिछले साल हमने 1200 मजदूरों को रिहा कराया और उन्हें उनके घर भेज दिया. दो दिन बाद वे फिर लापता हो गए. कोई और दलाल उन्हें किसी और जगह ले गया."
वीके/एके (रॉयटर्स)