जलवायु परिवर्तन से ही नहीं, अपने बोझ से भी डूबेंगे शहरः शोध
विवेक कुमार
२ फ़रवरी २०२४
अमेरिका के कुछ वैज्ञानिकों ने दुनियाभर के 99 शहरों का अध्ययन करने के बाद कहा है कि तटीय शहर पहले के आकलन से कहीं ज्यादा तेजी से डूब रहे हैं.
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यह बात अब जगजाहिर है कि दुनिया के कई तटीय शहर डूब रहे हैं. बढ़ते समुद्र जलस्तर के कारण आने वाले 50 सालों में कई शहरों के डूब जाने की आशंका है. लेकिन एक ताजा अध्ययन में वैज्ञानिकों ने पाया है कि कुछ शहरों के डूबने की रफ्तार समुद्र के जलस्तर के बढ़ने से भी ज्यादा है. ऐसा इन शहरों में जमीन धंसने से हो रहा है.
अमेरिका की रोड आईलैंड यूनिवर्सिटी के ओशनोग्रैफी विभाग के वैज्ञानिकों पेई-चिन वु, मेंग वेई और स्टीवन डी होंट ने अमेरिका के भूगर्भ विज्ञान विभाग के साथ मिलकर समुद्र तटों पर अध्ययन किया. अपने शोध में उन्होंने पाया कि दुनियाभर के कई तटीय शहरों के डूबने की दर बढ़ चुकी है.
99 शहरों का अध्ययन
इन वैज्ञानिकों ने उपग्रह से ली गईं तस्वीरों का अध्ययन करके दुनियाभर के 99 तटीय शहरों का आकलन किया है. वैज्ञानिक कहते हैं कि अलग-अलग शहरों में डूबने की दर अलग-अलग है लेकिन अगर ऐसा ही चलता रहा तो बहुत से शहरों में बाढ़ उस समय से पहले आ जाएगी, जो अब तक समुद्री जल स्तर के मॉडलों के आधार पर माना गया था.
आर्कटिक-अंटार्कटिक: दुनिया के दो छोरों में कितना अंतर
आर्कटिक और अंटार्कटिक, दुनिया के दो छोर हैं. पृथ्वी के दो सिरे. दोनों जगहों पर जहां तक देखो बर्फ ही बर्फ. सतही तौर पर दोनों एक से दिखते हैं, लेकिन इनमें काफी फर्क है. आर्कटिक और अंटार्कटिक में क्या अंतर है, देखिए.
तस्वीर: picture alliance/Global Warming Images
भूगोल की एक काल्पनिक लकीर
पृथ्वी के बीच एक काल्पनिक रेखा मानी जाती है इक्वेटर, यानी विषुवत रेखा. जीरो डिग्री अक्षांश की यह लकीर पृथ्वी को उत्तरी और दक्षिणी गोलार्ध में बांटती है. अंग्रेजी में, नॉदर्न और सदर्न हेमिस्फीयर. यह उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव की आधी राह में है. आर्कटिक जहां उत्तरी गोलार्ध में है, वहीं अंटार्कटिक दक्षिणी गोलार्ध में है. तस्वीर में: अंटार्कटिक का माउंट एरेबस
तस्वीर: Danita Delimont/PantherMedia/Imago
एक समंदर है, दूसरा महादेश
बचपन में भूगोल के पाठ में आपने महादेशों और महासागरों के नाम याद किए होंगे. सात महादेशों में से एक है अंटार्कटिक और पांच महासागरों में से एक है आर्कटिक. अंटार्कटिक, सागर से घिरी जमीन है. वहीं आर्कटिक जमीन से घिरा सागर. यह दोनों इलाकों के बीच का सबसे बड़ा फर्क है.
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बर्फ में भी अंतर
आर्कटिक महासागर के ऊपर बर्फ की जो पतली परत है, वो लाखों साल पुरानी है. वैज्ञानिक इसे 'पेरीनियल आइस' कहते हैं. आर्कटिक की गहराई करीब 4,000 मीटर (चार किलोमीटर) है. उसकी अंदरूनी दुनिया को हम अब भी बहुत नहीं जानते. दूसरी तरफ अंटार्कटिक बर्फ की बहुत मोटी परत से ढका है. तस्वीर: अंटार्कटिक में गोता लगाती एक व्हेल
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पेंग्विन और पोलर बियर
पेंग्विन और ध्रुवीय भालू, इन दोनों को आप साथ नहीं देखेंगे. पेंग्विन केवल दक्षिणी गोलार्ध में पाए जाते हैं. सबसे ज्यादा पेंग्विन अंटार्कटिक में रहते हैं. इसके अलावा गलापगोस आइलैंड्स, दक्षिण अफ्रीका और न्यूजीलैंड में भी इनकी कुदरती बसाहट है.
तस्वीर: Ueslei Marcelino/REUTERS
पोलर बियर का घर
पोलर बियर पृथ्वी के सुदूर उत्तरी हिस्से आर्कटिक में रहते हैं. देशों में बांटें तो इनकी बसाहट ग्रीनलैंड, नॉर्वे, रूस, अलास्का और कनाडा में है. पेंग्विन और पोलर बियर में एक समानता ये है कि क्लाइमेट चेंज और ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण दोनों के घर और खुराक पर बड़ा जोखिम मंडरा रहा है.
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इंसानी रिहाइश
हजारों साल से आर्कटिक में इंसान रहते आए हैं. जैसे कि मूलनिवासी इनौइत्स और सामी. वहीं दक्षिणी ध्रुव से हमारी पहचान को बहुत ज्यादा वक्त नहीं बीता. 19वीं और 20वीं सदी में जिस तरह दुनिया की सबसे ऊंची पर्वत चोटियों तक पहुंचने की होड़ लगी थी, वैसी ही महत्वाकांक्षा साउथ पोल के लिए भी थी. काफी कोशिशों के बाद दिसंबर 1911 में नॉर्वे के खोजी रोल्ड एमंडसन को दक्षिणी ध्रुव पर पहुंचने में कामयाबी मिली.
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हरियाली
अंटार्कटिक का ज्यादातर हिस्सा स्थायी रूप से बर्फ से ढका रहता है. ऐसे में पौधों के उगने के लिए बहुत कम ही जगह है. यहां ज्यादातर लाइकेन्ज और मॉस के रूप में ही वनस्पति है. आर्कटिक अपेक्षाकृत कहीं ज्यादा हरा-भरा है. यहां करीब 900 प्रजातियों की काई और 2,000 से भी ज्यादा प्रकार के वैस्क्यूलर प्लांट पाए जाते हैं. इनमें ज्यादातर फूल के पौधे हैं.
तस्वीर: picture alliance/Global Warming Images
मौसम का फर्क
आर्कटिक के लिए जून का महीना 'मिड समर' है, यानी आधी गर्मी बीत गई और आधी बची है. मार्च से सितंबर तक सूरज लगातार क्षितिज से ऊपर होता है और 21 जून के आसपास यह सबसे ऊंचे पॉइंट पर पहुंचता है. वहीं अंटार्कटिक में इसका उल्टा है. वहां 21 दिसंबर के आसपास मिड समर होता है, यानी सूरज क्षितिज में सबसे ऊपर पहुंचता है.
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वैज्ञानिकों ने इंडोनेशिया की मिसाल दी है, जहां जकार्ता की जगह राजधानी को नई जगह बसाया जा रहा है, क्योंकि जकार्ता तेजी से डूब रहा है. वैज्ञानिकों का कहना है कि जकार्ता अपने भूजल के सूखने के कारण ज्यादा तेजी से डूब रहा है.
अन्य क्षेत्रों की हालत भी कुछ बेहतर नहीं है. अपने शोधपत्र में शोधकर्ता कहते हैं, "यूएस जियोलॉजिकल सर्वे के टॉम पार्सन्स के साथ मिलकर हमने जो अध्ययन किया, उसमें पाया कि न्यूयॉर्क शहर का अधिकतर हिस्सा हर साल एक से चार सेंटीमीटर तक डूब रहा है. इसकी वजह ग्लेशियरों का पिघलना तो है ही, साथ ही दस लाख से ज्यादा इमारतों का वजन भी है. जिस शहर में समुद्र का स्तर 2050 तक आठ से 30 इंच के बीच बढ़ने की आशंका जताई गई है, वहां जमीन के धंसने से तटीय तूफानों के प्रति उसकी संवेदनशीलता भी बढ़ती है.”
अभी से तैयारी की जरूरत
इन वैज्ञानिकों का आकलन है कि अटलांटिक तट पर बसे अमेरिका के अधिकतर शहर ग्लेशियरों की बर्फ पिघलने के कारण डूब रहे हैं. शोधकर्ता कहते हैं कि अगर डूबने की दर माइनस एक मिलीमीटर सालाना है, तो भी उसकी अहमियत समझी जानी चाहिए, विशेषकर मेक्सिको की खाड़ी, ह्यूस्टन और न्यू ऑरलीन्स आदि में.
डेढ़ डिग्री गर्मी न संभली, तो आएगी तबाही!
2023 अब तक का सबसे गर्म साल रहा. वैज्ञानिक आंकड़े बताते हैं कि इन 365 दिनों में ग्लोबल वॉर्मिंग 1.48 डिग्री सेल्सियस के स्केल तक पहुंच गई. लेकिन क्या हालात इतने पर ही सिमट जाएंगे? और ऐसी चरम गर्मी का हम पर क्या असर होगा?
तस्वीर: FABRICE COFFRINI/AFP
कितना गर्म था 2023
साबित हो चुका है कि 2023 हमारी जानकारी में अब तक का सबसे गर्म साल था. वैज्ञानिकों ने बताया कि बीते साल दुनिया का औसत तापमान, गर्मी के मौजूदा कीर्तिमानों से करीब 0.25 डिग्री ज्यादा रहा. ये बात खुद ही बेहद डरावनी है, लेकिन वैज्ञानिकों की एक और बड़ी चिंता है. तस्वीर में: लहरों के साथ बहकर आई एक जेलीफिश. जुलाई 2023 में भूमध्यसागर में रिकॉर्ड तापमान दर्ज किया गया.
तस्वीर: JOSE JORDAN/AFP
जलवायु परिवर्तन की रफ्तार बढ़ने का डर
कई वैज्ञानिकों ने समाचार एजेंसी एपी को बताया कि उन्हें जलवायु परिवर्तन की रफ्तार और बढ़ने का डर है. हम अभी ही डेढ़ डिग्री सेल्सियस की वृद्धि के मुहाने पर हैं. पेरिस जलवायु समझौते में शामिल देशों को उम्मीद थी कि अगर हम इतनी वृद्धि तक सीमित रहें, तो बड़ी कामयाबी होगी. तस्वीर: फरवरी 2023 में गर्म लहर से चिली का बुरा हाल था. बेतहाशा गर्मी के बीच सैकड़ों जगहों पर जंगल में आग लग गई.
तस्वीर: Javier Torres/AFP
जलवायु परिवर्तन और अल नीनो का असर?
वैज्ञानिकों का कहना है कि बीते साल जलवायु का बर्ताव बहुत अजीब था. वो पसोपेश में हैं कि क्या इसकी वजह इंसानी गतिविधियों के कारण हो रहा क्लाइमेट चेंज और अल नीनो का मिला-जुला असर है. या फिर इसके पीछे कोई ज्यादा सुव्यवस्थित प्रक्रिया है, जो या तो शुरू हो चुकी है या होने वाली है. मसलन, यह थिअरी कि ग्लोबल वॉर्मिंग हमारी समझ से भी ज्यादा तेजी से हो रही है. तस्वीर: इटली में मिलान के पास नदी का सूखा किनारा
तस्वीर: Antonio Calanni/AP Photo/picture alliance
क्या है अल नीनो?
इसका संकेत हमें इस साल बसंत या गर्मी की शुरुआत तक मिल जाएगा, चूंकि इसी दौरान अल नीनो का असर कमजोर होने की उम्मीद है. अल नीनो, जलवायु का एक चक्र है. इस दौरान प्रशांत महासागर का पानी असामान्य रूप से गर्म हो जाता है. यह दो से सात साल की अवधि में लौटता है. इसका असर समुद्र के तापमान, लहरों की रफ्तार और ताकत, तटीय इलाकों में मछलियों की मौजूदगी और मौसम पर पड़ता है. तस्वीर: ब्राजील की पिरान्हा झील
तस्वीर: BRUNO KELLY/REUTERS
बस अल नीनो नहीं है जिम्मेदार
तो अगर 2023 की तरह इस साल भी समुद्र का तापमान ज्यादा रहा और इस बार भी रिकॉर्डतोड़ गर्मी पड़ी, तो यह अच्छा संकेत नहीं होगा. हालांकि 2023 के इतना भीषण गर्म होने की वजह बस अल नीनो नहीं है. जीवाश्म ईंधनों से निकली ग्रीनहाउस गैसें सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं. तस्वीर: रोम के चिड़ियाघर में चिलचिलाती गर्मी से राहत पाने के लिए ठंडा खरबूज खाते मीरकैट्स
तस्वीर: Yara Nardi/REUTERS
मौसम के स्वभाव में फर्क दिखा
लेकिन गर्मी की इस तस्वीर में एक पेचीदगी है. आमतौर पर औसत तापमान का अंतर सर्दी और बसंत में ज्यादा प्रत्यक्ष दिखता है. वहीं 2023 में सबसे ज्यादा गर्मी जून के आसपास शुरू हुई और कई महीनों तक रिकॉर्ड स्तर पर रही. तस्वीर: गर्मी से झुलसाए पौधे
तस्वीर: Aventurier Patrick/ABACA/picture alliance
औद्योगिकीकरण से पहले के मुकाबले क्या स्थिति
अमेरिका के नेशनल ओशेनिक एंड एटमॉस्फैरिक एडमिनिस्ट्रेशन (एनओएए) ने बताया कि 2023 में पृथ्वी का औसत तापमान 15.8 डिग्री सेल्सियस रहा. यह 2016 में बने रिकॉर्ड से 0.15 डिग्री सेल्सियस ज्यादा था. औद्योगिकीकरण से पहले के मुकाबले देखें, तो यह करीब 1.35 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि है. तस्वीर: विएना में हीट वेव के बीच पानी की बौछार में खेलते दो बच्चे
तस्वीर: GEORG HOCHMUTH/APA/AFP/Getty Images
पृथ्वी के गर्म होने की रफ्तार बढ़ी है!
एनओएए में वैश्विक निरीक्षण के प्रमुख रस वोसे ने एपी से बातचीत में कहा कि वह पृथ्वी के गर्म होने की रफ्तार में इजाफा देख रहे हैं. पिछले साल की स्थितियों पर वोसे कहते हैं कि यह ऐसा था मानो हम अचानक ही सामान्य ग्लोबल वॉर्मिंग की सीढ़ी से थोड़े ज्यादा गर्म हिस्से में कूद गए हों. तस्वीर: ऑस्ट्रेलिया में गर्म लहर के बीच नदी की सतह पर बहती मरी मछलियां.
तस्वीर: Australian Broadcasting Corporation via AP/picture alliance
कई दहलीजें पार हुईं
2023 में गर्मी की कई दहलीजें पार हुईं. वैज्ञानिकों के पूर्वानुमान से ज्यादा गर्मी बढ़ी. 17 नवंबर को पहली बार पृथ्वी का तापमान अस्थायी तौर पर दुनिया के औसत तापमान के मुकाबले दो डिग्री सेल्सियस की वॉर्मिंग लिमिट के पार गया. जून से दिसंबर के बीच हर महीना रिकॉर्ड स्तर पर गर्म रहा. तस्वीर: लद्दाख में सिकुड़ते ग्लेशियर.
तस्वीर: Sā Ladakh
इतनी तेजी से बन रहे हैं नए रिकॉर्ड
नासा और एनओएए, दोनों के मुताबिक 2014 से 2023 के दरमियान 10 साल सबसे गर्म रहे हैं. पिछले आठ साल में तीसरी बार वैश्विक गर्मी का नया रिकॉर्ड सेट हुआ. वैज्ञानिक कहते हैं कि कीर्तिमानों का इतनी जल्दी-जल्दी टूटना ज्यादा बड़ी चिंता है. जलवायु में लगातार हो रहा बदलाव और इसकी तीव्रता सबसे ज्यादा परेशान करने वाली बात है. तस्वीर: फ्रांस में सूखे की गंभीर स्थिति थी. फोटो में नदी का सूखा बहाव दिख रहा है.
कई जलवायु वैज्ञानिकों को अब ग्लोबल वॉर्मिंग के डेढ़ डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लक्ष्य में ज्यादा उम्मीद नहीं दिखती. वो चेताते हैं कि अब ये लक्ष्य सच्चाई के करीब नहीं लगता. हालांकि वो यह भी कहते हैं कि तकनीकी तौर पर इसे हासिल करना भले मुमकिन हो, लेकिन राजनैतिक तौर पर यह नामुमकिन है.
तस्वीर: DAVE HUNT/AAP/IMAGO
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वैज्ञानिक कहते हैं, "दुनियाभर के सरकारों को तटीय क्षेत्रों के डूबने की चुनौती से निपटना होगा. बाढ़ की बढ़ती चुनौती पूरी दुनिया की एक साझा चुनौती है.” वैज्ञानिकों का मानना है कि मशीन लर्निंग की क्षमता से उनकी निगरानी और शोध की क्षमता बढ़ रही है, लेकिन वे शहरों का नियोजन करने वाले अधिकारियों, नीति निर्माताओं और आपदा प्रबंधकों से आग्रह करते हैं कि डूबने की समस्या की तैयारी आज से ही शुरू कर दें.