1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

भारतीय लोकतंत्र का भविष्य कैसा होगा?

स्वाति बक्शी
३० जून २०२४

भारत के हालिया आम चुनावों ने कई लोगों को चौंका दिया. हार-जीत से परे इन चुनावों ने कुछ समय से बन रही कई धारणाओं को तोड़ा. लेकिन भारतीय लोकतंत्र का आगे का रास्ता कैसा दिखता है, इसी विषय पर जर्मनी में एक कांफ्रेस हुई.

जर्मनी की हाइडेलबर्ग यूनिवर्सिटी
जर्मनी की हाइडेलबर्ग यूनिवर्सिटी में भारतीय लोकतंत्र के भविष्य पर कांफ्रेंस हुईतस्वीर: South Asia Institute Heidelberg University

एक तरफ भारत में 18वीं लोकसभा अपने पहले सत्र में है तो दूसरी ओर जर्मनी में भारतीय राजनीति विज्ञानी, नेता, कूटनीतिज्ञ और मीडिया की दुनिया के बड़े नाम इस सप्ताहांत घंटों तक इस चर्चा में डूबे रहे कि भारतीय लोकतंत्र की विविधता को बचाने के लिए किस तरह की बहुआयामी रणनीति की जरूरत होगी. हाइडेलबर्ग विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग में 'भारतीय लोकतंत्र के भविष्य' पर हुई कांफ्रेंस में कम से कम एक बात पर साफ सहमति दिखी कि लोकसभा चुनाव 2024 ने एक बार फिर जता दिया है कि भारत में चुनावी राजनीति क्यों इतना मायने रखती है.

क्या अयोध्या की हार वास्तव में अप्रत्याशित है?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली पिछली बीजेपी सरकार के कार्यकाल में विचारधारा से ओतप्रोत राजनीति की तूफानी सफलता, सत्ता के केंद्रीकरण से पैदा हुए खतरे और अल्पसंख्यकों खासकर मुसलमानों की स्थिति इस चर्चा के केंद्र में रही. इस कांफ्रेंस में स्वराज अभियान के संयोजक और पूर्व आप नेता योगेंद्र यादव, भारतीय समाज और राजनीति में विशेषज्ञता रखने वाले फ्रेंच प्रोफेसर क्रिस्टोफ जाफरलो और हाइडेलबर्ग विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के विभागाध्यक्ष राहुल मुखर्जी, भारतीय एक्टिविस्ट और लेखक हर्ष मंदर, कांग्रेस नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री मणिशंकर अय्यर समेत भारतीय मीडिया जगत के कुछ जाने-माने नाम शामिल हुए.

भारत: लोकसभा में घटता मुसलमानों का प्रतिनिधित्व

भारतीय चुनाव 2024 से आगे की राह

हालिया लोकसभा चुनावों के नतीजों में भारतीय जनता पार्टी को हुए नुकसान, खासकर उत्तर प्रदेश में पार्टी की हार और विपक्षी इंडिया गठबंधन को हासिल हुई नई जमीन ने दिखाया कि क्यों भारतीय मतदाता का मूड हर बाजी को पलट सकता है. हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण की गंभीर चिंताओं के बीच नरेंद्र मोदी की भारी-भरकम छवि के दबाव से निकलने की आहट देने वाले इन चुनावों में विकास के दावों का जादू फीका पड़ता दिखा. इन आहटों को योगेंद्र यादव कुछ अच्छे संकेत मानते हैं लेकिन इसे बड़ा उलटफेर मानने को जल्दबाजी कहते हैं.

नतीजों पर क्या कहती है भारत की जनता

02:53

This browser does not support the video element.

कॉन्फ्रेंस के दौरान उन्होंने कहा, "2024 निश्चित तौर पर भारतीय लोकतंत्र के लिए खास बरस है. लोकसभा चुनाव के नतीजों ने भारत की राष्ट्रीय राजनीति में राज्यों की भूमिका की वापसी के साफ संकेत दिए हैं जो पिछले एक दशक के दौरान कमजोर दिख रही थी. चुनावों में लोकतांत्रिक भावना को बल मिलता दिखा. ऐसा लगा कि लोगों में अगर बहुसंख्यकवाद की तरफ रुझान रहा भी हो तब भी मतदान के वक्त वे उसे किनारे रख पाए.”

लेकिन क्या इतने भर से मान लिया जाना चाहिए कि जनता ने धार्मिक ध्रुवीकरण, सत्ता के केंद्रीकरण और मसीहा वाली राजनीति को अस्वीकार कर दिया है? यादव मानते हैं कि ऐसा कुछ नहीं हुआ है और फिलहाल भारतीय लोकतंत्र एक अस्थायी दौर से गुजर रहा है, जहां भारतीय जनता पार्टी के वर्चस्व को फौरी झटका लगा है. उनके मुताबिक इस स्थिति को किसी स्थायी रचनात्मक दिशा में ले जाने की राह लंबी लेकिन उम्मीदों से भरी है.

क्या अब कड़े आर्थिक सुधार लागू कर पाएंगे नरेंद्र मोदी?

लोकतंत्र का भविष्य

इस चर्चा में भारत से ऑनलाइन जुड़ने वाले योगेंद्र यादव ने जोर दिया कि भारतीय लोकतंत्र की बहुसांस्कृतिक पहचान को बचाए रखने का रास्ता राजनीति के सामाजिक पहलुओं पर ध्यान दिए बिना तय करना मुमकिन नहीं होगा. उनके मुताबिक लोकतंत्र का स्वस्थ भविष्य बनाने के लिए भारतीय गणराज्य का पुनर्निमाण करना होगा. उन्होंने कहा, "यह कम से कम तीन चीजों से जुड़ा है, पहला, राजनीतिक प्रयास जहां एक विशाल गठबंधन राजनीति में सक्रिय भूमिका निभा सके. दूसरा, देशव्यापी पार्टी होने के नाते कांग्रेस पार्टी की अहम राजनीतिक भूमिका और तीसरा, जमीनी स्तर पर जाति और वर्ग की रचनात्मक राजनीति का विकास जो धार्मिक विचारधारा के बजाए लोकतांत्रिक मूल्यों को तरजीह दे."

योगेंद्र यादव मानते हैं कि भारतीय लोकतंत्र अस्थायी दौर से गुजर रहा हैतस्वीर: Swati Bakshi/DW

डीडब्ल्यू ने उनसे पूछा कि भारत जैसे विशाल देश में जाति-वर्ग आधारित इस तरह की लामबंदी किस तरह से मुमकिन है? इस पर यादव ने कहा कि सबसे पहले तो यह सोचना कि यह लड़ाई कितनी दूभर और रास्ता कितना कठिन है, यही पहला कदम है उस दिशा में आगे बढ़ने के लिए जहां से भारत के सांस्कृतिक ताने-बाने को जोड़े रखने के रास्ते निकलेंगे.

प्रोफेसर क्रिस्टोफ जाफरलो ने योगेंद्र यादव के विचारों से सहमति जताते हुए कहा, "भारत को अपने लोकतांत्रिक अस्तित्व की रक्षा के लिए अपनी ही सांस्कृतिक परंपराओं के भीतर झांकना होगा, उदारवादी पश्चिम की तरफ नहीं. भारत की इंडो-इस्लामिक संस्कृति ही उसके बहुसांस्कृतिक लोकतंत्र को बचाए रखने की रेसिपी है. अपनी परंपराओं की तरफ देखने, उनसे फिर जुड़ने की जरूरत है.” इस जरूरत को पूरा करने और भारत में विचारधारा की राजनीति के दौर को पीछे धकेलने के लिए कई और बातों की अहमियत भी रेखांकित की गई.

दी का तीसरा कार्यकाल: क्या सुधरेंगे भारत-पाकिस्तान के संबंध

नागरिक समाज की अहम भूमिका

हाइडेलबर्ग विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञानी राहुल मुखर्जी ने लोकतंत्र के एक नए दौर का सपना देखने वालों के लिए नागरिक समाज की भूमिका पर ध्यान देने की जरूरत पर बल दिया. उन्होंने कहा कि भारत के नागरिक समाज और संगठनों के काम की चर्चा ना मीडिया करता है और ना ही राजनीतिक बहसों में उस पर ध्यान दिया जा रहा है. उन्होंने कहा कि बीते सालों में बीजेपी सरकार के शासन में नागरिक संगठनों का अनुभव राजनीतिक दबाव से लेकर दमन के बीच काम ना कर पाने की कहानी कहता है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि नागरिक समाज बिल्कुल कमजोर पड़ गया बल्कि कुछ संगठन अपने स्तर पर बेहतर काम करने में सफल रहे हैं और भारतीय समाज के इस पहलू पर अकादमिक और मीडिया को ध्यान देना होगा ताकि उन प्रयासों की ताकत को तवज्जो मिले जो लोकतंत्र को बचाए रखने में अहम काम करते हैं.

प्रोफेसर मुखर्जी ने अपनी दलीलों में यह भी कहा कि पिछली सरकार के दशक भर के कार्यकाल में ऐसे कितने ही कानून लाए गए, नियम-कायदे बनाए गए जिनसे उनकी आजादी, फंडिंग और पहुंच को रोका जाए, फिर भी संगठन डटे रहे हैं और काम करने का रास्ता निकालते रहे हैं. भारतीय लोकतंत्र को सामुदायिक स्तर पर और विविध रूपों में मजबूत करने के लिए नागरिक समाज और जमीनी संगठनों के साथ खड़े होना जरूरी है.

भारतीय लोकतंत्र की चुनौतियों और भविष्य पर हुई इस लंबी बहस के बीच एक सामान्य सूत्र जिसने सारे सत्रों को एक डोर से बांध रखा, वह था भारत के लोकतांत्रिक अस्तित्व को बचाए रखने की जरूरत. हालांकि इस तरह की जोशीली अकादमिक बहसों में घंटों गुजारने के बाद उम्मीद सिर्फ यही रहती है कि इन बहुआयामी चर्चाओं का असर राजनीति की दशा और दिशा तय करने में भी नजर आए.

डीडब्ल्यू की टॉप स्टोरी को स्किप करें

डीडब्ल्यू की टॉप स्टोरी

डीडब्ल्यू की और रिपोर्टें को स्किप करें

डीडब्ल्यू की और रिपोर्टें