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लैंगिक पहचान को सीमित करता भाषा का 'लिंग'

रितिका
२ मई २०२४

लैंगिक पहचान को सीमित करने का भाषा एक अहम माध्यम है. महिला और पुरुष के खांचे में बंटी भाषा क्वीयर समुदाय को कैसे अदृश्य बना देती है?

भारत के कोलकाता में हुई प्राइड परेड की एक तस्वीर
भाषा के आधार पर किसी की लैंगिक पहचान तय करना कितना समावेशीतस्वीर: Subrata Goswami/DW

"जब मैं पांच साल का था तब से ही अपने नाम से खुद को जुड़ा हुआ महसूस नहीं कर पाता था. घर और स्कूल में जिस भाषा और शब्दों का इस्तेमाल मेरे लिए किया जाता था वे मुझे अपने नहीं लगते थे. सबसे बड़ी चुनौती निजी रिश्तों में ही देखने को मिली. कहा गया कि सिर्फ कह देने भर से कोई औरत से आदमी नहीं हो जाता.”

डीडबल्यू से बातचीत के दौरान दिल्ली के रहने वाले कबीर मान ने ये बातें कही. कबीर खुद को एक ट्रांस पुरुष के रूप में चिन्हित करते हैं. वह क्वीयर अधिकारों, लैंगिक समानता, भाषा की भूमिका जैसे मुद्दों पर स्कूलों और अलग अलग संस्थाओं में जाकर युवाओं और बच्चों को ट्रेनिंग देते. अपना अनुभव साझा करते हुए वह भाषा और लैंगिक पहचान से जुड़ी चुनौतियों की ओर इशारा करते हैं.

लैंगिक पहचान और भाषा की भूमिका

जेंडर यानी लिंग के संदर्भ में भाषा को हमेशा एक खांचे में देखा गया है. अधिकतर भाषाओं में वैसे महिलाओं और पुरुषों को संबोधित करने के लिए तो कई शब्द हैं, लेकिन क्या होगा अगर कोई व्यक्ति खुद की लैंगिक पहचान इन दोंनो जेंडर से अलग रखता हो? बीते कुछ दशकों से क्वीयर अधिकारों के अलग-अलग आयामों की चर्चा मुख्यधारा में आई है. इसके साथ ही क्वीयर समुदाय के संदर्भ में भाषा के लिंग की चर्चा शुरू हुई.

2019 में मरियम वेबस्टर डिक्शनरी ने अंग्रेजी में थर्ड पर्सन, प्लूरल के लिए इस्तेमाल होने वाली ‘दे' यानी वे शब्द की एक नई परिभाषा जोड़ी थी, "एक ऐसा व्यक्ति जिसकी लैंगिक पहचान नॉन बाइनरी है, यानी वह खुद को पुरुष या महिला नहीं मानते.” यह शब्द जेंडर न्यूट्रल भाषा के केंद्र बिंदु की तरह है. जेंडर न्यूट्रल भाषा का मतलब ऐसी भाषा से है जहां किसी भी इंसान को शब्दों के जरिये महिला या पुरुष की बाइनरी में नहीं बांटा जाता.

लैंगिक आधार पर बंटी हुई भाषा देती है असमानता को बढ़ावातस्वीर: Kabir Jhangiani/ZUMA Wire/IMAGO

क्यों गलत नहीं है 'वे' सर्वनाम का इस्तेमाल

बड़ी संख्या में क्वीयर समुदाय के लोग खुद को मेल या फीमेल यानी पुरुष या महिला के खांचे में सीमित नहीं करते. हालांकि, अधिकतर भाषाएं लोगों को जेंडर के खांचे में जरूर सीमित करती हैं. ऐसे में खुद के लिए जेंडर न्यूट्रल भाषा या प्रोनाउन यानी सर्वनाम का इस्तेमाल करते हैं. जैसे अंग्रेजी के सर्वनाम ‘दे' ‘देम' यानी ‘वे' का इस्तेमाल करना. 

अंतरराष्ट्रीय मार्केट रिसर्च कंपनी यूगव के एक सर्वे के मुताबिक ऐसे लोग जो खुद के लिए वे सर्वनाम का इस्तेमाल करते हैं उनकी संख्या बढ़ रही है. अमेरिका में एक तिहाई लोगों ने माना कि वे कम से कम एक ऐसे इंसान को जरूर जानते हैं जो 'वे' सर्वनाम का इस्तेमाल करते हैं. हालांकि, सबसे बड़ी चुनौती उन भाषाओं में है जो लैंगिक आधार पर शब्दों और व्याकरण का इस्तेमाल करते हैं.

उदाहरण के तौर हिन्दी भाषा में जेंडर न्यूट्रल शब्दों का इस्तेमाल मुश्किल है. सुदीप्ता दास पश्चिम बंगाल के रहने वाले हैं. सुदीप्ता खुद के लिए वे सर्वनाम का इस्तेमाल करते हैं. पेशे से लेखक सुदीप्ता क्वीयर अधिकारों, जाति और भाषा के मुद्दे पर काम करते हैं. 

वे कहते हैं, "बांग्ला में कई ऐसे शब्द हैं जिनका कोई जेंडर नहीं होता है, लेकिन जैसे ही हिन्दी में मैं खुद को संबोधित करूं तो मेरे लिए वह एक चुनौती बन जाती है. सुनने में बहुत सामान्य बात लग सकती है लेकिन भाषा के पास वह ताकत होती है जिससे वह किसी भी चीज या इंसान की लैंगिक पहचान तय करती है.”

भाषा का व्याकरण और लैंगिक पहचान की चुनौती

जर्मनी के राज्य बवेरिया में आधिकारिक दस्तावेजों और सरकारी स्कूलों में लैंगिक रूप सेसंवेदनशील भाषा के इस्तेमाल पर रोक लगा दी गई. राज्य सरकार ने दलील दी कि भाषा ऐसी होनी चाहिए जो साफ हो और समझ में आए. दूसरी कई भाषाओं की तरह जर्मन में भी शब्दों से लैंगिक पहचान तय हो सकती है.

अमेरिका की मेडिकल लाइब्रेरी नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन के मुताबिक जिन इलाकों में जेंडर न्यूट्रल भाषा का इस्तेमाल होता है वहां लैंगिक असमानता की दर कम देखने को मिलती है. जेंडर न्यूट्रल भाषा के संदर्भ में यह भी तर्क दिया जाता है कि यह किसी भी भाषा के व्याकरण को बिगाड़ती है. लोगों के लिए भाषा में अचानक से आए इस बदलाव को समझना आसान नहीं है. लेकिन यही भाषा लोगों के साथ हो रहे लैंगिक भेदभाव की वजह भी बनती है.

अपनी लैंगिक पहचान में भाषा की भूमिका पर कबीर बताते हैं, "अब जब अपनी लैंगिक पहचान को लेकर मैं सहज हूं तो समझ पाता हूं कि आपकी लैंगिक पहचान तय करने में भाषा की क्या भूमिका है. मेरे साथ पहला लैंगिक भेदभाव तो भाषा के स्तर पर ही शुरू हुआ था. भाषा का दायरा हमने बहुत सीमित कर रखा है. हम इस चुनौती से जूझ रहे हैं कि जो हमें सिखाया गया उसे बदला कैसे जाए. अगर आप सर्वनाम और भाषा के व्याकरण की बात करते हैं तो कहा जाता है कि ये भाषा तो खुद क्वीयर लोगों ने इजाद की है, इसकी कोई बुनियाद नहीं है.”

सिर्फ महिला और पुरुष की लैंगिक पहचान तक नहीं सीमित है भाषातस्वीर: Aamir Ansari/DW

लोगों को अदृश्य बनाती है भाषा

अगर भाषा सिर्फ दो लैंगिक पहचानों पुरुष और महिला तक सीमित होती है वह अन्य लैंगिक पहचान से आने वाले लोगों को अदृश्य करती है. सरकारी दस्तावेजों पर महिला, पुरुष के अलावा अन्य का विकल्प दिए जाने पर सुदीप्ता कहते हैं, "हम भाषा का इस्तेमाल लोगों को जेंडर के खांचे में बांटने के लिए करते हैं. जैसे कई जगह फॉर्म या दस्तावेजों में अन्य का इस्तेमाल किया जाता है. इसका मतलब तो यही है ना कि हमारे पास शब्द ही नहीं हैं यह बताने के लिए कि ये अन्य कौन हैं."

खुद की पहचान नॉन बाईनरी के रूप में करने वाले लोग भी ‘वे' सर्वनाम का इस्तेमाल करते हैं. वे खुद को महिला या पुरुष की लैंगिक पहचान से जुड़ा हुआ नहीं पाते. इस सर्वनाम का इस्तेमाल उनके लिए सिर्फ भाषा का मुद्दा नहीं है. सुदीप्ता कहते हैं, "हम खुद के लिए कौन से सर्वनाम इस्तेमाल करते हैं, यह बेहद अहम है. यह मेरी पहचान का एक हिस्सा है.”

अगर किसी को उसके गलत सर्वनाम से संबोधित किया जाता है तो इसके मायने यह भी होते हैं कि उस व्यक्ति की लैंगिक पहचान को भी अस्वीकार किया जा रहा है. हार्वर्ड मेडिकल स्कूल के मुताबिक जब लोगों को उनकी गलत लैंगिक पहचान से संबोधित किया जाता है तो यह उनके स्वास्थ्य और रोजमर्रा के जीवन को प्रभावित करता है.

एक तय खांचे में भाषा को बांटना यानी लैंगिक पहचान को सीमित करनातस्वीर: Sukhomoy_ Sen/Eyepix Group/IMAGO

"भाषा लोगों के लिए है, लोग भाषा के लिए नहीं”

संयुक्त राष्ट्र ने 1987 में ही जेंडर न्यूट्रल दिशा निर्देश जारी किए थे जिसे 2021 में संशोधित कर अधिक समावेशी बनाया गया. यह दिशा निर्देश बताते हैं कि लैंगिक समानता को बढ़ावा देने में लैंगिक रूप से समावेशी भाषा की एक अहम भूमिका है. ऐसी भाषा के जरिये सांस्कृतिक और सामाजिक रूढ़िवादी व्यवहार को भी बदला जा सकता है.

सुदीप्ता कहते हैं, "लोग भाषा से नहीं बनते बल्कि भाषा लोगों से बनती है. हमने यह मानसिकता बना ली है कि भाषा और उसका व्याकरण विकसित नहीं हो सकते, जो चला आ रहा है वही चलता रहेगा. अगर हम भाषा की लैंगिक सीमाओं से आगे बढ़ पाएंगे तो यहां बहुत सारी संभावनाएं हैं.”

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