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नई जीन की खोज से सिजोफ्रेनिया के इलाज की जगी उम्मीद

क्लेयर रोठ
९ अप्रैल २०२२

शोधकर्ताओं ने ऐसे जीन म्यूटेशन की खोज की है जो किसी व्यक्ति में सिजोफ्रेनिया होने के खतरे और उसके कारणों के बारे में जानकारी देता है. इस खोज से सिजोफ्रेनिया के इलाज के लिए दवाओं को बेहतर बनाने में भी मदद मिल सकती है.

Symbolbild Schizophrenie
किशोरावस्था के अंत से दिखने लगता है सिजोफ्रेनिया का असरतस्वीर: Andriy Popov/PantherMedia/picture alliance

सिजोफ्रेनिया को लेकर हम दशकों से उलझन में फंसे पड़े हैं. हमें इस बीमारी के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है. विशेषज्ञों का कहना है कि हम वास्तव में नहीं जानते कि ब्रेन के अंदर क्या चल रहा है. हमें बस ये पता है कि सिजोफ्रेनिया एक गंभीर मानसिक बीमारी है. इस बीमारी से ग्रसित व्यक्ति काल्पनिक और वास्तविक बातों के बीच के अंतर को नहीं समझ पाता है. उसे ऐसी आवाजें सुनाई देती हैं जो वास्तव में होती ही नहीं हैं.

विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि पूरी दुनिया में हर 300 में से 1 व्यक्ति सिजोफ्रेनिया से प्रभावित होता है. आखिर यह बीमारी क्यों होती है और इसका इलाज कैसे हो सकता है? बर्लिन के चैरिटी मेडिकल कॉलेज के शोधकर्ता और विज्ञान पत्रिका नेचर में प्रकाशित दो पेपर में से एक के सह-लेखक स्टीफन रिप्के कहते हैं, "सिजोफ्रेनिया के बारे में हम बिल्कुल ही कम जानते हैं, शून्य के करीब.”

रिसर्चरों की दो अंतरराष्ट्रीय टीमों ऐसे जीन म्यूटेशन की खोज की है जिनके बारे में उनका कहना है कि वे किसी व्यक्ति में इस बीमारी के विकास की संभावना को प्रभावित करते हैं. करीब 120 और भी ऐसे जीन म्यूटेशन हो सकते हैं जिनकी इस बीमारी में भूमिका हो सकती है. इस मौलिक रिसर्च का मौजूदा मरीजों को तुरंत फायदा नहीं होगा, लेकिन रिसर्चरों का मानना है कि इससे इलाज को बेहतर बनाने में मदद मिलेगी.

इलाज के नए तरीके

शोधकर्ताओं का कहना है कि उन्हें अब इस बात की बेहतर समझ है कि सिजोफ्रेनिया जैविक रूप से क्यों होता है. इससे पहले, शोधकर्ताओं ने लोगों के खान-पान या मादक द्रव्यों के सेवन जैसे  तथाकथित पर्यावरणीय कारकों पर विशेष ध्यान दिया था. रिप्के का कहना है कि जीन म्यूटेशन की खोज से किसी व्यक्ति में सिजोफ्रेनिया के जोखिम का अनुमान लगाने और दवा के साथ बीमारी का बेहतर तरीके से इलाज करने में मदद मिल सकती है.

अवसाद के दलदल से निकालेगा दिमाग का पेसमेकर

फिलहाल, सिजोफ्रेनिया के इलाज से जुड़ी कई दवाएं बाजार में उपलब्ध हैं, लेकिन वे बीमारी की मूल समस्याओं को खत्म नहीं करती हैं. जिन दवाओं का इस समय इस्तेमाल हो रहा है वे सिर्फ सिजोफ्रेनिया के सिम्पटम को कम करती हैं, वे बीमारी का इलाज नहीं करती. इस समय सबसे ज्यादा इस्तेमाल की जाने वाली दवा क्लोरप्रोमैजीन है, जिसका विकास एनेस्थेटिक के रूप में हुआ था, लेकिन डॉकटरों ने पाया कि वह हेलुसिनेशन की स्थिति में भी फायदा करता है.

मानव जीनोम और सिजोफ्रेनिया

दो आनुवंशिक अध्ययनों में से पहला अध्ययन ब्रिटेन के कार्डिफ यूनिवर्सिटी के साइकियाट्रिक जीनोमिक्स कंसॉर्टियम पीजीसी ने किया है. उन्होंने सिजोफ्रेनिया का खतरा पैदा करने वाले विशेष आनुवंशिक भिन्नता की खोज के लिए पूरे जीनोम की जांच की. दूसरे शब्दों में कहें, तो एक जीव के सभी जेनेटिक मटीरियल की जांच की. इसी विशेष आनुवंशिक भिन्नता की वजह से व्यक्ति में सिजोफ्रेनिया विकसित होने का खतरा बढ़ जाता है.

वैज्ञानिकों ने 2,44,000 सामान्य लोगों और सिजोफ्रेनिया से पीड़ित 77,000 लोगों के डीएनए का विश्लेषण किया. इस दौरान उन्होंने पाया कि जीनोम के 300 हिस्से सिजोफ्रेनिया के खतरे वाले आनुवंशिक के साथ जुड़े हुए हैं. उन हिस्सों के भीतर, उन्होंने 120 जीन की खोज की जो मानसिक विकार पैदा करने में भूमिका निभा सकते हैं.

दूसरा अध्ययन

दूसरा अध्ययन एमआईटी के ब्रॉड इंस्टीट्यूट और हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के रिसर्चरों से बनी स्किमा टीम ने किया. उन्होंने जीन के 10 ऐसे दुर्लभ म्यूटेशनों का पता लगाया जो लोगों में सिजोफ्रेनिया का खतरा बढ़ाते हैं. साथ ही, 22 और ऐसे जीन की खोज की जो सिजोफ्रेनिया विकसित करने में भूमिका निभा सकते हैं.

डिप्रेशन की दवा छोड़ना हो सकता है बेहद मुश्किलः शोध

स्किमा के सह-लेखक और पीजीसी के सदस्य बेंजामिन नेले ने कहा, "सामान्य तौर पर, इंसान में पूरी जिंदगी के दौरान सिजोफ्रेनिया विकसित होने की संभावना करीब एक फीसदी होती है. लेकिन, अगर आपमें इनमें से कोई एक म्यूटेशन है, तो यह संभावना 10, 20, और यहां तक कि 50 फीसदी तक बढ़ जाती है."

बहुत कुछ पता नहीं

आम तौर पर सिजोफ्रेनिया के लक्षण इंसान में किशोरावस्था में दिखने लगते हैं. पिछले शोधों में रिसर्चरों ने पाया है कि किशोरों की परवरिश, मादक द्रव्यों का सेवन या गर्भ के दौरान मां का खान-पान सिजोफ्रेनिया का जोखिम बढ़ा सकता है. वैज्ञानिकों के अनुसार सिजोफ्रेनिया 60 से 80 फीसदी अनुवांशिक है. ये कुछ दूसरे मानसिक रोगों के लिए भी लागू होता है. रिप्के कहते हैं कि सिजोफ्रेनिया का पता ब्लड टेस्ट या ब्रेन स्कैन से नहीं किया जा सकता.

रिप्के का कहना है कि सिजोफ्रेनिया का रिसर्च जानवरों के ऊपर नहीं किया जा सकता क्योंकि वे रिसर्चरों के साथ अपनी भावनाओं को साझा नहीं कर सकते. वे कहते हैं, "हम उनसे बात नहीं कर सकते, वे हमसे बात नहीं कर सकते. लेकिन हमारा जानना जरूरी है कि क्या उन्हें हेलुसिनेशन होता है, क्या वे आवाजें सुनते हैं?" इंसानों पर शोध जैविक शोध पर नैतिक सवालों के साथ जुड़ी है. लेकिन रिप्के का कहना है कि वोलंटियर सामने आ रहे हैं. वे कहते हैं, "हमारा अध्ययन हजारों मरीजों के भरोसे के बिना संभव नहीं होता जिन्होंने हमें अपनी जेनेटिक जानकारी दी."

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