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अब जर्मनी में कोई किसान क्यों नहीं बनना चाहता

टिमोथी रुक्स
२६ जनवरी २०२४

खेती करना हमेशा से कड़ी मेहनत का काम रहा है. मशीनरी और तकनीक में बड़े सुधार हुए हैं, लेकिन उनकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है. साल-दर-साल, किसानों के लिए अपने पुरखों के नक्शेकदम पर चलना मुश्किल होता जा रहा है. ऐसा क्यों?

मवेशीपालन करने वाले किसान ज्यादा सख्त नियम-कायदों से नुकसान की शिकायत कर रहे हैं.
किसानों के लिए चीजें आसान नहीं हो रही हैं, बल्कि वो पहले से भी ज्यादा मुश्किल स्थिति में हैं. तस्वीर: Timothy Rooks/DW

रात-दिन, चौबीसों घंटे, हफ्ते के सातों दिन काम के लिए तत्पर. सुबह से देर रात तक. अपनी मर्जी की कोई छुट्टी नहीं. लगातार मौसम की चिंता, मजदूरों की कमी, विदेशी प्रतिस्पर्धा, उत्तराधिकार की योजना और ढेर सारे मवेशियों की देखरेख का जिम्मा. इन सबके बीच कृषि डीजल में टैक्स राहत को हटाने का सरकार का नया प्रस्ताव. वो सब्सिडी, जो 70 साल सेभी ज्यादा समय से मिलती आ रही थी.

जर्मनी में कई छोटे किसानों की यही जिंदगी है. इसीलिए कोई हैरानी नहीं कि 2020 से अब तक देश करीब 7,800 खेत गंवा चुका है. ये हर साल औसतन 2,600 दुकानों के बंद होने जैसा है. इसी दौरान, खेती में काम करने वाले लोगों की संख्या सात फीसदी गिरकर 8,76,000 रह गई है. संघीय सांख्यिकी एजेंसी के मुताबिक, इन शेष बचे किसानों में 45 फीसदी पारिवारिक सदस्य हैं. 

खेतों और कामगारों की संख्या में गिरावट के बावजूद साल 2010 से खेती योग्य कुल क्षेत्र कमोबेश जस-का-तस है. आज 2,55,000 फार्म करीब चार करोड़ हेक्टेयर जमीन पर काम करते हैं. इसका मतलब बाकी बचे फार्मों का आकार बड़ा हो रहा है.

हरित सप्ताह

डीजेड बैंक की नई रिसर्च और ज्यादा निराशावादी है. वो रिटायरमेंट की एक लहर देखती है, जो छोटे पारिवारिक खेतों की सदियों पुरानी प्रणाली को खत्म कर देगी. 2040 तक सक्रिय फार्मों की संख्या गिरकर एक लाख होने की भविष्यवाणी की गई है. इसी दौरान औसत फार्म अपने आकार में दोगुना से ज्यादा होगा.

लेकिन क्या ज्यादा बड़ा हमेशा बेहतर भी होता है? परिवार संचालित बहुत से फार्म ऐसा नहीं मानते. उन्होंने देश भर में सप्ताह भर के किसान प्रदर्शन के दौरान अपनी भावनाओं को जाहिर भी कर दिया. इसी पृष्ठभूमि में 19 जनवरी से बर्लिन में "इंटरनेशनल ग्रीन वीक" नाम का एक विशाल कृषि और खाद्य व्यापार मेला शुरू हुआ. 10 दिन के इस आयोजन में 60 देशों के लगभग 1,400 प्रतिभागी शामिल हुए.

विशाल सभागार में खाने-पीने की चीजों के स्टैंड लगे थे. ताजा मिट्टी, फूलों, सब्जियों और फलों से महक आ रही थी. लग रहा था मानो बसंत का मौसम हो, भले ही बाहर तमाम चीजों पर बर्फ की परत जमी हो.

ऊंची खाद्य कीमतें मददगार नहीं

किसान वास्तव में क्या कमाता है, ये पता लगाना मुश्किल है. बहुत सारे कारण हैं, जैसे खेती किस किस्म की है- पारंपरिक या जैविक, क्या उगाया गया है, फसल ही है या मवेशीपालन है या दोनों हैं, कहां हो रहा है, क्या परिवार शामिल है, सब्सिडी कितनी है, है भी या नहीं- ये तमाम पक्ष दुश्वारियां पैदा करते हैं.

एक बात तय है. पूरी तरह से खेती में ही जुटे रहने वाले किसान बहुत से अन्य कामगारों की तुलना में ज्यादा लंबी अवधि तक काम करते हैं. नॉर्थ-राइन वेस्टफालिया चैंबर ऑफ एग्रीकल्चर की गणना के मुताबिक, 40 घंटे वाली एक नियमित नौकरी साल में कुल मिलाकर 2,088 घंटे का काम देती है. जबकि फुलटाइम किसान 2,300 घंटे काम करते हैं. स्वरोजगार वाले व्यक्ति के लिए कोई न्यूनतम वेतन नहीं है.

सब्सिडी से भी आय का एक बड़ा हिस्सा आता है और यह अक्सर आकार पर आधारित होती है. सब्सिडी यूरोपीय संघ और जर्मनी की ओर से दी जाती है. ये सब्सिडी किसानों को ऐसे काम करने के लिए भी प्रोत्साहित करती है, जिनसे तत्काल वित्तीय फायदा नहीं होता. जैसे कि खेतों को बिना जोत के छोड़ देना या फसल की विविधता बढ़ाने में निवेश करना.

पीटर टेरगेस लगभग 55 साल से वाइनरी के पेशे में हैं. वह बताते हैं कि खेती हो या वाइन बनाना, नौकरशाही के कारण दोनों ही तरह के किसान हतोत्साहित हो रहे हैं. तस्वीर: Timothy Rooks/DW

पीटर टेरगेस कड़ी मेहनत से बखूबी वाकिफ हैं. लक्जमबर्ग सीमा के पास बसे ट्रियर शहर में उनकी वाइनरी है. फर्मेंटेशन के दौरान तड़के तीन बजे उठना उनके लिए कोई खास बात नहीं. पीटर की खासियत है, आइस वाइन. वह करीब 55 साल से इस पेशे में हैं, लेकिन कोई भी उनसे ये कारोबार लेने को तैयार नहीं. उनकी छह हेक्टेयर जमीन का एक हिस्सा किसी और को लीज पर दिया गया है, आगे क्या होगा कह नहीं सकते.

किसानी को ज्यादा आकर्षक बनाना आसान काम नहीं होगा. उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा, "नौकरशाही और कागजी कार्रवाई बहुत ही ज्यादा है. चीजें आसान बनानी होंगी. खेती करना और वाइन बनाना वैसा नहीं रह गया है, जैसा पहले हुआ करता था." यह शिकायत आम है.

अपने काम के साथ देहात का संरक्षण

खासतौर पर मवेशीपालन से जुड़े किसानों पर ज्यादा तेजी से सख्ती बढ़ी है क्योंकि पशुकल्याण में दिलचस्पी बढ़ने लगी है. जर्मन मवेशीपालन संगठन की प्रबंध निदेशक नोरा हामर के मुताबिक, पशुपालन करने वाले किसान असल में देहाती जीवन की हिफाजत करते हैं और सैलानियों के पसंदीदा ग्राम्य परिवेश की सुंदरता को जीवित रखते हैं. जैविक खेती के लिए बेहद जरूरी खाद भी वही मुहैया कराते हैं.

जर्मनी में करीब 11 फीसदी खेत ऐसे हैं, जो किसी न किसी तरह से जैविक खेती के तरीकों से जुड़े हैं. तस्वीर: Timothy Rooks/DW

नोरा हामर भी कहती हैं कि किसानी में दिलचस्पी कम होने लगी है. उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा, "जो फार्म अच्छी-खासी स्थिति में हैं, उनके पास सफलता का बेहतरीन मौका है." उनका इशारा उन फार्मों से है, जो थोड़े से कर्ज के साथ एक अच्छी वित्तीय हालत में हैं और सुगम स्थानों पर काम कर रहे हैं. एक दिन किसी और को काम सौंप देने के लिए भी कोई होना चाहिए, इससे भी मदद मिलती है. और भी अच्छा हो अगर उनके पास बायोगैस, सौर और पवन ऊर्जा जैसे विकल्प भी मौजूद हों.

हामर, जर्मन किसानों की मदद के लिए देश भर में ज्यादा समान नियम लाने की मांग करती हैं, जिनकी मदद से किसान अपने पेशे के कुछ हिस्से तेजी से बदल सकें और पेचीदा निर्माण संहिताओं या उपभोक्ता के बदलते स्वादों से निपट सकें. इस समय भ्रमित और आंशिक रूप से विरोधाभासी नियम-कायदे चीजों की रफ्तार कम कर देते हैं या लागत को बढ़ा देते हैं. इन तमाम हताशाओं की वजह से ही नए उत्साही किसान आगे नहीं आते.

1970 में, देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में किसानों ने 3.3 फीसदी का योगदान किया था. डीजेड बैंक के अध्ययन के मुताबिक, आज यह गिर कर एक फीसदी हो चुका है. भले ही किसानों की कुल आर्थिक अहमियत घट रही है, फिर भी वे देश को खाने-पीने की बुनियादी चीजें मुहैया कराकर महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. ऐसे समय में जब देश आयातों पर ज्यादा निर्भर रहना नहीं चाहते, ये भूमिका और अहम जाती है. अब जरूरत है कि किसानों को विश्वास दिलाया जाए.

डीजल सब्सिडी को लेकर सड़कों पर उतरे जर्मन किसान

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