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जर्मनी में महंगाई ने तोड़ा 30 सालों का रिकॉर्ड

६ जनवरी २०२२

जर्मनी में तीन दशक से भी लंबे वक्त के बाद भोजन जैसी बुनियादी चीजों और ईंधन के दामों तेज उछाल देखा जा रहा है. इससे न सिर्फ यूरोपीय सेंट्रल बैंक के प्रति गुस्सा बढ़ रहा है, बल्कि बचत पर जोर देने वाले लोग भी डरे हुए हैं.

Symbolbild | Kennzahlen zur Inflation im Euroraum
तस्वीर: Patrick Pleul/dpa/picture alliance

जीमोन और लीना वेंडलैंड नवजात जुड़वां बच्चों के अभिभावक हैं. ये दोनों बहुत परेशान हैं और कहते हैं कि इनकी रोजमर्रा की जिंदगी डगमगाने सी लगी है. इसकी वजह है महंगाई, जो जर्मनी में बीते 30 वर्षों में सबसे ऊंचे स्तर पर है. वेंडलैंड परिवार बताता है कि उनकी बिजली सप्लाई करने वाली कंपनी ने बिजली के दाम दोगुने करने का एलान कर दिया है. वहीं संपत्ती के दामों में भी बेतहाशा वृद्धि हुई है. जीमोन कहते हैं, "हम नहीं जानते कि आगे हमारा क्या हाल होने वाला है."

जर्मनी ही नहीं, पूरे यूरोप में बिजली, खाने और किराए जैसी चीजों के दाम अंधाधुंध बढ़ रहे हैं. यूरोप में महंगाई हर साल पांच-पांच फीसदी की दर से बढ़ रही है. जर्मन अर्थव्यवस्था के लिए दिसंबर और पूरे 2021 के आज ही जारी हुए आंकड़े दिखाते हैं कि रहन-सहन के दामों में केवल 2021 के दौरान 3.1 फीसदी की बढोत्तरी हुई. इसका कारण ऊर्जा की ऊंचीं कीमतों के अलावा सप्लाई चेन का अवरुद्ध होना भी रहा, जिसकी स्थिति कोरोना महामारी के कारण पैदा हुई. इसके अलावा देश में लंबे वैल्यू ऐडेड टैक्स पर मिलने वाली छूट खत्म होने का भी इसमें हाथ रहा. सन 1993 से यूरोप की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था जर्मनी में इतनी महंगाई देखने को नहीं मिली थी.

खाने पीने की चीजों के दाम बढ़े.तस्वीर: Andreas Arnold/dpa/picture alliance

कौन है इन हालात के लिए जिम्मेदार?

जर्मनी में सर्वाधिक बिकने वाले अखबार 'बिल्ड' ने इसका ठीकरा यूरोपीय सेंट्रल बैंक (ईसीबी) पर फोड़ा है. अखबार के मुताबिक बैंक कीमतें स्थिर रखने में नाकाम रहा और इसकी 'चीप मनी पॉलिसी' ने हालात और खराब कर दिए. आसान भाषा में कहें, तो चीप मनी पॉलिसी में पैसे या किसी चीज की मात्रा बढ़ाकर महंगाई को थामे रखने की कोशिश होती है.

इस मुद्दे पर ईसीबी का कहना है कि ब्याज दर कम रखने और 1.85 ट्रिलियन यूरो कीमत के 'पैनडेमिक इमरजेंसी बॉन्ड' खरीदने का इसका फैसला अर्थव्यवस्था को कोरोना के असर से बचाने के लिए जरूरी था. हालांकि, जर्मनी में बचत पर जोर देने वाले लोग मानते हैं कि ईसीबी की 'जीरो ब्याज दर' की नीति उनकी संपत्तियों का नुकसान कर रही है.

हाल ही में 'बिल्ड' ने ईसीबी की प्रमुख क्रिस्टीन लगार्ड को 'मैडम इन्फ्लेशन' यानी महंगाई की वजह करार दिया था. अखबार ने कहा कि वह खुद 'शनैल के कपड़े पहनती' हैं, लेकिन 'पेंशन पाने वालों, कर्मचारियों और बचत करने वालों की तकदीर का मजाक उड़ाती' हैं. हालांकि, लगार्ड खुद भी बाजार में खाने की बुनियादी चीजों की बढ़ती कीमतों पर चिंता जता चुकी हैं.

ईसीबी की नीति में क्या है दिक्कत?

ईसीबी की 'अल्ट्रा लूज मनी पॉलिसी' की वजह से बचत करनेवाले लोग लंबे वक्त से बैंक को लेकर आशंकित रहे हैं. 'अल्ट्रा लूज मनी पॉलिसी' में बाजार में पैसों या कम ब्याज पर क्रेडिट की उपलब्धता बढ़ा दी जाती है और इसी के जरिए महंगाई को नियंत्रण में रखने की कोशिश की जाती है.

बिल्ड ने लगार्ड से पहले ईसीबी के प्रमुख मारियो द्रागी की तुलना वैंपायर से करते हुए उन्हें 'लोगों के खाते चूस जाने वाला' बताया था. जर्मनी को 1920 और 1970 के दशक में आई भारी मंदी की वजह से कई आर्थिक समस्याएं भुगतनी पड़ी थीं. आईएनजी के अर्थशास्त्री कार्स्टन ब्रेजस्की मानते हैं कि जर्मनी के आम नागरिकों में मंदी का बहुत गहरा डर है.

लगार्ड कई बार दोहरा चुकी हैं कि ये बढ़ी हुई कीमतें भविष्य में नीचे आएंगी, लेकिन जर्मनी में उनकी बात पर भरोसा करनेवाले कम हैं. 72 साल की मार्लेट क्रोबर पेशे से अध्यापिका थीं. वह कहती हैं, "मैडम लगार्ड के मुताबिक हम अगले साल के मध्य तक इससे उबर जाएंगे, लेकिन हम उनकी बात पर क्या ही भरोसा करें."

बैंक भी हैं चिंतित

जर्मनी के बैंकों ने भी लगार्ड के अनुमान पर संदेह जताया है. कॉमर्स बैंक के प्रमुख मानफ्रेड क्नोफ का कहना है, "हमें लगातार ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि यह महंगाई अस्थाई नहीं है और आने वाले बरसों में भी हालात ऐसे ही बने रहेंगे." वहीं डॉएच बैंक के प्रमुख क्रिश्टियान सेविंग ने भी यही चिंता जाहिर करते हुए केंद्रीय बैंक से अपनी मुद्रा नीति को जल्द बदलने की गुजारिश की है.

जर्मनी के केंद्रीय बैंक के मुखिया येंस वाइडमन ने हाल ही में एलान किया कि इस साल के अंत में वह अपना पद छोड़ देंगे. उनके एलान ने कई लोगों को चौंकाया है.वाइडमन पिछले एक दशक से जर्मनी के केंद्रीय बैंक के प्रमुख हैं और अकसर ईसीबी की मुद्रा-नीति के खिलाफ आवाज उठाते रहे हैं. हालांकि, इस मुद्दे पर उन्हें बहुत समर्थन नहीं मिला है. 'डी वेल्ट' अखबार की मानें, तो वाइडमन की रवानगी के साथ ही 'जर्मनी में बचत करनेवालों का आखिरी पहरेदार' भी चला जाएगा.

ईसीबी की नीति के पक्षधर भी हैं

हालांकि, कई विशेषज्ञ यह भी कहते हैं कि ईसीबी की नीतियों की वजह से ही यूरोजोन की समृद्धि सुनिश्चित हो सकी है. ब्रेजस्की कहते हैं, "आलोचक यह भूल जाते हैं कि ईसीबी ने यह सुनिश्चित किया है कि अर्थव्यवस्था को मदद मिलती रहे, यूरोजोन बना रहे और जर्मनी में नई नौकरियां पैदा हों, जो पिछले 20 साल में नहीं हुई हैं."

अर्थव्यवस्था के मजबूत होने से कर्मचारियों को फायदा होता रहा है और देश भी मामूली दरों पर कर्ज लेने में सक्षम रहा है. ऐसे में कुछ कंज्यूमर अब भी ईसीबी के पक्ष में हैं. पेंशन पानेवाले हरमन वॉट कहते हैं कि सेंट्रल बैंक ने यूरोजोन के 19 देशों की भलाई के लिए हरसंभव कोशिश की है. महंगाई बढ़ने से ग्राहकों में सामान खरीदने की क्षमता कम होती है, क्योंकि ऐसे में वे एक यूरो में उतनी चीजें नहीं खरीद पाते, जितनी पहले खरीद लेते थे. यही वजह है कि बचत पर जोर देने वालों को महंगाई से ज्यादा तकलीफ होती है.

ईंधन की बढ़ती कीमतों से आम जनता परेशान.तस्वीर: picture-alliance/dpa/F. May

ईंधन कीमतों का मसला

जर्मनी में महंगाई पिछले साल खूब बढ़ी, जब अर्थव्यवस्था 2020 में आई कोरोना महामारी के असर से उबरने की कोशिश कर रही थी और ईंधन की कीमतें तेजी से बढ़ ही थीं. हालांकि, अस्थाई तौर पर वैट घटाने की व्यवस्था खत्म होने से भी ईंधन कीमतें साल दर साल बढ़ी हैं. महामारी की वजह से मांग और आपूर्ति भी प्रभावित हुई, जिसका असर उत्पादों की कीमतों पर पड़ा.

इसके अलावा 2021 की शुरुआत में जर्मनी में डीजल,गैसोलीन, हीटिंग ऑइल और प्राकतिक गैस जलाने पर निकलने वाली कार्बन डाई ऑक्साइड को कम रखने के मकसद से लगाए गए कार्बन टैक्स की वजह से भी ईंधन कीमतों में उछाल आया.

वीएस/आरपी (एएफपी, डीपीए)

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