जर्मन संसद में यहूदी नरसंहार की याद में सभा
१ फ़रवरी २०१८Bundestag commemorates Holocaust
नाजी यातना शिविरों में रखे गए चित्रकार किसी तरह अपने खौफनाक अनुभवों को उकेरेने कामयाब हुए थे. इनमें से कई चित्र तबाह कर दिए गए, कई कलाकार मारे गए. जो चित्र बचाए जा सके इन दिनों बर्लिन में उनकी एक प्रदर्शनी चल रही है.
नाजी दमन के दौर में कला
नाजी यातना शिविरों में रखे गए चित्रकार किसी तरह अपने खौफनाक अनुभवों को उकेरेने कामयाब हुए थे. इनमें से कई चित्र तबाह कर दिए गए, कई कलाकार मारे गए. जो चित्र बचाए जा सके इन दिनों बर्लिन में उनकी एक प्रदर्शनी चल रही है.
यहूदी बस्ती के रंग
क्या खौफनाक चीज खूबसूरत भी हो सकती है? बर्लिन में लगी प्रदर्शनी 'आर्ट फ्रॉम दि होलोकास्ट': 100 वर्क्स फ्रॉम दि याद वाशेम कलेक्शन'' में दिखाई देता है कि नाजी यातना शिविरों और यहूदी बस्तियों में रह रहे कई कलाकार मानव इतिहास के सबसे त्रासद दौर में भी अपने अनुभवों को उकेरने में किसी तरह कामयाब हो गए. कलाकार योसेफ कोनर नाजी दमन के इस दौर से बच निकले. उनकी यह कलाकृति 'यहूदी बस्ती में एक सड़क'.
'शरणार्थी'
इजराएल के याद वाशेम मेमोरियल सेंटर की ओर से पहली बार बर्लिन के जर्मन हिस्टोरिकल म्यूजिम में इन 100 कलाकृतियों की प्रदर्शनी लगाई गई है. इसमें शामिल 50 चित्रकारों में से 24 की नाजियों द्वारा हत्या कर दी गई थी. इनमें उस दौर के मशहूर चित्रकार फेलिक्स नुसबाउम भी थे. उनकी हत्या 1944 में आउश्वित्स में की गई. उनकी यह मशहूर कलाकृति 'शरणार्थी' भी प्रदर्शनी में शामिल है.
'दुख का आत्म चित्र'
शार्लोटे सालोमोन की कलाकृतियां पहले भी जर्मनी में दूसरी जगहों पर दिखाई गई हैं. उनकी 700 कलाकृतियों में से 'जिंदगी या रंगमंच? एक नृत्यनाटिका' नाम से उनका खुद का बनाया यह पोट्रेट भी इस प्रदर्शनी में शामिल है. चित्र में सालोमोन ने एक यहूदी के बतौर अपनी दुखभरी जिंदगी को बयान किया है. 1943 में दक्षिणी फ्रांस से निर्वासित कर दी गई गर्भवती सालोमन जब आउश्वित्स पहुंची वहां उनकी हत्या कर दी गई.
छिपी लड़की के चित्र
नेली टॉल की कहानी कम ही लोग जानते हैं. वह और उनकी मां इस दौर में इसलिए बच गए क्योंकि उन्हें उनके ईसाई दोस्तों ने छिपाकर पोलिश शहर लुवोफ पहुंचा दिया. कमरे में बंद टॉल ने कई चित्र बनाए जिनमें यह चित्र 'खेत में लड़कियां' भी शामिल है. अब 81 साल की हो चलीं टॉल इस प्रदर्शनी के उद्घाटन के लिए अमेरिका में अपने घर से बर्लिन पहुंचीं.
'बैरेकों के बीच का रास्ता'
बॉन शहर के लियो ब्रॉअर ने प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी के लिए लड़ाई लड़ी. हिटलर के सत्ता में आने के एक साल बाद 1934 में उन्हें हेग जाना पड़ा और फिर वहां से ब्रसेल्स. वहां उन्हें चित्र बनाने के मौके मिल पाए. 1940 में उन्हें फ्रांस में सेंट सिप्रियेन नजरबंदी शिविर के बाद गुर्स के कैंप में ले जाया गया जहां उन्होंने जल रंगों में अपने अनुभवों को उकेरा. 1975 में लियो की मौत बॉन में हुई.
कलात्मक साझेदारी
गुर्स में लियो ब्रॉअर ने फोटोग्राफर और चित्रकार कार्ल रॉबर्ट बोडेक के साथ मिलकर एक कैंप कैबरे के लिए स्टेज का डिजाइन किया. इन दोनों ने 1941 तक ग्रीटिंग कार्ड्स और इस तरह की कई कलाओं में साझा काम किया. इसके बाद बोडेक को एइक्स ऑन प्रॉवॉन्स के नजदीक ले मील कैंप में भेज दिया गया. इसके बाद अंत में उन्हें आउश्वित्स भेजा गया जहां 1942 में उनकी हत्या कर दी गई.
कलाकार का खूफिया जीवन
बेडरिष फ्रिटा थेरेसियनस्टाट यातना शिविर में थे जहां से प्रोपागांडा समग्री का उत्पादन होता था. लेकिन फ्रिटा और उनके सहयोगियों ने खूफिया तरीके से नाजी यातना शिविरों की दहशत को अपने चित्रों में उकेरा. कुछ समय बाद उनका यह भेद खुल गया. फ्रिटा की मृत्यु आउश्वित्स में ही हुई. जब थेरेसियनस्टाट आजाद हुआ तो उनकी 200 कलाकृतियां दिवारों और जमीन के भीतर गाड़ी हुई पाई गईं.
मौत के परे दोस्ती
यातना शिविर के भयानक जीवन को उकेरने में बेडरिष फ्रिटा को लियो हास ने बेहद मदद की. साखसेनहाउसेन में उन्हें मित्र राष्ट्रों की नकली मुद्रा के नोट बनाने का का आदेश दिया गया था. वे दमन के इस दौर से जिंदा बचने में कामयाब रहे और उन्होंने फ्रिटा के बेटे टोमास को गोद लिया. युद्ध के बाद हास को थेरेसियनस्टाट में उनकी छिपाई 400 के करीब कलाकृतियां मिलीं.
खूफिया डॉक्टर
पावेल फांटल भी थेरेसियनस्टाट के चित्रकारों के समूह से ही थे. एक डॉक्टर होने के नाते वे शिविर में एक गुप्त टाइफस क्लिनिक भी चलाया करते थे. लेकिन फ्रिटा की तरह ही उनका भेद भी खुल गया और उन्हें यातनाएं देकर आउश्वित्स भेज दिया गया. जनवरी 1945 में एक डैथ मार्च के दौरान उन्हें गोली मार दी गई. उनकी 80 कलाकृतियों को खूफिया तरीके से थेरेसियनस्टाट से बाहर भेजा गया था.
कला अध्यापक
याकोब लिपशित्स विलनियस के आर्ट इंस्टीट्यूट में पढ़ाया करते थे. 1941 में उन्हें काउनुस की एक यहूदी बस्ती में जबरदस्ती ले आया गया. यहां वे कलाकारों के एक खूफिया संगठन में शामिल हो गए और अपने चित्रों में दमन के दौर को दर्शाने लगे. लिपशित्स की मौत 1945 में काउफरिंग यातना शिविर में हुई. युद्ध के बाद उनकी पत्नी और बेटी यातना शिविर के कब्रगाह से उनकी कई कलाकृतियों को तलाशने में कामयाब हुए.
त्रासद दौर में उम्मीद के चित्र
इस प्रदर्शनी में शामिल चित्र नाजी शिविरों की क्रूरता और अमानवीयता का दस्तावेज हैं. साथ ही ये यह भी दिखाते हैं कि इन चित्रकारों ने खुद को कैद करने वालों के खतरनाक इरादों के इतर जाकर अपनी किस्म की दुनिया रचने की कोशिश की. ये चित्र मोरित्स मुलर की कलाकृति ''सर्दियों में छत'' है. बर्लिन के जर्मन हिस्टोरिकल म्यूजियम में यह प्रदर्शनी 3 अप्रैल तक चलनी है.