1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें
शिक्षाजर्मनी

जर्मनी: स्कूली शौचालयों की हालत सुधारने के लिए एक पहल

स्वाति मिश्रा
१९ जून २०२४

अच्छे स्कूल में क्या-क्या होना चाहिए, इस सवाल पर शायद शौचालय दिमाग में ना आए. जर्मनी के कई स्कूलों में शौचालय इतनी बदतर हालत में हैं कि छात्र वहां जाने से कतराते हैं. 'टॉइलेट्स मेक स्कूल' अभियान बेहतरी ला रहा है.

एक शौचालय में दिख रहा कमोड.
जीटीओ को बर्लिन के स्कूली शौचालयों पर किए गए एक विस्तृत अध्ययन में ऐसे कई उदाहरण मिले, जो बताते थे कि साफ शौचालयों की कमी छात्रों को किस कदर प्रभावित कर रही है. कई छात्रों ने बताया कि गंदगी और बदबू के कारण वे स्कूल में शौचालयों का इस्तेमाल नहीं करते. कई घंटे तक मल-मूत्र रोकने से बच्चों और किशोरों को स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याएं भी हो सकती हैं. तस्वीर: DW

जर्मनी के एक स्कूल में 8वीं कक्षा के छात्र हेंड्रिक जिमॉन कई साल तक अपने स्कूल के शौचालय जाने से कतराते रहे. यह हालत थी कि तेज पेशाब आने पर भी वह रोक कर क्लास में बैठे रहते थे. उन दिनों को याद करते हुए जिमॉन कहते हैं कि पहले शौचालय में बहुत अंधेरा हुआ करता था, टॉइलेट पर लगे लिड भी तोड़-फोड़ दिए गए थे, कुल मिलाकर बहुत खराब माहौल था.

जिमॉन के स्कूल की हालत अब काफी दुरुस्त है. यह बेहतरी "टॉइलेट्स मेक स्कूल" नाम के एक अभियान से आई है. इससे जर्मनी के कई स्कूली शौचालयों की स्थिति संवरी है और छात्र, शिक्षक और अभिभावक भी बेहतर महसूस कर रहे हैं.

जर्मनी का पहला स्कूल शौचालय सम्मेलन

अच्छे शिक्षक, बढ़िया कक्षाएं, प्रयोगशाला, लाइब्रेरी, खेल के मैदान जैसी स्वाभाविक लगने वाली जरूरतों की तुलना में बढ़िया शौचालय की आवश्यकता पर उतना ध्यान नहीं दिया जाता. जबकि साफ-सुथरे शौचालय छात्रों और शिक्षकों, दोनों के लिए बेहद जरूरी हैं.

जर्मनी की शिक्षा व्यवस्था क्यों बीमार पड़ रही है

इसी जरूरत के मद्देनजर 18 जून को जर्मनी में पहला 'स्कूल शौचालय सम्मेलन' आयोजित किया गया. इसका आयोजन जर्मन टॉइलेट ऑर्गनाइजेशन (जीटीओ) ने किया. इसके अंतर्गत, स्कूल में शौचालयों को बेहतर बनाने से जुड़ी एक प्रतियोगिता के विजेताओं का भी एलान हुआ. जीतने वालों को 50 हजार यूरो से ज्यादा के पुरस्कार दिए गए.

साफ शौचालय मुहैया कराने के इस अभियान के तहत, बर्लिन के एक स्कूल में छात्रों ने एक गाना और वीडियो बनाया. क्लीन हीरोज नाम का यह ग्रुप शौचालयों की देखभाल करता है, ज्यादा सफाई बरतने के लिए अलग-अलग कक्षा के छात्रों का सहयोग सुनिश्चित करता है और सफाईकर्मियों की भी मदद करता है. शिक्षक बताते हैं कि इस प्रोजेक्ट ने कई छात्रों को प्रेरित किया है. तस्वीर: VadimGuzhva/IMAGO

अच्छे स्कूली अनुभव के लिए साफ शौचालय भी जरूरी

पुरस्कार जीतने वालों में शामिल हेंड्रिक जिमॉन ने पुराने दिनों को याद करते हुए समाचार एजेंसी डीपीए को बताया, "फर्श पर पेशाब फैला था, सब चिपचिपा था और बहुत बदबूदार भी. रीडिजाइन किए जाने से पहले चीजें बहुत अलग थीं."

रेनोवेशन के बाद जिमॉन के स्कूल की स्थिति बेहतर और खुशनुमा है. शौचालयों में डिस्को बॉल लगे हैं, पौधे हैं, बदबू मिटाने के लिए सेंट डिस्पेंसर है, जैकेट टांगने के लिए हुक लगे हैं. रोशनी, साबुन और टॉइलेट पेपर की भी कोई कमी नहीं.

प्रतियोगिता की संयोजक स्वेन्या क्सॉल ने डीपीए को बताया, "लोग इस मुद्दे के बारे में बात नहीं करते, इसकी उपेक्षा होती है, जैसे कि यह मायने ही नहीं रखता. यह बहुत खिझाने वाला है. कई शिक्षक और स्कूल प्रशासक हमसे कहते हैं कि ये बड़ा बेवकूफी भरा मुद्दा है, हम वैसे भी इस पर काबू नहीं कर सकते." क्सॉल बताती हैं कि स्कूलों में मिलने वाला खाना और बुलीइंग के साथ-साथ शौचालय भी उन मुख्य मुद्दों में है, जिससे छात्र प्रभावित होते हैं.

प्रतियोगिता की तैयारी के क्रम में स्कूलों में टॉइलेट वर्किंग ग्रुप बनाए गए. कमियों को सामने लाने और उन्हें दूर करने के लिए नई व्यवस्था बनाई गई. फ्लश कैसे काम करता है, ऐसे विषयों पर छोटी क्लासों के बच्चों को खास ट्रेनिंग दी गई. कई जगहों पर तो हाइजीन की अहमियत को पाठ्यक्रम में शामिल किया गया. तस्वीर: John Locher/AP Photo/picture alliance

जर्मनी के 76,000 से ज्यादा छात्रों ने भाग लिया

इस आयोजन का उद्देश्य जर्मनी के हर स्कूल को साफ और सुरक्षित शौचालय मुहैया कराना है. इसकी जरूरत रेखांकित करते हुए जीटीए ने यह भी दलील दी कि स्कूल का शौचालय समाज की वह शुरुआती जगह है, जहां बच्चे बड़ों की निगरानी के बिना सार्वजनिक संपत्ति को संभालना और उससे बरतना सीखते हैं. ऐसे में यह शैक्षणिक और सामाजिक मूल्यों के हिसाब से भी खासा महत्व रखता है.

जर्मनी: स्कूलों में घट रहा है लोगों का भरोसा

इस प्रतियोगिता के लिए जीटीओ ने इसी साल जनवरी में एक खास पोर्टल जारी किया था, जिसमें सभी स्कूलों से हिस्सा लेने की अपील की गई थी. प्रतियोगिता के तहत, शौचालयों की हालत सुधारने के लिए सुझाव देने थे. एंट्री भेजने की आखिरी तारीख 23 अप्रैल थी. हिस्सा लेने के लिए स्कूलों को एक टीम बनानी थी, जिसमें कुछ खास समूहों के लोग होने चाहिए थे.

ये समूह थे: छात्र, शिक्षक, स्कूलों के लिए काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता, शिक्षाविद, स्कूल प्रशासन, स्कूल की देखभाल और सुरक्षा करने वाले केअरटेकर और सफाईकर्मी. इसके लिए 14 राज्यों के 135 स्कूलों ने अपने सुझाव दिए. कुल मिलाकर 76,000 से ज्यादा स्कूली छात्रों ने भाग लिया. इसके बाद 13 से 17 मई तक शौचालय विशेषज्ञों की एक खास जूरी ने सभी एंट्रियों और सुझावों की समीक्षा की. 18 जून को राजधानी बर्लिन में आयोजित पहले जर्मन स्कूल टॉइलेट समिट में विजेताओं का एलान किया गया.

प्रतियोगिता के आयोजकों का कहना है कि जिन स्कूलों को पुरस्कार नहीं मिला, उन्होंने भी हालात में बेहतरी महसूस की है. प्रबंधकों का कहना है कि प्रतियोगिता आयोजित करने का मकसद फौरी नहीं, बल्कि लंबे समय के लिए बदलाव लाना था. और इसके लिए सिर्फ सफाईकर्मियों पर निर्भर नहीं रहा सकता है. ऐसे में अभियान का एक बड़ा लक्ष्य छात्रों की भागीदारी सुनिश्चित कर इसे उनके सीखने की प्रक्रिया का हिस्सा बनाना भी है. तस्वीर: Jens Kalaene/picture alliance/dpa

स्कूलों में अच्छे शौचालय ना होना बड़ी गंभीर समस्या

जीटीओ ने बॉन यूनिवर्सिटी के इंस्टिट्यूट फॉर पब्लिक हेल्थ एंड हाइजीन (आईएचपीएच) के साथ मिलकर स्कूली शौचालयों की हालत पर एक विस्तृत अध्ययन किया. पहली बार इसे एक वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में खंगाला गया. इस स्टडी का मकसद स्कूलों में शौचालयों की हालत और साफ-सफाई की सुविधाओं का जायजा लेना था.

इसके अंतर्गत साल 2022 में राजधानी बर्लिन के 11 जिलों के 17 सेकेंडरी स्कूलों में सर्वे किया गया था. पाया गया कि कई मामलों में स्कूलों का बुनियादी ढांचा बुरी हालत में है. शौचालयों से बदबू आती है, निजता नहीं होती, वे इतने गंदे होते हैं कि छात्र वहां जाने से कतराते हैं.

यह भी पाया गया कि स्कूली शौचालयों में ना केवल सफाई की ज्यादा व्यवस्था जरूरी है, बल्कि बदबू दूर करने के इंतजाम और स्कूल परिसर में सुरक्षा बढ़ाने पर भी काम करना होगा. साथ ही, आपत्तिजनक ग्रैफिटी आर्ट को भी हतोत्साहित किए जाने के जरूरत महसूस की गई. नतीजों के आधार पर चार मुख्य अनुशंसाएं की गईं.

पहला, दिन में कम-से-कम दो बार शौचालयों की सफाई हो. दूसरा, डिजाइन संबंधी पक्षों में छात्रों की भी भागीदारी हो. तीसरा, कमियां बताने के लिए स्पष्ट और पारदर्शी संवाद की व्यवस्था हो. चौथा, कमियां दूर करने के लिए जल्दी कदम उठाए जाएं.

ईको इंडिया 254: देखिए पूरा एपिसोड

25:01

This browser does not support the video element.

बेहतर शौचालय और सीखने का मौका

यह देशभर में इस तरह की तीसरी प्रतियोगिता थी. इसे "टॉइलेट्स मेक स्कूल" का नाम दिया गया. इसके उद्देश्यों के बारे में बताते हुए कॉन्फ्रेंस ऑफ एजुकेशन मिनिस्टर्स 2024 की अध्यक्ष क्रिस्टीने श्ट्राइशेर्ट ने अपने संदेश में कहा, "स्कूल सीखने की जगह हैं. यह ऐसी जगह है जहां लोग साथ रहते हैं, हंसते हैं और रोज नए अनुभव पाते हैं. स्कूल एक ऐसी जगह होनी चाहिए, जहां दिन का एक बड़ा हिस्सा बिताने वाले लोगों को अच्छा महसूस हो. स्कूल का अच्छा माहौल बस इस चीज से नहीं तय होता कि स्कूली कार्यक्रम अच्छा हो, सीखने का अच्छा माहौल हो. "

श्ट्राइशेर्ट ने शौचालयों पर ध्यान देने की जरूरत रेखांकित करते हुए कहा, "स्कूलों को ऐसी जगह भी होना चाहिए, जहां लोग सुरक्षित और आरामदेह महसूस करें. इसमें स्वाभाविक तौर पर स्कूली शौचालयों की साफ-सफाई भी शामिल है." उन्होंने कहा कि इस दिशा में कई स्कूल अपने कार्यक्रम विकसित कर रहे हैं, जिसमें छात्रों को भी शामिल किया गया है और ऐसी पहल का स्वागत होना चाहिए.

डीडब्ल्यू की टॉप स्टोरी को स्किप करें

डीडब्ल्यू की टॉप स्टोरी

डीडब्ल्यू की और रिपोर्टें को स्किप करें

डीडब्ल्यू की और रिपोर्टें