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जर्मनी में क्यों परवान चढ़ रही है दक्षिणपंथी विचारधारा

बेन नाइट
३ जुलाई २०२३

दूसरे विश्व युद्ध के बाद ये पहली बार है जब इस तरह की विचारधारा वाली पार्टी लोकप्रिय होती दिख रही है. जानकार इसे चिंता की बात तो मानते हैं लेकिन जनता का मूड बदलने की बात भी करते हैं.

एएफडी के हनस लोट ने स्वतंत्र उम्मीदवार नील्स नौमान को सैक्सनी ऑन्हॉल्ट के राग्हुन-येजनिट्स टाउन में हुए मेयर के चुनाव में हराकर कुर्सी हासिल कर ली
एएफडी के हनस लोट ने स्वतंत्र उम्मीदवार नील्स नौमान को सैक्सनी ऑन्हॉल्ट के राग्हुन-येजनिट्स टाउन में हुए मेयर के चुनाव में हराकर कुर्सी हासिल कर लीतस्वीर: Jan Woitas/dpa/picture alliance

पूर्वी जर्मनी में दो स्थानीय चुनावों में धुर दक्षिणपंथी पार्टी अल्टरनेटिव फॉर डॉयचलैंड (एएफडी) की जीत के बाद नेताओं और मीडिया के बीच इस बात की चर्चा गर्म है कि आखिर धुर-दक्षिणपंथी विचारधारा जनमानस में कैसे जगह बनाती चली जा रही है.

दूसरे विश्व युद्ध के बाद ये पहली बार है जब इस तरह की विचारधारा वाली पार्टी लोकप्रिय होती दिख रही है. रविवार शाम को एएफडी के हनस लोट ने स्वतंत्र उम्मीदवार नील्स नौमान को सैक्सनी ऑन्हॉल्ट के राग्हुन-येजनिट्स टाउन में हुए मेयर के चुनाव में हराकर कुर्सी हासिल कर ली.

इसके महज एक हफ्ते पहले ही एएफडी के रॉबर्ट सेसेलमान ने थुरिंजिया राज्य के सोनेबर्ग के जिला प्रशासक के तौर पर जीत हासिल की थी. हालांकि ये दोनों ही इलाके छोटे हैं लेकिन नतीजों को अहम माना जा रहा है क्योंकि ये राष्ट्रीय चुनावों के लिए जनता के मूड की एक झलक देते हैं.

एएफडी अब जनता के 20 फीसदी वोटों पर अपनी पकड़ का दावा कर सकती है. ये वही स्थिति है जो चांसलर ओलाफ शॉल्त्स की सोशल डेमोक्रैटिक पार्टी की है.

दूसरे विश्वयुद्ध के बाद पहली बार किसी दक्षिणपंथी पार्टी की तरफ इतना रूझान दिखा हैतस्वीर: Heiko Rebsch/dpa/picture alliance

क्यों बढ़ रही है एएफडी की लोकप्रियता

जानकारों के लिए इस बात पर उंगली रख पाना बड़ा कठिन है कि ऐसा क्यों हो रहा है. कुछ का कहना है कि सरकार के भीतर चल रही तनातनी, खासकर पर्यावरण सुरक्षा से जुड़े कानूनों को लेकर जो हाल है, ये उसका असर हो सकता है.

जर्मनी की सारी पार्टियां मिल कर भी नहीं रोक सकीं एएफडी को

जर्मन राज्य बवेरिया की टुटजिंग एकेडमी फॉर पॉलिटिकल एजुकेशन की निदेशक उर्जुला मुंश का कहना है,"गठबंधन सरकार की राजनीति लोगों को बेचैन कर रही है. मुझे लगता है कि जो लोग पहले से ही असंतुष्ट हैं, एएफडी उन्हें अपने साथ जोड़ रही है.” लाइपजिष विश्वविद्यालय की इस हफ्ते आई एक रिपोर्ट में इसका सपाट लेकिन काफी तनाव देने वाला जवाब है- बहुत से जर्मन वोटर, खासकर जर्मनी के पूर्वी हिस्से में लोग नस्लवादी विचारधारा रखते हैं.

इसी तरह की चिंताजनक रिपोर्ट 29 जून को भी आई थी जिसमें कहा गया है कि एएफडी का समर्थन जर्मनी के मध्यम-वर्गीय परिवारों में बढ़ता जा रहा है.जीनुस इंस्टीट्यूट फॉर सोशल रीसर्च के इस शोध में ये पाया गया है कि एएफडी के मध्यम-वर्गीय वोटरों की संख्या दो साल के भीतर 43 फीसदी से 56 फीसदी हो गई है और ये बढ़ती जा रही है.

चौंकाने वाली बात ये है कि ये पुरातनपंथी मध्यम-वर्ग नहीं बल्कि ऐसे लोग हैं जो ताजा मुद्दों के हिसाब से अपनी पसंद का राजनैतिक पाला बदलते रहते हैं. जीनुस संस्थान के निदेशक जिल्के बॉर्गश्टेड ने डीडबल्यू से बातचीत में कहा, "हम इस समय जो देख रहे हैं, उसके मुताबिक युवा और आधुनिक मध्यम वर्गीय लोग एएफडी की तरफ रुझान दिखा रहे हैं. हालांकि हम ये नहीं कह सकते कि ये इस वजह से है कि दूसरी पार्टियां लोगों के सामने ठोस प्लान पेश नहीं कर रही हैं या फिर ये लोगों का सोचा-समझा फैसला है." 

एएफडी के रॉबर्ट सेसेलमान हाल ही में जिला प्रशासक का चुनाव जीतने में कामयाब रहेतस्वीर: Jacob Schröter/IMAGO

राजनीति और रणनीति

चांसलर शॉल्त्स का कहना है कि एएफडी की सफलता का उनकी सरकार की अंदरूनी दिक्कतों से कुछ लेना देना नहीं है. जिस पार्टी के सामने सबसे बड़ा सवालिया निशान लगा है वो है क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक पार्टी यानी सीडीयू जो चुनावों में आगे होने के बावजूद गठबंधन सरकार की दुश्वारियों का फायदा उठाने में नाकाम है.

सीडीयू के नेता फ्रीडरिष मेर्त्स को 2019 के अपने उस दावे से पीछे हटना पड़ा जिसमें उन्होंने कहा था कि वो एएफडी के वोटरों की संख्या आधी कर देंगे. हालांकि मेर्त्स दक्षिणपंथी विचारों का विरोध करने की बजाय वामपंथी विचारों के खिलाफ ज्यादा मुखर हैं. हाल ही में उन्होंने कहा कि सीडीयू की मुख्य विपक्षी पार्टी द ग्रीन है जबकि दोनों पार्टियां जर्मनी के सोलह में से छह प्रांतो में गठबंधन सरकार चला रही हैं.

उर्जुला मुंश सीडीयू के इस रवैये का कोई ठोस कारण नहीं समझ पातीं लेकिन उनका मानना है कि पार्टियों को चाहिए कि वो एएफडी के उठाए मसलों जैसे इमीग्रेशन को मुद्दा बनाने के खिलाफ एक दीवार सी खड़ी कर दें. वो कहती हैं, "मैं ऐसा सोचती हूं कि इन पार्टियों को एएफडी की नीतियों का कड़ा मुकाबला करना चाहिए. उन्हें पीछे हटते हुए ये नहीं कहना चाहिए कि वो तो है ही दक्षिणपंथी और हमें उससे कोई मतलब नहीं है."

जानकार चिंतित हैं कि एएफडी समर्थकों को पार्टी की नस्लभेदी नीतियों और संविधान के शासन की परवाह नहीं हैतस्वीर: Thilo Schmuelgen/dpa/picture alliance

लोक-लुभावन राजनीति

जर्मनी में कंजरवेटिव नेता इस बात को लेकर एकमत नहीं है कि उनका रवैया क्या होना चाहिए. कुछ ने लोक-लुभावन बातों से किनारा करके ये जताने की कोशिश है कि वो भरोसेमंद हैं और सरकार चलाने लायक हैं जबकि दूसरों ने भावनाओं के सहारे ही सफलता हासिल की है.

बवेरिया प्रांत में फ्री वोटर्स एक और दक्षिण पंथी पार्टी है जिसके नेता हूबर्ट एवंगर इसका एक अच्छा उदाहरण हैं. बवेरिया के वित्त मंत्री और अल्पसंख्यक पार्टी के नेता के तौर पर एवंगर ने हाल ही में अपने एक बयान से विवाद खड़ा कर दिया था. उन्होने कहा, "अब वो मौका आ चुका है जब इस देश में खामोश रहे बहुसंख्यकों को लोकतंत्र अपने हाथ में लेना चाहिए."

देश की गठबंधन सरकार की अंदरूनी उठापटक को दक्षिणपंथ की तरफ झुकाव की एक वजह कहा जा रहा हैतस्वीर: DW

लोकतंत्र को खतरा

एएफडी के उफान को लेकर सबसे बड़ी चिंता इस बात की है उसके समर्थक ना सिर्फ इस पार्टी की नस्लभेदी नीतियों से बेपरवाह हैं बल्कि उन्हें इस बात से भी वास्ता नहीं है कि एएफडी को देश की सांवैधानिक व्यवस्था के लिए खतरा मान कर निगरानी में रखा गया है.

जर्मनी की खुफिया एजेंसी- द फेडरल ऑफिस फॉर द प्रोटेक्शन ऑफ द कॉन्स्टीट्यूशन ने एएफडी को एक संदेहजनक केस घोषित किया है. हालांकि उर्जुला मुंश मानती हैं कि ना सिर्फ पूर्वी जर्मनी में बल्कि पूरे देश में इंटेलीजेंस एजेंसी की भूमिका को लेकर लोगों की राय अलग है.

जर्मनी की धुर दक्षिणपंथी पार्टी की युवा शाखा को चरमपंथी का दर्जा

जब एजेंसी लोगों को ये कहती है कि एएफडी को वोट ना करें तो लोग इस बात से नाखुश रहते हैं कि उन्हें ये बताया जाए कि उन्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं. क्या ये हो सकता है कि एएफडी के वोटरों के लिए ये फिलहाल एक फैशन की तरह हो?

जीनुस इंस्टीट्यूट के जिल्के बॉर्गश्टेड को भरोसा है कि पार्टी के ताजा नंबरों के बावजूद जर्मनी की प्रमुख पार्टियों को डरने की जरूरत नहीं है. वो मानती हैं, "धुर-दक्षिणपंथियों का आधार है, लेकिन वोटरों का एक तबका है जिसका मूड वर्तमान हालात से बहुत प्रभावित होता है और उसी के हिसाब से प्रतिक्रिया करता है." इसका मतलब ये है कि 2025 के चुनावों में ये मूड बदलने की पूरी संभावना है.

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