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जर्मनी में मुस्लिम आप्रवासियों को दफनाने की जगह की कमी

क्रिस्टॉफ स्ट्राक
१३ फ़रवरी २०२३

जर्मनी में 50 लाख से भी अधिक मुसलमान रहते हैं. अगर उनकी मौत यहीं होती है तो दफनाने की जगह मिलना मुश्किल हो सकता है.

Symbolbild Muslimische Gräber
तस्वीर: Hauke-Christian Dittrich/dpa/picture alliance

जर्मनी में रहने वाले 50 साल के समीर बोआइसा का कहना है कि "ज्यादा से ज्यादा लोग यहीं दफन होना चाहते हैं." जर्मनी की कुल सवा आठ करोड़ आबादी में 50 लाख से अधिक मुसलमान हैं. समीर बताते हैं कि उनमें से ज्यादातर मरने के बाद यहीं दफनाये जाने की इच्छा रखते हैं.

मोरक्को में जन्मे लेकिन 48 सालों से पश्चिमी जर्मनी के वुपरटाल शहर में बसे समीर 'वुपरटाल मुस्लिम सेमेट्रीज' नामक संगठन के अध्यक्ष हैं. अब उनका संगठन जर्मनी की पहली ऐसी कब्रगाह बनाने की योजना में लगा है जिसे केवल मुसलमान समुदाय चलाएगा. डीडब्ल्यू से बातचीत में समीर ने कहा, "हमने 2008 में ही वुपरटाल में इसकी शुरुआत की थी. तभी से यह साफ होने लगा था कि जर्मनी में मुसलमानों को दफनाने के लिए और कब्रगाहों की जरूरत है."

समीर बोआइसा 'सेंट्रल काउंसिल ऑफ मुसलिम्स' में अपने राज्य नॉर्थ राइन वेस्टफेलिया की शाखा के अध्यक्ष हैं.तस्वीर: Bouaissa

पूरे देश में 30,000 से भी ज्यादा कब्रगाहें हैं. इसमें से एक-तिहाई ईसाई गिरजाघरों के पास हैं और बाकी को नगरपालिकाएं चलाती हैं. जर्मनी के सभी 16 राज्यों में मृतकों को दफनाये जाने के बारे में व्यापक और एक दूसरे से थोड़े अलग नियम बने हुए हैं.

जर्मनी है जिन मुसलमानों का घर

करीब छह दशक पहले जर्मनी में तुर्की सहित कई देशों से मजदूर लाये गये थे जिन्हें 'गेस्ट-वर्कर' का नाम मिला. उनमें कुर्की के मजदूर भी शामिल थे, जिनमें से बहुत से कभी तुर्की वापस नहीं गये. जर्मनी में रहते हुए भी उन्होंने अपने धर्म और संस्कृति को संभाले रखा. बस कमी ये थी कि यहां मरने वाले मुसलमानों को वैसा ही अंतिम संस्कार देने की बहुत कम सुविधाएं थीं जैसी तुर्की में मिलतीं. इसमें इनका सामना कई कानूनी दिक्कतों से भी हुआ. मुसलमानों और यहूदियों के अंतिम संस्कार के तौर-तरीके ईसाइयों से थोड़े अलग होने के कारण कई सख्त नियमों को बदलने की जरूरत पर जर्मन समाज में गर्मागर्म बहसें हुईं.

जैसे कि ईसाइयों में लाश को ताबूत में रखना होता है जबकि मुसलमानों और यहूदियों में केवल कपड़े में लपेटा जाता है, और किसी भी हाल में लाश को जलाया या जमीन से निकाल कर दोबारा कहीं और दफन नहीं किया जाता. आगे चलकर कुछ जर्मन राज्यों में ऐसे सख्त नियमों को बदला गया. नगरपालिकाओं को जहां भी संभव हो वहां कब्रगाह या खुली जमीन मुहैया करानी होती है लेकिन मुसलमानों के लिए ऐसे प्लॉट काफी मुश्किल से मिल पाते हैं.

हाल ही में जर्मन राजधानी बर्लिन के अधिकारियों ने चेतावनी जारी की है कि ज्यादातर कब्रगाह या तो भर चुके हैं या जल्दी ही अपनी सीमा छूने वाले हैं. समीर बोआइसा बताते हैं कि कई शहरों में मुसलमानों को दूसरी किसी नगरपालिका में जाकर दफनाने की जगह मिल पा रही है. 

मूल देश को वापसी - वो भी ताबूत में

बर्लिन के टेंपलहोफ इलाके की सेहित्लिक मस्जिद में लगभग हर दिन कोई ना कोई परिवार अपने परिजन को अंतिम विदाई दे रहा होता है. यह मस्जिद धार्मिक मामलों का तुर्की-इस्लामिक संघ दितिब चलाता है. जाने वाले के लिए मस्जिद का इमाम यहां आखिरी प्रार्थना करता है और मस्जिद के बाहर अर्थी सजी होती है जो इसके बाद शव को सीधे एयरपोर्ट ले जाती है. इस तरह मरने वाले को प्लेन में रख कर वापस तुर्की भेजा जाता है.

अपने देश से बाहर आकर बसे कई लोगों की इच्छा रहती है कि उन्हें वापस ले जाकर उनके मूल देश में ही दफनाया जाये. कई दशकों से दितिब इसके लिए एक बीमा करवाता है. इसे "फ्यूनरल इंश्योरेंस" कहते हैं जिसे लेने पर मृतक के शरीर को तुर्की वापस भेजे जाने और वहां दफनाये जाने तक का सारा खर्च दितिब उठाता है. समीर बोआइसा बताते हैं कि तुर्की की ही तरह मोरक्को, ट्यूनिशिया और अल्जीरिया जैसे देशों के लिए भी ऐसे विकल्प मौजूद हैं.

जर्मन फ्यूनरल डायरेक्टर्स के संघीय संगठन का कहना है कि जर्मनी में मुसलमानों के अंतिम संस्कार में बढ़ोत्तरी दिख रही है. संगठन के महासचिव श्टेफान नॉयजेर ने डीडब्ल्यू से बातचीत में कहा, "यह एक अच्छी चीज है क्योंकि अंत्येष्टि संस्कृति किसी समाज का आइना होती है." कई सालों से जर्मनी का यह संगठन मांग कर रहा है कि उनके पेशे से जुड़ने के लिए लोगों को पेशेवर और स्टैंडर्ड ट्रेनिंग मुहैया करवायी जानी चाहिए. नॉयजेर का मानना है कि इसमें अलग-अलग संस्कृतियों की जरूरतों को भी जरूर शामिल होना चाहिए.

मुल्टी-कुल्टी बर्लिन के मिले-जुले कब्रिस्तान

बर्लिन स्थित तुर्की कब्रगाह पूरे जर्मनी में मुसलमानों का सबसे पुराना कब्रिस्तान है. यह सन 1866 से है जबकि जर्मन साम्राज्य की स्थापना ही उसके कुछ साल बाद सन 1871 में हुई थी. यहां ऐसी कई पुरानी कब्रें हैं जो उस इतिहास की गवाही देती हैं. यह कब्रिस्तान जैसे बहुसांस्कृतिक बर्लिन की एक परछाईं है. यहां पहले विश्व युद्ध में मारे गए जर्मन सैनिकों के स्मारक से लेकर फ्रेंच सैनिकों और अफ्रीका में ड्यूटी करने वाले जर्मन सैनिकों की भी कब्रें हैं.

उस समय दक्षिण-पश्चिम अफ्रीका के जिस इलाके में जर्मन कॉलोनी थी वहां अब नामीबिया देश है. इनसे कुछ ही कदम दूर चलने पर जर्मन तर्जुमे समेत कुछ तुर्की और अरबी नाम दिखते हैं जिसका जन्मस्थान इस्तांबुल, बेरूत या काबुल लिखा मिलेगा. लेकिन यहां भी जगह की कमी झेलनी पड़ रही है. हाल ही में बर्लिन की सरकार ने घोषणा की है कि वे 2023 में शहर के "कम से कम तीन और कब्रिस्तानों में" मुसलमानों को दफनाये जाने के लिए नई जमीनें मुहैया करवाएंगे.

वहीं वुपरटाल जैसे शहरों में भी राजनीतिक सक्रियता दिखायी दे रही है. समीर खुद भी सीडीयू पार्टी की स्थानीय इकाई से जुड़े हैं और इस अभियान को सिटी काउंसिल में सक्रिय सभी मुख्य राजनीतिक दलों का समर्थन हासिल है.

वुपरटाल का पहला मुस्लिम कब्रिस्तान

समीर जर्मनी में मुसलमानों के लिए मुसलमानों द्वारा चलाया जाने वाला पहला कब्रिस्तान खोलने का प्रस्ताव लाये हैं, उसे मॉडल की तरह पेश किया जाएगा. इसके लिए जो जगह सोची गई है वो शहर के सबसे पुराने प्रोटेस्टेंट सेमेट्री और एक नई यहूदी सेमेट्री के पास है. समीर बताते हैं, "तीनों तरह की सेमेट्री सामने की जगह का इस्तेमाल कर पाएंगे और पीछे उनके अपने अपने फ्यूनरल हॉल होंगे."

योजना तो तैयार है. लेकिन पिछले 15 सालों से समीर नौकरशाही से जूझ रहे हैं. वहां कैसी लैंडस्केपिंग होगी उस पर विशेषज्ञों की सलाह लिया जाना अब भी बाकी है. वाइल्डलाइफ प्रोटेक्शन से लेकर मिट्टी की देखभाल तक की जानकारी जुटायी जानी है. 2021 में पास के इलाके में आई भीषण बाढ़ के बाद तो यहां की जमीन की मजबूती को भी चेक किया जाना है.

2015-16 में जर्मनी में बहुत बड़ी तादाद में शरणार्थी पहुंचे थे, जिनमें सीरियाई रिफ्यूजी सबसे ज्यादा थे. समीर का मानना है कि उनके चलते भी यह मामला गंभीर होने वाला है. वह कहते हैं, "कई मामलों में इन लोगों के पास अपने देश वापस लौटने की कोई संभावना नहीं बची है." इसलिए एक दिन इनके लिए भी जर्मनी में ही दफनाये जाने की जरूरत आ खड़ी होगी.

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