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समाजजर्मनी

जर्मन पुलिस में कितनी गहरी है नस्लवादी हिंसा?

१२ नवम्बर २०२०

जर्मनी के बोखुम शहर में कुछ साल से अपराध विज्ञानियों की एक टीम एक अहम मुद्दे पर शोध कर रही थी. मुद्दा था - पुलिस की नस्लवादी सोच और उससे जुड़ी हिंसा का. अब उस रिसर्च के नतीजे सामने आ चुके हैं.

Deutschland Black Live Matter Proteste in Berlin
तस्वीर: picture-alliance/Photoshot/B. Truong

"मुझे गालियां देते हुए कहा, "गंदे लेबनीज, गंदे विदेशी." जर्मनी के एसेन शहर में रहने वाले 24 साल के ओमार अयूब पुलिस के मुंह से अपने लिए ऐसे अपशब्द सुनने की बात कहते हैं. अयूब आगे बताते हैं कि उनकी बहन से किसी पुलिस वाले ने कहा था कि "तुम अब अपने देश में नहीं हो, यहां जानवरों की तरह बर्ताव नहीं कर सकते." अयूब सवाल करते हैं कि यह नस्लवादी टिप्पणी नहीं है तो क्या है.

मुसलमानों के पवित्र महीने रमजान की एक शाम अयूब अपने परिवार के साथ शाम को उपवास तोड़ने जा रहे थे, तभी उनके घर की घंटी बजी. दरवाजे पर पुलिस वाले थे, जिन्होंने बताया कि उन्हें घर से शोर आने की शिकायत मिली है. पुलिस ने कहा कि वे घर के अंदर आकर शांति भंग होने की शिकायत की जांच करेंगे. लेकिन अयूब ने इससे मना करते हुए दरवाजा बंद कर दिया तो बात और बिगड़ गई. उसके बाद की घटना बताते हुए अयूब कहते हैं, "पुलिस ने जोर जबर्दस्ती की और मेरी मर्जी के खिलाफ घर में घुस गए. एक पुलिस वाले ने मेरे चेहरे से चश्मा हटा दिया और मुझसे अपना हाथ सिर के पीछे रखने का आदेश दिया. मैं मान गया. और तब उसने मेरे चेहरे पर मारा." अयूब का आरोप है कि वहां मौजूद उसकी बहन और पिता भी घायल हुए.

पुलिस बर्बरता की शिकायत करने वाले ओमार अयूब.तस्वीर: Melina Grundmann/DW

उसके परिवारजनों को लगी शारीरिक चोट के फोटोग्राफ होने के बावजूद उनके लिए इस घटना की पूरी सच्चाई साबित करना मुश्किल था. एसेन की पुलिस ने इससे जुड़ी काफी अलग कहानी सुनाई. उनका आरोप था कि अयूब और उनके पिता ने "पुलिस पर घूंसे चलाए" और अब उन पर पुलिस का विरोध करने का मुकदमा चल रहा है. अयूब ने भी पुलिस के खिलाफ मामला दर्ज कराया है. उसके हिसाब से पुलिस को लगता है कि उसका परिवार किसी संगठित अपराध से जुड़ा हुआ है क्योंकि वे लेबनानी मूल के हैं. अयूब कहते हैं कि बिना किसी सबूत के पुलिस ऐसा मानती है. इस मामले की जांच जारी होने के कारण पुलिस ने इस पर कोई भी टिप्पणी करने से मना किया है.

सबूतों के बिना

अयूब के मामले को अपराध विज्ञानी लैला अब्दुल-रहमान एक आदर्श नमूना बताती हैं. बोकुम यूनिवर्सिटी में वह पिछले दो साल से एक टीम के साथ मिलकर पुलिस की बर्बरता और नस्लवादी रवैये पर शोध कर रही हैं. इसके लिए उनकी टीम ने 3,000 से भी अधिक लोगों का इंटरव्यू किया और उसके आधार पर रिपोर्ट प्रकाशित की. इस स्टडी का नेतृत्व करने वाले टोबिआस जिंगेल्नश्टाइन यह बात साफ करते हैं कि चूंकि सैंपल केवल कुछ हजार लोगों का था इसलिए इसके नतीजों को मोटे तौर पर पूरे जर्मनी पर लागू करना सही नहीं होगा. हालांकि वह मानते हैं कि यह चिंता का विषय है और इसकी बड़े स्तर पर जांच कराई जानी चाहिए.

इस स्टडी में जो मूल बात निकल कर आई है वह यह है कि जातीय अल्पसंख्यक समूह के लोगों को पुलिस के हाथों ज्यादा तकलीफ झेलनी पड़ती है. लैला अब्दुल-रहमान बताती हैं, "उनके बयान को आम तौर पर शक की निगाह से देखा जाता है, जबकि पुलिस और सरकारी अधिकारियों के बयान को कहीं ज्यादा विश्वसनीय माना जाता है." रिसर्चरों ने पाया कि ऐसे अल्पसंख्यकों को पुलिस के हाथों निजी स्तर पर हिंसा झेलनी पड़ती है, तो वहीं दूसरों को अकसर सार्वजनिक प्रदर्शनों या दूसरे सामूहिक आयोजनों में. रिसर्चरों ने पाया कि पर्याप्त सबूत ना हो ने के कारण इनमें से ज्यादातर मामले कोर्ट तक नहीं पहुंचते. अब्दुल-रहमान बताती हैं कि "ऐसे 90 फीसदी मामलों में सरकार का अभियोजन पक्ष शिकायत रद्द कर देता और इसकी कभी जांच ही नहीं होती." रिसर्चरों का मानना है कि इसके कारण पुलिस क्रूरता के शिकार कानून में भरोसा ही खो देते हैं."

कैसे जगे पुलिस में भरोसा

स्टडी के लेखकों का मानना है कि स्वतंत्र जांच कराने से मदद मिलेगी. उनकी मांग है कि बाहर से पुलिस पर नजर रखी जानी चाहिए और पुलिस हिंसा के शिकार हुए लोगों को अलग से मदद देनी चाहिए. वहीं पुलिस ट्रेड यूनियन के मिषाएल मेर्टेन्स जोर देकर कहते हैं कि बाहरी कदमों से कुछ नहीं होगा. डीडब्ल्यू से बात करते हुए उन्होंने कहा, "पुलिस हिंसा जैसे राज्य के अत्याचार के खिलाफ कार्रवाई के कई रास्ते हैं. हमें वे रास्ते अपनाने चाहिए और उनके प्रभावी होने पर भरोसा रखना चाहिए." हालांकि उन्होंने माना कि "राज्य और पुलिस में जरूर इस तरह के संवेदनशील मुद्दों को लेकर और सुधार की गुंजाइश है. हमें इस विषय को लेकर खुला रवैया रखना होगा और बिना भावनात्मक हुए इस पर बात करनी होगी." उनके हिसाब से इसकी शुरुआत बिल्कुल शुरु से करनी होगी यानि पुलिस में भर्ती और उनकी ट्रेनिंग के समय से.

अब्दुल-रहमान कहती हैं कि चूंकि कोई अपना बाहरी रंग रूप तो बदल नहीं सकता, इसलिए औरों से अलग दिखने वालों के साथ कई बार ऐसी घटनाएं बार बार होती हैं. इसके कारण अल्पसंख्यक या अश्वेत इस घबराहट के साथ जीते हैं कि कहीं उनके साथ फिर से ऐसा ना हो जाए. अमेरिका में एफ्रो-अमेरिकन जॉर्ज फ्लॉएड की मई 2020 में पुलिस के हाथों मैत के बाद यह मुद्दा जर्मनी में भी गर्माया था. सवाल उठे कि क्या जर्मन पुलिस में भी नस्लवाद इस तरह रचा बसा है? इस पर अब्दुल-रहमान कहती हैं, "कुल मिलाकर, मैं कहूंगी कि जर्मनी में अमेरिका जितने ऊंचे स्तर की पुलिस क्रूरता नहीं होती. लेकिन ऐसे मामलों की जांच में समस्या जरूर है."   

रिपोर्ट: मेलिना ग्रुंडमन/आरपी

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