जर्मनी: सिर्फ योग्यता नहीं, सामाजिक हैसियत से तय होती सफलता
१८ जुलाई २०२५
जर्मनी की सबसे बड़ी कंपनियों के बोर्डरूम में ताकत किसके हाथ में होती है और इन बड़ी कंपनियों में फैसले कौन लेता है, यह कैसे तय होता है? क्या यह व्यक्ति की योग्यता पर निर्भर करता है या फिर उसकी सामाजिक पृष्ठभूमि अहम भूमिका निभाती है?
डार्मश्टाट यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नोलॉजी के एमेरिटस प्रोफेसर और समाजशास्त्री मिशाएल हार्टमान ने पिछले 150 वर्षों के जर्मनी के कार्यकारी वर्ग के लोगों के बारे में गहन अध्ययन किया है. उनके शोध का मुख्य उद्देश्य यह पता लगाना था कि कौन लोग कंपनियों में बड़े पदों पर पहुंचते हैं और इसके पीछे की वजह क्या है.
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हार्टमान ने डीडब्ल्यू को बताया कि इस शोध के नतीजों ने उन्हें चौंका दिया. वह कहते हैं, "आज भी, जर्मनी के आर्थिक अभिजात वर्ग (अमीर और प्रभावशाली लोग) के 80 फीसदी से ज्यादा लोग आबादी के शीर्ष 3 से 4 फीसदी समूह से आते हैं.”
उन्होंने कहा कि 1907 और 1927 के बीच थोड़ा बदलाव आया था, जब निचले तबके के ज्यादा जर्मन लोग अच्छे पदों पर काबिज होने लगे. हालांकि, उसके बाद के करीब 100 सालों में, निचले तबके से उच्च पदों तक पहुंचने वालों की संख्या में महज 2.5 फीसदी का ही इजाफा हुआ.
सभी को समान अवसर उपलब्ध कराने की पहल
पिछले एक दशक में, कंपनियों ने श्रम बाजार में सभी की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए विविधता, समानता और समावेशन (डीईआई) कार्यक्रम शुरू किया है, ताकि सभी को समान अवसर उपलब्ध कराया जा सके.
तकनीकी क्षेत्र के लॉबी समूह ‘बिटकॉम' की ओर से हाल ही में किए गए एक सर्वे के मुताबिक, जर्मनी की जिन कंपनियों में 500 या उससे ज्यादा कर्मचारी हैं उनमें से दो-तिहाई कंपनियों ने अब डीईआई के लक्ष्य तय कर लिए हैं. बाकी एक-तिहाई कंपनियां भी इस तरह की चीजें करने की सोच रही हैं या उन पर बात कर रही हैं.
हार्टमान ने बताया कि इन तमाम कोशिशों के बावजूद बड़े और प्रभावशाली पदों पर, अभी भी अभिजात वर्ग का वर्चस्व बना हुआ है. हाल के वर्षों में, कानून की वजह से अनिवार्य लैंगिक कोटे के कारण ज्यादा महिलाएं बड़े पदों पर आ पाई हैं.
वहीं दूसरी ओर, जर्मन-स्वीडिश ऑलब्राइट फाउंडेशन ने अपनी नई रिपोर्ट में मौजूदा लैंगिक असमानता की आलोचना की है. रिपोर्ट में कहा गया है, "ऊंचे पदों पर लोगों को चुनने का फैसला अभी भी ज्यादातर पुरुष ही लेते हैं, खासकर जब पर्यवेक्षी बोर्ड और कार्यकारी बोर्ड के अध्यक्ष जैसे महत्वपूर्ण पदों के लिए किसी को चुनने की बात हो. सामान्य तौर पर, जितना ऊंचा पद होता है, उतनी ही कम महिलाएं प्रतिनिधित्व करती हुई दिखती हैं.”
हार्टमान ने कहा कि जो महिलाएं शीर्ष पदों पर पहुंचती हैं वे अक्सर अपने पुरुष सहकर्मियों की तुलना में और भी ज्यादा खास सामाजिक पृष्ठभूमि से आती हैं. यह बात प्रवासी पृष्ठभूमि वाले लोगों पर भी लागू होती है. उन्होंने कहा, "मेरा मानना है कि अगर आपके सामने पहले से ही किसी तरह की ‘बाधा' है, जैसे कि आप महिला हैं या किसी और देश से आए हैं, तो आपका सोशल स्टेटस और भी ज्यादा ऊंचे दर्जे का होना चाहिए.” उन्होंने जोर देकर कहा कि ‘लोग दो बाधाओं का सामना नहीं कर सकते.'
क्या योग्यता से ज्यादा मायने रखती है सामाजिक पृष्ठभूमि
जर्मनी में वर्ग आधारित भेदभाव बहुत जल्दी शुरू हो जाता है, सबसे पहले शिक्षा के स्तर से. पढ़े-लिखे परिवारों के बच्चों को संसाधन और सहयोग आसानी से मिल जाता है, जबकि कामकाजी वर्ग के बच्चों को वही चीजें पाने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ता है. ब्रिटिश स्पेशलिस्ट रिक्रूटमेंट फर्म ‘पेज ग्रुप' ने जर्मनी में एक अध्ययन किया. इसके मुताबिक, शैक्षणिक पृष्ठभूमि वाले परिवारों के लगभग 80 फीसदी बच्चे आगे चलकर यूनिवर्सिटी में पढ़ाई करते हैं. वहीं, गैर-शैक्षणिक परिवारों से आने वाले बच्चों में यह आंकड़ा करीब 25 फीसदी है.
हार्टमान का कहना है कि बिना यूनिवर्सिटी डिग्री के कारोबार की दुनिया में ऊंचे पदों तक पहुंचना लगभग नामुमकिन है. हालांकि, जब बड़े घरानों यानी अभिजात वर्ग के बच्चे भी वही डिग्री हासिल करते हैं, तो उनके करियर की राह बाकी लोगों के मुकाबले ज्यादा तेज और आसान होती है.
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समाजशास्त्री हार्टमान ने एक शोध किया. उन्होंने जर्मनी में अकादमिक डिग्री वाले कई समूहों का विश्लेषण किया. इस दौरान उन्होंने पाया कि कुछ खास बच्चों को कॉर्पोरेट बोर्ड में जगह मिलने की संभावना बहुत ज्यादा होती है. ये वो बच्चे थे जिनके माता-पिता बड़ी कंपनियों में ऊंचे पदों पर थे और जिन्होंने खुद भी पीएचडी की थी. ऐसे बच्चों की जर्मनी की 400 सबसे बड़ी कंपनियों में से किसी एक के बोर्ड में शामिल होने की संभावना, समान डिग्री वाले कामकाजी वर्ग के बच्चों की तुलना में 17 गुना अधिक थी.
इसके अलावा, कुछ और बातें भी तय करती हैं कि कौन बड़े पदों पर पहुंचता है. उदाहरण के लिए, कोई व्यक्ति कैसे बात करता है, वह खुद को कैसे प्रस्तुत करता है, और यहां तक कि उसके शौक भी इसमें अहम भूमिका निभा सकते हैं. हार्टमान के मुताबिक, "लोगों को ऐसे लोग पसंद आते हैं जो उनकी तरह सोचते-बोलते हों और जिनकी पसंद-नापसंद उन्हीं जैसी हो.” यही बात उन बड़े अधिकारियों पर भी लागू होती है जो लोगों को नौकरी पर रखते हैं.
आगे बढ़ रहे हैं कामकाजी वर्ग के बच्चे
हार्टमान के मुताबिक, जर्मनी में हाल के वर्षों में एक अच्छी बात यह हुई है कि ऊंचे पदों पर पहुंचने वाले ऐसे लोगों की संख्या थोड़ी बढ़ी है जो कामकाजी वर्ग से आते हैं. हालांकि यह बढ़ोतरी अब भी बहुत कम है.
हार्टमान ने कहा, "यह तरक्की मध्यम वर्ग के बच्चों को पीछे धकेल कर हुई है. साधारण शब्दों में कहें, तो जब कामकाजी वर्ग का कोई बच्चा अच्छी पढ़ाई करके किसी बड़ी कंपनी के ऊंचे पद के लिए योग्य बनता है, तो वह अक्सर मध्यम वर्ग के किसी बच्चे की जगह लेता है, जैसे कि किसी अध्यापक के बच्चे की जगह.”
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कुल मिलाकर, जर्मनी की बड़ी कंपनियों में ऊंचे पदों पर बैठे लोगों में अभिजात वर्ग से आने वाले बच्चों की संख्या अब भी पहले जैसी ही बनी हुई है.
क्या कोटा तय करने से फायदा हो सकता है?
अगर किसी की पारिवारिक या सामाजिक स्थिति ही यह तय कर दे कि वह कितना आगे बढ़ पाएगा, तो यह पूरे देश के लिए नुकसानदायक होता है. पेज ग्रुप के मुताबिक, जर्मनी को हर साल जीडीपी में करीब 25 अरब यूरो का नुकसान होता है, क्योंकि सभी लोगों को बराबर मौके नहीं मिलते.
कंसल्टिंग फर्म मैकिन्जी की एक स्टडी में पाया गया कि अगर सामाजिक गतिशीलता में सुधार किया जाए यानी सभी लोगों को समान मौके उपलब्ध कराए जाएं, तो यूरोपीय संघ के 27 देशों में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 9 फीसदी या 1.3 ट्रिलियन यूरो तक बढ़ सकता है.
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हालांकि, हमारे सामने ऐसे भी उदाहरण हैं जब साधारण पृष्ठभूमि से आने वाले लोग शीर्ष पदों पर पहुंचे हैं. जैसे, सीमेंस के पुराने सीईओ जो कैसर, जिनके पिता एक फैक्ट्री में काम करते थे.
हार्टमान का कहना है कि मीडिया में ऐसी कहानियों को इतनी ज्यादा बार दिखाया जाता है कि ‘लोगों को लगने लगता है कि सामान्य लोगों के लिए भी बड़े पदों पर पहुंचना कोई बड़ी बात नहीं है', जबकि वास्तव में वे अपवाद हैं.
अब आखिरकार फिर से वही सवाल हमारे सामने आता है कि जर्मनी में अभिजात वर्ग के दबदबे को कैसे कम किया जाए? इस पर हार्टमान का कहना है कि इसका एक ही तरीका है कि कानून बनाकर कोटा तय किया जाए, जिससे हर तरह का भेदभाव और वर्ग भेद खत्म हो सके. उन्होंने माना कि यह तरीका शायद लोगों को पसंद न आए, ‘पर मेरे अनुभव से, अन्य कोई भी तरीका सफल नहीं होगा.'