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जर्मनी की मध्य-पूर्व नीति के दिन लद गए हैं?

क्रिस्टॉफ हासेलबाख
२ फ़रवरी २०२४

इस्राएल के प्रधानमंत्री बेन्यामिन नेतन्याहू ने 'दो-राष्ट्र सिद्धांत' सिरे से खारिज किया है. जर्मनी इसकी सलाह देता आया है. क्या जर्मनी की मध्य-पूर्व नीति के दिन लद गए हैं?

Ägypten | Außenministerin Baerbock am Grenzübergang in Rafah
गाजा पट्टी में जर्मन विदेश मंत्री एनालेना बेयरबॉक. उनका मिशन लगातार कठिन होता जा रहा है.तस्वीर: Michael Kappeler/dpa/picture alliance

इस्राएली प्रधानमंत्री बेन्यामिन नेतन्याहू ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपने सबसे करीबी सहयोगियों से अलग जाते हुए फलस्तीन पर 'दो-राष्ट्र सिद्धांत' की संभावना साफ खारिज की है. दो-राष्ट्र सिद्धांत, इस्राएल के पास आजाद और लोकतांत्रिक फलस्तीनी राष्ट्र का सुझाव देता है.

नेतन्याहू ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर लिखा, "मैं जॉर्डन नदी के पश्चिम में पूरे इलाके पर इस्राएली सुरक्षाबलों के पूरे नियंत्रण से बिल्कुल समझौता नहीं करूंगा. यह फलस्तीनी राष्ट्र से विपरीत बात है." नेतन्याहू ने अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन को भी फोन पर यही बताया.

अमेरिका, जर्मनी और यूरोपीय संघ मध्य-पूर्व में शांति लाने के जो प्रयास कर रहे हैं, 'दो-राष्ट्र सिद्धांत' उसकी आधारशिला है. जर्मनी की विदेशमंत्री अनालेना बेयरबॉक 'दो-राष्ट्र सिद्धांत' को इकलौता समाधान बता चुकी हैं. दिसंबर में बेयरबॉक ने कहा था, "अगर आतंकवाद से छुटकारा नहीं पाया गया, तो इस्राएल कभी सुरक्षित नहीं रह पाएगा. इसी वजह से इस्राएल की सुरक्षा तभी सुनिश्चित होगी, जब फलस्तीनी भी भविष्य की ओर देख पाएंगे."

गैर-लाभकारी संगठन 'काउंटर एक्स्ट्रीमिज्म प्रोजेक्ट' में मध्य-पूर्व के विश्लेषक हांस जैकब शिंडलर ने डीडब्ल्यू से कहा कि जर्मनी बस बार-बार यह सुझाव दे ही सकता है. शिंडलर मानते हैं कि गाजा पट्टी में इस्राएली पुनर्वास की जिस योजना का इस्राएल के दो कैबिनेट मंत्रियों ने सार्वजनिक रूप से समर्थन किया था, "वही भविष्य में गाजा और शायद सभी फलस्तीनियों में इस्लामी चरमपंथ पर सुरक्षित रूप से नकेल कसने का पक्का उपाय होगा".

इस्राएली प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू ने दो राष्ट्र सिद्धांत को दो टूक खारिज किया है.तस्वीर: Ohad Zwigenberg/AP/dpa/picture alliance

महमूद अब्बास के नेतृत्व वाला फलस्तीनी प्रशासन 'दो-राष्ट्र सिद्धांत' का समर्थन करता है, लेकिन हमास इसे खारिज करता है. फलस्तीनी उग्रवादी संगठन हमास इस्राएल को मान्यता देने से इनकार करता है. जर्मनी, यूरोपीय संघ, अमेरिका और अरब के कुछ देशों ने हमास को आतंकवादी संगठन करार दिया है.

हमास के पूर्व नेता खालिद माशल ने कहा है कि 7 अक्टूबर को जो आतंकी हमला हुआ, जिसमें इस्राएली अधिकारियों के मुताबिक 1,200 लोग मारे गए और 240 अगवा कर लिए गए, वह तो बस शुरुआत थी. एक कुवैती पॉडकास्टर से बातचीत में माशल ने कहा कि "उस दिन से फलस्तीन को आजाद कराने का खयाल हकीकत बन गया और यह शुरू भी हो चुका है." माशल ने जॉर्डन नदी और भू-मध्य सागर का जिक्र करते हुए वह जुमला इस्तेमाल किया, जिसे जर्मनी में गैर-कानूनी बनाया जा चुका है.

'दो-राष्ट्र सिद्धांत' में कितनी संभावना है?

ये दो स्थितियां जर्मनी की मध्य-पूर्व नीति के लिए परेशानी हैं. यह बहुत हद तक इस बात पर निर्भर है कि संघर्ष में शामिल पक्ष समझौते के इच्छुक हैं भी या नहीं. जर्मनी घिरी हुई गाजा पट्टी में हमास के खिलाफ जंग में इस्राएल का समर्थन करता है. बेयरबॉक ने इस्राएल से नागरिकों की रक्षा की अपील भी की है. गाजा में हमास के नेतृत्व वाले स्वास्थ्य मंत्रालय के मुताबिक, इस्राएली हमलों में अब तक 26,000 से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं.

इतिहासकार मिषाएल वोल्फसोन जर्मनी के सार्वजनिक रेडियो एकडब्ल्यूआर के साथ बातचीत में कहते हैं कि 'दो राष्ट्र सिद्धांत' का समर्थन करना हकीकत को बिल्कुल अनदेखा करना है. वह पूछते हैं कि "दो-राष्ट्र सिद्धांत को जमीन पर कैसे उतारा जा सकता है" और मानते हैं कि "यह योजना बकवास है, जो पूरी नहीं की जा सकती." वोल्फसोन गाजा, वेस्ट बैंक और जॉर्डन के संभावित संघ का सुझाव देते हैं. किसी देश ने हाल में इस विचार का समर्थन नहीं किया है. वहीं मिस्र के राजनयिक और 'इंटरनेशनल अटॉमिक एनर्जी एजेंसी' के पूर्व प्रमुख मोहम्मद अल-बरदेई ने पश्चिम को पाखंडी कहा है.

जनवरी के अंत में अल-बारदेई ने 'इंटरनेशनल पॉलिटिक्स एंड सोसायटी' जर्नल के जर्मन अंक में लिखा, "अब जो नेता 'दो-राष्ट्र सिद्धांत' की वकालत कर रहे हैं, वे तब चुप्पी साधे रहे, जब इस्राएल ने फलस्तीनी राष्ट्र के लिए इच्छित अधिकांश इलाके पर कब्जा कर लिया. अभी जारी हिंसा के बाद आने वाला वक्त संभवत: पूरे क्षेत्र को उचित और टिकाऊ शांति का आखिरी मौका देगा... इससे पहले कि यह पूरा क्षेत्र राख हो जाए."

यूएनआरडब्ल्यूए पर आरोप

फलस्तीनी शरणार्थियों के लिए संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूएनआरडब्ल्यूए पर हाल में जो आरोप लगे, उन्होंने जर्मनी की मध्य-पूर्व कूटनीति को और मुश्किल में डाल दिया है. जर्मनी, गाजा में लंबे वक्त से जूझते आम लोगों की हालत सुधारने के लिए यूएनआरडब्ल्यूए की खुले दिल से मदद करता आ रहा है.

फिर 7 अक्टूबर को इस्राएल पर हुए आतंकी हमले में यूएनआरडब्ल्यूए के ही कुछ कर्मचारियों के शामिल होने के आरोपों के बाद जर्मनी समेत कई पश्चिमी देशों ने फंडिंग रोक दी है. आलोचक कह रहे हैं कि जर्मन सरकार वर्षों तक यह निगरानी करने में विफल रही कि संयुक्त राष्ट्र को दिए जा रहे पैसे किस तरह खर्च किए जा रहे हैं.

30 जनवरी, 2024 को वाशिंगटन में 'ओवरसाइट ऐंड अकाउंटबिलिटी ऑफ हाउस फॉरेन अफेयर्स कमिटी' की सब-कमिटी के सामने सुनवाई के दौरान UN वॉच के एग्जिक्यूटिव डायरेक्टर हिलेल नुयेर.तस्वीर: Alex Wong/AFP/Getty Images

शिंडलर यूएनआरडब्ल्यूए को 'टेढ़ा संगठन' बताते हैं, लेकिन कहते हैं कि "गाजा पट्टी में बस यही इकलौता मानवीय इन्फ्रास्ट्रक्चर है". वह कहते हैं, "इसकी चुनौती यह है कि इसे गाजा पट्टी में रोजाना हमास से निपटना होता है और फिर साफ बात है कि इस तरह की चीजें भी हो सकती हैं."

यूएनआरडब्ल्यूए जितना अनुभव, फंडिंग और कर्मचारी किसी और संगठन के पास नहीं हैं. शिंडलर कहते हैं कि 'इसका कोई विकल्प नहीं है'. वह रेखांकित करते हैं कि इस्राएल ने भी कोई नाम नहीं दिया है, जो गाजा में यूएनआरडब्ल्यूए के मानवीय कार्यों की जगह ले सकता हो.

इस्राएल को जर्मनी के समर्थन में लगातार चुनौतियां आ रही हैं. दक्षिण अफ्रीका ने हेग स्थित इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस में इस्राएल पर गाजा में फलस्तीनियों के नरसंहार का आरोप लगाया है. इसका फैसला आने में बरसों लग सकते हैं. फिर भी संयुक्त राष्ट्र की शीर्ष अदालत ने शुरुआती उपायों के तहत इस्राएल को आदेश दिया है कि वह गाजा हमले में नरसंहार के कृत्यों को पूरी ताकत से रोके.

जर्मनी ने इस मामले में इस्राएल की ओर से तीसरे पक्ष के रूप में हस्तक्षेप किया है. जर्मन सरकार के प्रवक्ता श्टेफन हीबश्ट्राइट ने कहा, "अपने अतीत की वजह से, यहूदी नरसंहार की वजह से हम इस मुद्दे की करीब से जांच करने के लिए खुद को खासतौर से बाध्य पाते हैं. हम इस बात से सहमत नहीं हैं कि पेश किए गए तर्क नरसंहार के आरोप को सिद्ध करते हैं."

जानकार मानते हैं कि मध्य-पूर्व से जुड़े मामलों में जर्मनी का प्रभाव काफी कम हो गया है.तस्वीर: Kay Nietfeld/dpa/picture alliance

उपेक्षित मध्य-पूर्व नीति

मध्य-पूर्व में हालात जैसे-जैसे मुश्किल हो रहे हैं, वैसे-वैसे पश्चिमी राजनयिकों की कोशिशों की संभावना भी सिकुड़ रही है. इतिहासकार मिषाएल वोल्फसोन के मुताबिक, अमेरिका समेत पश्चिमी देशों का इस्राएल पर कोई जोर नहीं रह गया है, जिसके जरिए दो-राष्ट्र समाधान हासिल किया जा सके.

एसडब्ल्यूआर से बातचीत में वोल्फसोन ने कहा, "अमेरिका और अन्य देशों के लिए मध्य-पूर्व भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक रूप से बेहद जरूरी ब्लॉक है. आप पसंद करें या न करें, लेकिन इस्राएल मध्य-पूर्व में अमेरिका का इकलौता भरोसेमंद सहयोगी है. इसी तरह यूरोपीय संघ की संभावनाएं भी सीमित ही हैं. आतंकवाद के खिलाफ जंग और सेना से जुड़ी तकनीक, दोनों ही क्षेत्रों में यूरोपीय संघ को इस्राएल की जरूरत है."

शिंडलर कहते हैं कि जर्मन कूटनीति ने तो खासकर बहुत पहले ही अहम भूमिका निभाना बंद कर दिया था. इसका लेना-देना इस्राएल को समर्थन देने से कम और इस बात से ज्यादा है कि बतौर मध्यस्थ जर्मनी बहुत लंबे वक्त तक बहुत ज्यादा संकोच करता रहा.

शिंडलर 'मिडल ईस्ट क्वॉर्टेट' में जर्मनी की भूमिका याद करते हैं. अमेरिका, रूस, यूरोपीय संघ और संयुक्त राष्ट्र का यह साझा संगठन बरसों से इस क्षेत्र में मध्यस्थता की मांग कर रहा है. शिंडलर कहते हैं, "यह चौकड़ी धीरे-धीरे शांत मौत मर गई. फलस्तीनी मुद्दे को किनारे लगा दिया गया. सभी पक्षों ने पिछले कुछ वर्षों में इसे किनारे लगा दिया."

हम हमास का नामोनिशान मिटा देंगे: इस्राएल

04:31

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