अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप अफगानिस्तान में और अमेरिकी सैनिकों को तैनात करेंगे. इस घोषणा से नाटो के बाकी सदस्य देशों पर भी इस रास्ते पर चलने का दबाव बना है. हालांकि जर्मनी वहां और सैनिक टुकड़ियां नहीं बढ़ाना चाहता.
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अफगानिस्तान पर अमेरिकी आक्रमण को 16 साल बीत गये हैं. युद्ध प्रभावित यह देश आज भी इस्लामी आतंक की चपेट में है. वहां लगातार आतंकी हमले होते रहते हैं.
अफगानिस्तान का अंतहीन संघर्ष
अफगानिस्तान पर अमेरिकी आक्रमण को 16 साल बीत गये हैं. युद्ध प्रभावित यह देश आज भी इस्लामी आतंक की चपेट में है. वहां लगातार आतंकी हमले होते रहते हैं.
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'ग्रीन जोन'
काबुल के सबसे सुरक्षित माने जाने वाले इलाके डिप्लोमैटिक क्वार्टर में घुसकर 31 मई को आतंकियों ने बड़ा धमाका किया. कम से कम 90 लोगों की जान गयी. जर्मन दूतावास को खासतौर पर नुकसान पहुंचा. इसकी जिम्मेदारी किसी ने भी नहीं ली है.
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हमलों की लंबी श्रृंखला
अफगान राजधानी पर पहले भी ऐसे हमले होते आये हैं. मई में इसके पहले भी आईएस के एक हमले में आठ विदेशी सैनिक मारे गये थे. मार्च में विद्रोहियों के एक हमले में अफगान सेना के अस्पताल में कम से कम 38 लोगों की जान गयी थी.
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"ऑपरेशन मंसूर"
इसी साल अप्रैल में अफगान तालिबान ने प्रण लिया था कि वे अफगान सुरक्षा बलों और गठबंधन सेनाओं पर हमले तेज करेंगे. इसे वे सालाना वसंत आक्रमण कहते हैं, जिसे उन्होंने "ऑपरेशन मंसूर" नाम दिया. मंसूर तालिबानी नेता था, जो 2016 में अमेरिकी ड्रोन हमले में मारा गया.
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ट्रंप की अफगान नीति
अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने अब तक इसकी घोषणा नहीं की है. लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि उनकी नीति काफी हद तक पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा जैसी ही होगी. वे भी अफगान सरकार और तालिबान के बीच सुलह का रास्ता चाहेंगे.
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अफगान शांति प्रक्रिया
अफगानिस्तान पर्यवेक्षक कहते हैं कि आतंकी समूह इस समय शांति वार्ता में दिलचस्पी नहीं दिखाएगा क्योंकि फिलहाल वे अफगान सरकार पर भारी पड़ रहे हैं. 2001 के बाद से इस समय उनके कब्जे में सबसे ज्यादा अफगान जिले हैं.
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पाकिस्तानी मदद
पाकिस्तान पर आरोप लगते हैं कि वह तालिबान का इस्तेमाल कर अफगानिस्तान में भारत का असर कम करना चाहता है. हाल ही में पाकिस्तान तालिबान के पूर्व प्रवक्ता एहसानुल्लाह एहसन (तस्वीर में) पकड़ा गया लेकिन फिर पाकिस्तान ने उसे माफ कर दिया जब उसने भारत पर तालिबान की मदद का आरोप लगाया.
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वारलॉर्ड्स की भूमिका
तालिबान के अलावा अफगान वारलॉर्ड्स का आज भी देश में काफी प्रभाव है. 20 साल बाद हिज्बे इस्लामी के नेता गुलबुद्दीन हिकमत्यार राजनीति में कदम रखने के लिए काबुल लौटे. सितंबर 2016 में अफगान सरकार ने उनके साथ समझौता किया ताकि दूसरे वारलॉर्ड्स और आतंकी समूह अफगान सरकार के साथ काम करें.
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जुड़े हैं रूस के हित
रूस ने अफगानिस्तान के साथ अपने संबंध प्रगाढ़ करने पर ध्यान दिया है. कई सालों तक दूरी बनाये रखने के बाद अब रूस अफगानिस्तान पर "उदासीन" रवैया नहीं रखना चाहता. रूस ने अफगानिस्तान में कई वार्ताएं आयोजित कीं, जिसमें चीन, पाकिस्तान और ईरान को शामिल किया.
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अप्रभावी सरकार
राष्ट्रपति अशरफ गनी को व्यापक समर्थन हासिल नहीं है और अफगान सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहते हैं. देश में सत्ता हथियाने को लेकर एक अंतहीन सा दिखने वाला संघर्ष जारी है. (शामिल शम्स/आरपी)