ग्लोबल वॉर्मिंग के साथ जंगलों में आग लगने की घटनाएं बढ़ रही हैं. इससे निकला धुआं केवल प्रकृति और आबोहवा के लिए ही नहीं, इंसानी सेहत के लिए भी खतरनाक है. इस धुएं में सांस लेने के कारण हर साल हजारों मौतें हो रही हैं.
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दुनियाभर के जंगलों में बढ़ती आग से ग्लोबल वॉर्मिंग और कार्बन उत्सर्जन का संकट और अधिक गहराता जा रहा है. इसकी वजह से हो रहे वायु प्रदूषण के कारण भी लाखों लोगों की जान खतरे में है. 'नेचर क्लाइमेट चेंज' नाम के जर्नल में प्रकाशित दो अध्ययनों में जंगलों की आग से बढ़ते ग्लोबल वॉर्मिंग के खतरे और स्वास्थ्य पर पड़ रहे प्रभावों के बारे में बताया गया है. ये अध्ययन पोट्सडैम इंस्टिट्यूट फॉर क्लाइमेट इंपैक्ट रिसर्च (पीआईके) की ओर से प्रकाशित किए गए हैं.
बर्लिन की फ्राय यूनिवर्सिटी के सेप्पे लांप इनमें से एक अध्ययन के मुख्य शोधकर्ता हैं. उनके अध्ययन से पता चला कि बीते कुछ दशकों में आग लगे हुए क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन का असर अधिक हुआ है. जापान के सुकुबा में स्थित नेशनल इंस्टिट्यूट फॉर इंडस्ट्रियल साइंस एंड टेक्नोलॉजी के चाई योन पार्क ने दूसरे अध्ययन में मुख्य भूमिका निभाई है. उन्होंने आग लगने से स्वास्थ्य पर पड़ रहे प्रभावों की जांच की है.
जलवायु परिवर्तन का असर
पहला अध्ययन यह उजागर करता है कि हाल के दशकों में जलवायु परिवर्तन के चलते आग लगने वाले इलाकों की तादाद बढ़ी है. 2003 से 2019 के बीच बिना जलवायु परिवर्तन वाले प्रभाव की तुलना में 16 फीसदी अधिक वन आग की चपेट में आए. अध्ययन के अनुसार ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अमेरिका, उत्तरी अमेरिका के पश्चिमी इलाके और साइबेरिया को विशेष रूप से इसका नुकसान उठाना पड़ रहा है. हालांकि इस अवधि में आग की चपेट में आने वाले इलाकों का दायरा 19 प्रतिशत घट गया. इसके पीछे मुख्य वजह वन क्षेत्र में कृषि और अन्य उपयोग के लिए होने वाला रूपांतरण जिम्मेदार है, जिसकी वजह से आग को फैलने की जगह नहीं मिल पाई.
'ना पीने वाले' जीव कोआला का जीना मुश्किल कर रही है बढ़ती गर्मी
खिलौने सा दिखने वाला बड़ा प्यारा जीव है कोआला. सलेटी-सफेद रंग, काली नाक, पनीली सी आंखों वाले इस जीव को लंबी गर्मियां और बढ़ता तापमान बहुत नुकसान पहुंचा सकती हैं.
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कोआला माने वो, जो पीता नहीं
माना जाता है कि 'कोआला' शब्द ऑस्ट्रेलिया के मूलनिवासियों की एक भाषा से निकला है, जिसका मतलब होता है ना पीने वाला. अपनी कुदरती आबोहवा में रहने वाले कोआला पानी पीते नहीं दिखते. शरीर में पानी की जरूरत वो ज्यादातर पत्तियां खाकर पूरी करते हैं.
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क्या है कोआला का पसंदीदा खाना
यूकेलिप्टस के ताजे पत्ते कोआला का मुख्य आहार भी हैं और पसंदीदा खाना भी. यूनिवर्सिटी ऑफ सिडनी के मुताबिक, कुदरती आवास में रहने वाला एक कोआला दिनभर में यूकेलिप्टस के 510 ग्राम ताजा पत्ते खाता है. इससे उसे अपनी दैनिक पानी की खुराक का करीब 75 फीसदी हिस्सा मिल जाता है.
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बदलती जलवायु का असर
अगर कभी जंगल में आग लग जाए या बहुत तेज गर्मी हो, तो जरूरत पड़ने पर कोआला पानी पी सकते हैं. हालांकि, जलवायु संकट के कारण अब ऐसे हालात अकसर बनने लगे हैं. वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फाउंडेशन के मुताबिक, अब कोआला को पानी पीते देखना ज्यादा आम होता जा रहा है. लंबी गर्मियों और सूखे के कारण पत्तियों से मिलने वाला पानी और पोषण घटता जा रहा है.
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कोआला को भी बारिश की जरूरत
2020 में छपी एक स्टडी में शोधकर्ताओं ने बताया कि उन्होंने पहली बार जंगल में कोआला के पानी पीने के बर्ताव को करीब से देखा. पाया गया कि बारिश का पानी पेड़ के तने से होकर बहता है, तो कोआला इसे चाटते हैं. इसके लिए वो चिकने तने खोजते हैं.
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सूखे का संकट
कोआला, ऑस्ट्रेलिया के बाशिंदे हैं. यहां भी वो केवल देश के दक्षिणपूर्वी और पूर्वी हिस्सों में पाए जाते हैं. 70 फीसदी ऑस्ट्रेलिया शुष्क से अर्ध-शुष्क इलाका है. बारिश भी कम होती है. बीते सालों में ऑस्ट्रेलिया लंबी अवधि के सूखे का सामना करता रहा है. ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने भविष्य में भी इसके जारी रहने का अनुमान जताया. उनके मुताबिक, ऑस्ट्रेलिया पर 'मेगाड्राउट' का जोखिम है.
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घर छिन जाएगा, खाना गुम हो जाएगा...
भीषण सूखे की यह स्थिति दो दशक लंबी खिंच सकती है. जलवायु संकट के कारण सूखे की स्थितियां कहीं बदतर हो सकती हैं. इसका कोआला जैसे संवेदनशील जीवों पर काफी गंभीर असर पड़ सकता है. पहले से ही सिकुड़ता उनका प्राकृतिक आवास और खाने के स्रोत और ज्यादा कम हो सकते हैं.
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जंगल की आग
जंगल की आग जैसी आपदाएं नियमित हो गई हैं. डब्ल्यूडब्ल्यूएफ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2019-20 में बड़े स्तर पर लगी आग के कारण ऑस्ट्रेलिया में करीब 300 करोड़ जीव या तो मारे गए या अपना ठिकाना खो बैठे. इनमें 61,000 से ज्यादा कोआला भी थे. नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन की एक रिपोर्ट के मुताबिक, जंगल की आग से कोआला को खासतौर पर नुकसान पहुंचा और उन्हें बड़ी संख्या में पुनर्वास की जरूरत पड़ी.
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कितने कोआला हैं अभी
इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजरवेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) के 2024 के आंकड़ों के मुताबिक, कोआला की मौजूदा आबादी एक लाख से पांच लाख के बीच हो सकती है. कुदरती परिवेश में रहने वाले कोआलाओं को देख पाना बहुत आसान नहीं होता, ऐसे में उनकी सटीक गिनती बहुत मुश्किल है. आईयूसीएन ने कोआला को "वलनरेबल" की श्रेणी में रखा है. ऑस्ट्रेलिया के पर्यावरण सुरक्षा और जैव विविधता कानून में इसे "संकटग्रस्त" श्रेणी में रखा गया है.
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गुंथी हुई हैं दिक्कतें
इंटरनेशनल फंड फॉर एनिमल वेलफेयर के मुताबिक, पहले ऑस्ट्रेलिया में कई लाख कोआला रहते थे. अब क्वीन्सलैंड और न्यू साउथ वेल्स जैसे इलाकों में उनकी संख्या कम होती जा रही है. संगठन के मुताबिक, कई इलाके तो ऐसे हैं कि वहां अगर आपको जंगल में कोआला दिख जाएं, तो खुद को खुशकिस्मत समझिए. कुदरती बसाहट का खत्म होना, कम बरसात, सूखा, जंगल की आग, फैलते शहर... ये सभी कोआला जैसे कई जीवों के लिए दुष्चक्र की तरह है.
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ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण आग की तीव्रता बढ़ गई है. शोधकर्ताओं का कहना है कि गर्मी और सूखा न केवल जंगलों में आग भड़काते हैं, बल्कि जंगलों में आग लगने का जोखिम भी बढ़ा देते हैं.
धुएं से हो रही हैं अधिक मौतें
आग से धुआं उठता है और उससे निकलने वाले पार्टीकुलेट मैटर फेफड़ों में आसानी से चले जाते हैं और कभी-कभी खून में भी मिल जाते हैं. ताजा रिसर्च में पाया गया कि आग के कारण हुए वायु प्रदूषण से होने वाली मौतों की संख्या तेजी से बढ़ी है. 1960 के दशक में इस तरह की मौतों की संख्या 46,400 प्रति वर्ष थी, जो 2010 के दशक में 98,750 तक पहुंच गई.
अध्ययन के अनुसार आग-जनित वायु प्रदूषण से 2010 के दशक में हर साल करीब 12,500 मौतें दर्ज की गईं जबकि 1960 के दशक में इससे होने वाली मौतों का यह आंकड़ा सालाना 670 था. यानी इसमें बहुत भारी इजाफा हुआ है. इससे दक्षिण अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और यूरोप खास तौर पर प्रभावित हुए.
अभूतपूर्व रफ्तार से पिघल रहे हैं एंडीज पर्वतमाला के ग्लेशियर
एंडीज पर्वतमाला पर जलवायु परिवर्तन का बहुत गहरा असर दिख रहा है. यहां बहुत नाटकीय तेजी से ग्लेशियर पिघल रहे हैं, जिसकी वजह से लोगों की जीवनशैली भी बदल रही है.
तस्वीर: Ivan Alvarado/REUTERS
पिघलती खूबसूरती
अमेरिका के ये सबसे ऊंचे पहाड़ पेरू के उत्तरी एंडीज में कॉर्डिएरा ब्लैंका रेंज में पाए जाते हैं. करीब 22 हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित चोटियों की बर्फ भी खतरे में है. बढ़ते तापमान से ग्लेशियर और पर्माफ्रॉस्ट पिघल रहे हैं. इसके कारण बाढ़ और भूस्खलन का खतरा बढ़ गया है. लाखों लोगों के आगे पीने के पानी का संकट खड़ा हो सकता है.
तस्वीर: REUTERS
ऊंची चोटियां, तापमान ज्यादा
हुआस्करन नेशनल पार्क में नेवादो पास्तोरूरी के ग्लेशियर भी तेजी से गायब हो रहे हैं. एक बहुराष्ट्रीय शोध के मुताबिक, नई सदी के इन 24 सालों के दौरान एंडीज में 1,000 से 1,500 फीट की ऊंचाई पर दिन के समय के 'विंटर सरफेस टेंपरेचर' में प्रति दशक 0.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है. 5,000 मीटर से अधिक की ऊंचाई पर यह वृद्धि 1.7 डिग्री सेल्सियस तक है.
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बदलता परिवेश
पेरू के माटियो पर्वत में गर्मी के कारण झीलें बन गई हैं. कुछ वर्ष पहले तक यहां पर्वतारोहियों को पहाड़ की चोटी तक पहुंचने के लिए ग्लेशियर पार करना पड़ता था. अब बस एक चट्टानी ढाल ही है, जिसे पार करके लोग चोटी पर पहुंचते हैं.
तस्वीर: Angela Ponce/REUTERS
समझ से परे है यह बदलाव
चिली के सिविल इंजीनियर पाब्लो वेन्स्टाइन ने एंडीज के ग्लेशियरों और आर्कटिक का दो दशक तक अध्ययन किया है. उन्होंने रॉयटर्स न्यूज एजेंसी को बताया, "ये बदलाव जो हम देख रहे हैं, वो हालिया मानव इतिहास में 'अभूतपूर्व' हैं." इन ग्लेशियरों पर बहुत कम अध्ययन हुआ है क्योंकि यह पर्वत शृंखला बहुत बड़ी और दूर तक फैली है.
तस्वीर: Angela Ponce/REUTERS
सामान्य नहीं है 5,000 हजार मीटर की ऊंचाई पर बारिश
एंडीज, ताजे पानी का अहम स्रोत है. सर्दियों में ग्लेशियर पर बर्फ जमती है, जो बसंत आने पर पिघलकर पानी बन जाती है. अब पेरू में बहुत ऊंचाई के इलाकों में भी बारिश होती है, जैसे कि यहां नेवादो पास्तोरूरी में. हुआस्करन के पार्क रेंजर एडसन रेमिरेज बताते हैं, "5,000 मीटर की ऊंचाई पर बरसात होना प्राकृतिक या सामान्य नहीं है. यह संकेत है कि तापमान पूरी तरह से बदल गया है."
तस्वीर: Angela Ponce/REUTERS
एक चोटी जिसमें लोगों की आस्था थी, ढह गई
यहां से दक्षिण की ओर करीब 2,000 किलोमीटर की दूरी पर भी यही हाल है. चिली की अल प्लोमो चोटी 5,400 मीटर ऊंची है. साफ दिनों में इसे राजधानी सैंटियागो से भी देखा जा सकता है, जो कि नजदीक ही है. सदियों से यहां लोगों की इस चोटी में आस्था रही है. इंका सभ्यता के लोग तो इसे समर्पित करते हुए इंसानी बलि भी देते थे. अब एल प्लोमो की बर्फ पर जलवायु परिवर्तन का असर दिख रहा है.
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रोजी-रोटी पर खतरा
खच्चर चलाने वाले फ्रांसिस्को गैलार्डो ने रॉयटर्स को बताया, "हर साल चीजें बदल रही हैं. हर साल दुख बढ़ रहा है." वह 14 साल की उम्र से ही एल प्लोमो पर काम कर रहे हैं. वह पर्वतारोहियों को चोटी से लगभग 1,300 मीटर नीचे बेस कैंप तक पहुंचाने में मदद करते हैं. 60 वर्षीय गैलार्डो को डर है कि अब वह और उनका परिवार कुछ ही सालों तक यहां रह पाएंगे. फिर मजबूरी में उन्हें बाहर निकलकर नया काम खोजना पड़ेगा.
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ग्लेशियर से वनों तक
ऑस्वाल्डो सेगुंडो विलेगास 50 वर्षों से एल प्लोमो पर फंसे लोगों को बचाकर लाने का काम कर रहे हैं. 1972 में सैंटियागो जाते समय उरुग्वे की रग्बी टीम का विमान एंडीज में दुर्घटनाग्रस्त हुआ था. तब भी रेस्क्यू करने वालों में विलेगास शामिल थे. वह चेताते हैं, "पेटागोनिया में ऐसी जगहें थीं, जहां पहले जब मैं गया तो वहां समूची जगह ग्लेशियर थे. अब वहां जंगल है. यहां भी ऐसा ही होने वाला है."
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चट्टानों का गिरना पारंपरिक रास्तों के लिए जोखिम भरा
सेंटियागो के पास लो कुर्रो चोटी तक जाने का रास्ता आज भी वही है, जिनका इस्तेमाल कभी इंका सभ्यता के लोग करते थे. पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने के कारण चट्टानों के गिरने और भूस्खलन का जोखिम बढ़ गया है. यहां सोकोरो एडिनो पर्वत में काम करने वाले बचाव दल के वॉलिंटियर इस चीज का अभ्यास करते हैं कि गिरती हुई चट्टान से खुद को सुरक्षित रखते हुए लोगों को हिफाजत के साथ कैसे वापस लाया जाए.
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चाई योन पार्क ने डीपीए एजेंसी को बताया, "जलवायु परिवर्तन लोगों के स्वास्थ्य पर खतरा लगातार बढ़ा रहा है क्योंकि धुआं घनी आबादी में अधिक असर डालता है." हालांकि अध्ययन यह भी कहता है कि इसमें दक्षिण एशिया जैसे कुछ अपवाद भी हैं, जहां जलवायु परिवर्तन के कारण नमी बढ़ी और इस वजह से आग से जुड़ी घटनाओं में कम लोगों की मौत हुई.
यह विश्लेषण महामारी अध्ययन से जुड़ा हुआ है, जो पार्टिकुलेट मैटर पॉल्यूशन जैसे जोखिम कारकों और और कार्डियोवैस्कुलर बीमारियों जैसे स्वास्थ्य प्रभावों के बीच सांख्यिकीय संबंधों की पड़ताल करता है. हालांकि अध्ययन अंतरसंबंधों को तो स्थापित करते हैं, लेकिन मौतों की संख्या के मामले में उतने प्रभावी नहीं है. यह मुख्य रूप से सांख्यिकीय अनुमानों पर जाकर खत्म होते हैं. इनसे क्लिनिकली चिन्हित मौतों का कोई सटीक आंकड़ा नहीं मिलता है. यही कारण है कि जो वास्तविक संख्या है उसमें विसंगति या अंतर देखने को मिल सकता है.
इन दोनों अध्ययनों के निष्कर्ष हाल ही में साइंस नाम के जर्नल में छपी एक स्टडी से मेल खाते हैं. एक अंतरराष्ट्रीय रिसर्च टीम द्वारा किए गए इस शोध के मुताबिक, जंगल की आग का स्वभाव तेजी से बदल रहा है. उष्णकटिबंधीय घास के मैदानों की जगह अब ये जंगलों को अपनी जद में ले रहे हैं. जंगल ज्यादा बड़े स्तर पर आग पकड़ते हैं और इनसे काफी बड़ी मात्रा में धुआं निकलता है, जो कि सेहत के लिए बहुत नुकसानदेह है. यह बदलाव इंसानी सेहत के लिए बड़ा जोखिम है.
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भारत के जंगलों में खतरे की घंटी
भारत में भी गर्मी के मौसम में अलग-अलग क्षेत्रों के जंगलों में आग भड़कती है. उत्तराखंड वन विभाग के आंकड़े बताते हैं कि नवंबर 2023 से अप्रैल 2024 के बीच आग की 606 घटनाएं सामने आईं. इसके कारण 700 हेक्टेयर से अधिक वन्य क्षेत्र प्रभावित हुआ.
आग से आग बुझाने का तरीका सीख रही हैं ये महिलाएं
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राज्य में बीते 10 वर्षों में जंगलों में आग लगने की 14,000 से भी अधिक घटनाएं सामने आ चुकी हैं. इससे 23 हजार हेक्टेयर के इलाके में वन संपदा का नुकसान हुआ है. भारतीय वन सर्वेक्षण की 2021 की रिपोर्ट में कहा गया कि भारत के कुल वन क्षेत्र के लगभग 36 फीसदी हिस्से में अक्सर आग लगने का खतरा होता है. इनमें चार प्रतिशत हिस्सा 'अत्यधिक खतरे' और छह फीसदी हिस्सा 'बहुत ज्यादा खतरे' वाली श्रेणी में रखा गया है.
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ फॉरेस्ट मैनेजमेंट और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) इंदौर ने 22 वर्षों के आंकड़ों का विश्लेषण कर एक अध्ययन किया है. इसमें यह पता चला है कि मध्य भारत के खंडवा के 45 प्रतिशत और 50 प्रतिशत उत्तरी बैतूल के जंगलों में आग लगने का खतरा सबसे अधिक है. यह अध्ययन अगस्त 2024 में एनवायरनमेंट मॉनिटरिंग एंड असेस्मेंट नाम के जर्नल में प्रकाशित हुआ है.