दुनिया भर में पानी का संकट विकराल होता जा रहा है. यूएन की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक आने वाले दशकों में सबसे ज्यादा मुसीबत भारतीय शहर झेलेंगे. इस जल संकट को टालने के लिए अभूतपूर्व वॉटर कॉन्फ्रेंस हो रही है.
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7.8 अरब की इंसानी आबादी वाली धरती में पानी की खपत लगतार बढ़ रही है. विश्व जल दिवस के मौके पर आई यूनेस्को की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक इस वक्त दुनिया की 10 फीसदी आबादी गंभीर जल संकट का सामना कर रही है. यह संकट समय बीतने के साथ गहराता जा रहा है. यही हालात रहे तो 2050 तक शहरों में रहने वाले 1.7 अरब से 2.4 अरब इंसानों को पानी के लिए बेहद परेशान होना पड़ेगा. इसकी सबसे ज्यादा मार भारतीय शहरों पर पड़ेगी.
फिलहाल कृषि क्षेत्र पानी की सबसे ज्यादा खपत करता है. विश्व में मौजूद मीठे जल का 70 फीसदी हिस्सा कृषि में खर्च होता है. पानी की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए भूजल का ज्यादा दोहन हो रहा है. इसकी वजह से दुनिया भर के भूजल भंडार में हर साल 100-200 घन किलोमीटर की कमी आ रही है.
एक डिग्री का सात फीसदी कनेक्शन
ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से हो रहे जलवायु परिवर्तन के कारण, अब हर साल दुनिया के कुछ हिस्से बाढ़ का शिकार हो रहे हैं तो कुछ गंभीर सूखे का. तापमान में एक डिग्री सेल्सियस की बढ़ोत्तरी होने पर नमी सात फीसदी बढ़ती है. नमी बढ़ने का मतलब है, असमय तेज बारिश. बाढ़, भूस्खलन, फसलों की बर्बादी और पेयजल का दूषित होना भी इसके सीधे परिणाम होते हैं.
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सन 2000 से 2019 के बीच बाढ़ से 650 अरब डॉलर का नुकसान हुआ. एक लाख लोग मारे गए. इसी दौरान 14 लाख लोग गंभीर सूखे की चपेट में आए और इस सूखे से भी करीब 130 अरब डॉलर का नुकसान हुआ.
बुधवार से न्यूयॉर्क में यूएन वॉटर कॉन्फ्रेंस हो रही है. कॉन्फ्रेंस से पहले यह रिपोर्ट जारी करते हुए यूनेस्को की डायरेक्टर जनरल ऑद्री अजौलाय ने कहा, "वैश्विक जल संकट के बेकाबू होने से पहले उसे टालने के लिए एक ताकतवर अंतरराष्ट्रीय मैकेनिज्म को तुरंत स्थापित करने की जरूरत है."
अजौलाय के मुताबिक, "पानी हमारा साझा भविष्य है, यह बहुत ही जरूरी है कि हम मिलकर काम करें और इसे समानता और टिकाऊ तरीके से साझा करें."
विवादों का विस्फोट
वर्ल्ड बैंक का अनुमान है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से पैदा हो रहे जल संकट से 2050 तक वैश्विक जीडीपी को छह फीसदी नुकसान पहुंचेगा. इसका सबसे ज्यादा असर कृषि, स्वास्थ्य, आमदनी और रिहाइशी इलाकों पर पड़ेगा. बड़े पैमाने पर लोगों को विस्थापित होना पड़ेगा और विवाद भी भड़क सकते हैं.
यूएन के क्लाइमेट एक्सपर्ट्स के पैनल, आईपीसीसी ने भी सोमवार को कुछ ऐसी ही चेतावनी दी, "करीबन दुनिया की आधी आबादी अब हर साल, कुछ समय के लिए गंभीर पानी की किल्लत झेल रही है." बढ़ती आबादी को साफ पेयजल पहुंचाने का खर्च ही इस दशक के अंत तक तीन गुना बढ़ जाएगा.
हर तरफ से नुकसान
पानी की कमी का असर जैवविधता और तमाम किस्म के इकोसिस्टमों पर भी पड़ रहा है. पौधों और वनस्पतियों की कई प्रजातियां उजड़ रही हैं. रिपोर्ट के चीफ एडिटर रिचर्ड कॉर्नर कहते हैं कि साझेदारी और पार्टनरशिप के बिना इन चुनौतियों से निपटना मुश्किल होगा. कॉर्नर के मुताबिक पानी का अधिकार, एक मानवाधिकार की तरह है, जिसे चुनौती मिल रही है, "अगर हम इस पर ध्यान नहीं देते हैं तो निश्चित रूप से वैश्विक संकट आएगा."
न्यूयॉर्क में 50 साल में पहली बार तीन दिन की यूएन वॉटर कॉन्फ्रेंस हो रही है. नीदरलैंड्स और ताजिकिस्तान इसके सहमेजबान हैं. अपनी तरह की पहली इस कॉन्फ्रेंस में पूरा ध्यान पानी से जुड़ी नीतियों पर दिया जाएगा.
ओएसजे/एडी (डीपीए, एएफपी, रॉयटर्स)
भारत के वो इलाके जहां प्यास का मतलब धीमी मौत है
122 देशों के वर्ल्ड वॉटर क्वालिटी इंडेक्स में भारत बहुत ही नीचे 120वें नंबर पर है. एक नजर भारत के उन इलाकों पर जहां पानी में आर्सेनिक नाम की मौत घुली रहती है.
तस्वीर: Sushavan Nandy/ZUMA Press/IMAGO
कहां से हुई शुरुआत
डायरिया और हैजे जैसी बीमारियों की रोकथाम और सिंचाई के लिए 1970 के दशक से भारत में जोर शोर से बोरवेल खोदे गए और बाद में खूब हैंडपंप गाड़े गए. लेकिन कई जगहों पर इनसे आर्सेनिक भरा विषैला पानी बाहर निकला और इसी ने हजारों लोगों को अकाल मौत दी.
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आर्सेनिक का खतरनाक स्तर
ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टैंडर्ड्स (BIS) के मुताबिक एक लीटर पेयजल में आर्सेनिक की मात्रा 0.01 मिलीग्राम से ज्यादा नहीं होनी चाहिए. पेयजल में आर्सेनिक की ज्यादा मात्रा स्किन कैंसर के अलावा फेफड़े, लीवर और बच्चेदानी की गंभीर बीमारी पैदा करती है.
तस्वीर: Dibyangshu Sarkar/AFP/Getty Images
कितना बड़ा है संकट
भारत के 20 राज्यों के कई जिलों में भूजल में आर्सेनिक की मात्रा 0.01 मिलीग्राम प्रति लीटर से ज्यादा है. इनमें उत्तराखंड को छोड़कर गंगा-यमुना के किनारे बसे सभी राज्य शामिल हैं. राजस्थान, पंजाब, मध्य प्रदेश, ओडिशा, कर्नाटक, झारखंड, आंध्र प्रदेश, गुजरात और छत्तीसगढ़ के कई जिलों में भी आर्सेनिक का लेवल 0.01 से ज्यादा है.
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पश्चिम बंगाल
1980 के दशक में पहली बार पश्चिम बंगाल में भूजल में आर्सेनिक के खतरनाक स्तर का पता चला. हुगली, मालदा, मुर्शीदाबाद, नादिया, 24 परगना उत्तर और 24 परगना दक्षिण जिले में तो आज भी आर्सेनिक की मात्रा 0.05 मिलीग्राम प्रति लीटर से ज्यादा है.
तस्वीर: Sushavan Nandy/ZUMA Press/IMAGO
उत्तर प्रदेश
यूपी के बहराइच, देवरिया, लखीमपुर, आज़मगढ़ और बलिया जिले में भी भूजल में आर्सेनिक की मात्रा खतरनाक स्तर की है. इन जिलों में कई गांव कैंसर पीड़ितों से भरे हुए हैं.
तस्वीर: Altaf Qadri/AP Photo/picture alliance
पंजाब
अमृतसर, रोपड़ और तरण तारण जिले के भूजल में आर्सेनिक 0.05 मिलीग्राम प्रतिलीटर से ज्यादा है. आर्सेनिक वाले पानी से सिंचाई करने पर यह भोजन में भी घुल जाता है.
तस्वीर: Dinodia Photo/IMAGO
मणिपुर
पूर्वोत्तर भारत के मणिपुर राज्य में बिष्णुपुर और थोबाल जिले में भूजल आर्सेनिक के कारण अत्यधिक दूषित पाया गया. इसका जिक्र भी भारत के केंद्रीय भूजल बोर्ड की रिपोर्ट में है.
तस्वीर: Dasarath Deka/ZUMAPRESS/picture alliance
हरियाणा
कृषि प्रधान राज्यों में शुमार हरियाणा के अंबाला और झज्जर जिले में भी भूजल आर्सेनिक से दूषित है. जमीन से पानी निकालने के लिए लगातार और गहराई तक ड्रिल करने से भी आर्सेनिक पानी में घुल जाता है.
तस्वीर: Sushavan Nandy/ZUMA Press/IMAGO
बिहार
बिहार के पटना, गोंडा, कटिहार, सारण और वैशाली समेत 11 जिलों में आर्सेनिक वाले भूजल के कारण 90 लाख से ज्यादा लोग प्रभावित हैं. गोंडा में तो आर्सेनिक की मात्रा बहुत ज्यादा है.
तस्वीर: Sushavan Nandy/ZUMA Press/IMAGO
झारखंड
कोयला खनन के लिए विख्यात या कुख्यात धनबाद और साहेबगंज जिले में कई गांव आर्सेनिक वाले पानी के चलते बुरी तरह बीमार हैं.
तस्वीर: Sudipta Das/Pacific Press Agency/IMAGO
असम
राज्य के तीन जिलों कछार, जोरहाट और नगांव में भूजल के जो सैंपल लिए गए उनमें भी आर्सेनिक 0.05 मिलीग्राम प्रति लीटर से ज्यादा मिला.
तस्वीर: Diptendu Dutta/AFP/Getty Images
अन्य राज्य
छत्तीसगढ़ के राजनंदगांव, कर्नाटक के राइचुर में भी केंद्रीय भूजल बोर्ड को जमीन से निकाले गए पानी में बहुत अधिक आर्सेनिक मिला. भारत में हर साल दूषित पानी पीने की वजह से दो लाख लोग मारे जाते हैं.
तस्वीर: Hindustan Times/IMAGO
इकोफ्रंटलाइंस प्रोजेक्ट
यह रिपोर्ट डीडब्ल्यू के इकोफ्रंटलाइंस प्रोजेक्ट का हिस्सा है. इकोफ्रंटलाइंस जर्मनी के विदेश मंत्रालय द्वारा वित्त पोषित प्रोजेक्ट है.