सुप्रीम कोर्ट ने 2002 के गुजरात दंगों में मारे गए कांग्रेस नेता एहसान जाफरी की पत्नी जकिया जाफरी द्वारा हिंसा के पीछे एक "बड़ी साजिश" की जांच के लिए दायर याचिका को खारिज कर दिया है.
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गुजरात दंगों के दौरान गुलबर्गा सोसायटी में हुए दंगे में मारे गए 68 लोगों में से एक, कांग्रेस के पू्र्व सांसद एहसान जाफरी की पत्नी जकिया जाफरी ने याचिका दायर की थी. एक विशेष जांच दल ने मामले में तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को क्लीन चिट दी थी.
जाफरी ने यह अर्जी 2018 में दाखिल की थी. इस पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एएम खानवलकर, दिनेश माहेश्वरी और सीटी रविकुमार की पीठ ने 9 दिसंबर 2021 को फैसला सुरक्षित रख लिया था. इसमें दंगों के मामलों की जांच कर रही एसआईटी की ओर से दायर क्लोजर रिपोर्ट को चुनौती दी गई थी, जिसमें मोदी समेत 63 लोगों को क्लीन चिट दी गई थी.
2002 के गुजरात दंगों के दौरान गुलबर्गा हाउसिंग सोसायटी में मारे गए एहसान जाफरी की पत्नी एसआईटी की रिपोर्ट को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट पहुंची थीं जिसमें गोधरा में ट्रेन जलाए जाने के बाद दंगों को भड़काने के लिए राज्य के अधिकारियों द्वारा किसी "बड़ी साजिश" से इनकार किया गया था.
2017 में गुजरात हाईकोर्ट ने एसआईटी की क्लोजर रिपोर्ट के खिलाफ जकिया की शिकायत खारिज कर दी थी. इससे पहले जकिया जाफरी ने निचली अदालत में अर्जी देकर क्लोजर रिपोर्ट को चुनौती दी थी, जिसे खारिज कर दिया गया था. निचली अदालत, हाईकोर्ट से याचिका खारिज होने के बाद उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था.
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क्लीन चिट के खिलाफ थी याचिका
सुप्रीम कोर्ट ने एसआईटी द्वारा दी गई क्लीन चिट को बरकरार रखा और जकिया जाफरी की याचिका को शुक्रवार 24 जून को खारिज कर दिया. कोर्ट ने याचिका को बेबुनियाद करार दिया है. कोर्ट ने कहा कि जकिया जाफरी की याचिका सुनवाई योग्य नहीं है. पीठ ने अपने आदेश में कहा, "हम एसआईटी की रिपोर्ट मंजूर करने और विरोध याचिका को खारिज करने के मजिस्ट्रेट के फैसले को बरकरार रखते हैं. इस अपील में मेरिट के अभाव है, इसलिए याचिका खारिज की जाती है."
दंगों की जांच कर रही एसआईटी ने 8 फरवरी 2012 को नरेंद्र मोदी और 63 अन्य लोगों को क्लीन चिट देते हुए क्लोजर रिपोर्ट दायर की थी. एसआईटी ने अपनी रिपोर्ट में वरिष्ठ अधिकारियों को भी क्लीन चिट दी थी.
गुलबर्गा सोसायटी मामले को गुजरात दंगों के दौरान सबसे भीषण बताया जाता है. गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस में आग लगने के एक दिन बाद 28 फरवरी 2002 को अहमदाबाद की पॉश कॉलोनी में दंगाई भीड़ ने गुलबर्गा सोसायटी पर हमला कर दिया, हिंसा के दौरान 69 लोगों की मौत हो गई थी. इस हाउसिंग सोसायटी में रहने वाले अधिकांश लोग मुसलमान थे.
मार्च 2008 में सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार को गुलबर्गा सोसायटी दंगे सहित नौ मामलों की फिर से जांच करने का आदेश दिया था. अदालत ने मामलों की नए सिरे से जांच करने के लिए सीबीआई के पूर्व निदेशक डॉ. आरके राघवन की अध्यक्षता में एक एसआईटी का गठन किया था. मार्च 2010 में मोदी से नौ घंटे से अधिक समय तक पूछताछ की गई थी. साल 2010 में एसआईटी ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि आरोपों को साबित करने के लिए कोई सबूत नहीं है.
गुजरात में हुए दंगों के दौरान एक हजार से अधिक लोग मारे गए थे.
एमनेस्टी इंटरनेशनल के 60 साल
राजनीतिक बंदियों के समर्थन से लेकर हथियारों के वैश्विक व्यापार के विरोध तक, जानिए कैसे कुछ वकीलों की एक पहल मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का एक अग्रणी नेटवर्क बन गई.
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राजनीतिक बंदियों के लिए क्षमा
1961 में पुर्तगाल के तानाशाह ने दो छात्रों को आजादी के नाम जाम उठाने पर जेल में डाल दिया था. इस खबर से व्यथित होकर वकील पीटर बेनेनसन ने एक लेख लिखा जिसका पूरी दुनिया में असर हुआ. उन्होंने ऐसे लोगों के लिए समर्थन की मांग की जिन पर सिर्फ उनके विश्वासों के लिए अत्याचार किया जाता है. इसी पहल से बना एमनेस्टी इंटरनेशनल नाम का एक वैश्विक नेटवर्क जो मानवाधिकारों के उल्लंघन के खिलाफ कैंपेन करता है.
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मासूमों का जीवन बचाने के लिए
शुरुआत में एमनेस्टी का सारा ध्यान अहिंसक राजनीतिक बंदियों को बचाने की तरफ था. एमनेस्टी का समर्थन पाने वाले एक्टिविस्टों की एक लंबी सूची है, जिसमें दक्षिण अफ्रीका के नेल्सन मंडेला से लेकर रूस के ऐलेक्सी नवाल्नी शामिल हैं. संस्था यातनाएं और मौत की सजा का भी विरोध करती है.
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यातना के खिलाफ अभियान
जब पहली बार संस्था ने 1970 के दशक में यातना के खिलाफ अपना अभियान शुरू किया था, उस समय कई देशों की सेनाएं राजनीतिक बंदियों के खिलाफ इनका इस्तेमाल करती थीं. एमनेस्टी के अभियान की वजह से इसके बारे में जागरूकता फैली और इससे यातनाओं के इस्तेमाल के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों का जन्म हुआ. इन प्रस्तावों पर अब 150 से ज्यादा देश हस्ताक्षर कर चुके हैं.
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युद्ध के इलाकों में जांच
एमनेस्टी के अभियान उसके एक्टिविस्टों द्वारा इकठ्ठा किए गए सबूतों के आधार पर बनते हैं. युद्ध के इलाकों में युद्धकालीन अपराधियों की जवाबदेही तय करने के लिए मानवाधिकारों के उल्लंघन के लिखित प्रमाण की जरूरत पड़ती है. संस्था ने सीरिया के युद्ध के दौरान रूसी, सीरियाई और अमेरिकी नेतृत्व वाले गठबंधन के युद्धकालीन अपराधों के दस्तावेज सार्वजनिक स्तर पर रखे.
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हथियारों के प्रसार के खिलाफ
एमनेस्टी का लक्ष्य युद्ध के इलाकों तक हथियारों के पहुंचने को रोकने का है, क्योंकि वहां उनका इस्तेमाल नागरिकों के खिलाफ किया जा सकता है. हालांकि एक अंतरराष्ट्रीय संधि के तहत हथियारों के अंतरराष्ट्रीय व्यापार का नियंत्रण करने के लिए नियम लागू तो हैं, लेकिन इसके बावजूद हथियारों की खरीद और बिक्री अभी भी बढ़ रही है. रूस और अमेरिका जैसे सबसे बड़े हथियार निर्यातकों ने संधि को मंजूरी नहीं दी है.
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कानूनी और सुरक्षित गर्भपात का अधिकार
एमनेस्टी के अभियानों में लैंगिक बराबरी, बाल अधिकार और एलजीबीटी+ समुदाय के समर्थन जैसे मुद्दे भी शामिल हैं. सरकारों और धार्मिक नेताओं ने गर्भपात का अधिकार जैसे मुद्दों को संस्था के समर्थन की कड़ी आलोचना की है. इस तस्वीर में अर्जेंटीना में एक्टिविस्ट राजधानी ब्यूनोस एरेस में राष्ट्रीय संसद के दरवाजों पर पार्सले और गर्भपात के लिए इस्तेमाल की जाने वाली दूसरी जड़ी-बूटियां रख रहे हैं.
तस्वीर: Alejandro Pagni/AFP/Getty Images
एक व्यापक अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क
1960 के दशक ने एमनेस्टी इंटरनैशनल बढ़ कर ऐसे एक्टिविस्टों का एक व्यापक वैश्विक नेटवर्क बन गया है जो सारी दुनिया में एकजुटता के अभियानों में हिस्सा लेने के अलावा स्थानीय स्तर पर हो रहे मानवाधिकारों के उल्लंघन का मुकाबला भी करते हैं. संस्था के पूरी दुनिया में लाखों सदस्य और समर्थक हैं जिनकी मदद से उसने हजारों बंदियों को मृत्यु और कैद से बचाया है. (मोनिर घैदी)