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गोरे लोगों में नस्लभेद की भावना आज भी बहुत ज्यादा है

२३ मई २०२३

तमाम आर्थिक, सामाजिक प्रगतियों और शिक्षा के बावजूद इंसान के मन से नस्ली भेदभाव का कांटा नहीं निकल सका है. ऐसी सोच नहीं रखने का दावा करने वाले गोरे लोगों में यह और ज्यादा है. वैज्ञानिक रिसर्चों ने इस बात की पुष्टि की है.

गोरे लोगों में नस्ली पूर्वाग्रह का पता लगाने के लिए एक प्रयोग किया गया है
पृथ्वी पर मौजूद सारे इंसान एक ही प्रजाति होमो सेपिएंस के हैंतस्वीर: Winfried Rothermel/picture alliance

अगर कोई एक चीज है जिस पर सबलोग सहमत हैं तो वह यह है कि सारे इंसान एक ही प्रजाति के हैं. इस प्रजाति का नाम है, होमो सेपियेंस. हालांकि एक नई रिसर्च रिपोर्ट में बताया गया है कि इस बात को सच मानने वाले लोग वास्तव में उतने हैं नहीं जितने कि दावा करते हैं.

द प्रोसिडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज में सोमवार को छपी यह रिपोर्ट हार्वर्ड यूनिवर्सिटी और टफ्ट्स यूनिवर्सिटी के रिसर्चरों की टीम ने 60,000 लोगों पर 13 प्रयोगों से हासिल नतीजों के आधार पर तैयार की है.

जर्मनी में नस्ली भेदभाव लोगों के लिए रोजमर्रा की बात

सबकी प्रजाति एक

प्रयोग में शामिल लोगों में 90 फीसदी ने साफ तौर पर यह माना कि गोरे हो या काले सबलोग इंसान हैं जो एक ही प्रजाति के हैं. हालांकि अमेरिका और दूसरे देशों के गोरे लोगों ने मानव शब्द का मतलब दूसरे समूह के लोगों की तुलना में अपने समूह के लोगों को ज्यादा समझा है.

इसके उलट काले, एशियाई और हिस्पानियाई प्रतिभागियों ने इस तरह का कोई पूर्वाग्रह नहीं दिखाया. वो अपने समूह के साथ ही गोरे लोगों को भी "इंसान" मानते हैं.

जॉर्ज फ्लायड की मौत के विरोध में प्रदर्शन करते काले लोगतस्वीर: Victoria Jones/empics/picture alliance

रिपोर्ट की प्रमुख लेखक किर्स्टेन मोरहाउस हार्वर्ड यूनिवर्सिटी से पीएचडी कर रही हैं. समाचार एजेंसी एएफपी से बातचीत में उन्होंने कहा, "मेरे लिए सबसे बड़ी जानकारी तो यह है कि सदियों से जो भावनाएं हमारे आस पास रही हैं हम आज भी उनसे एक नये रूप में उलझ रहे हैं."

मानव सभ्यता के पूरे इतिहास में दूसरी नस्लों को इंसान नहीं समझना गैरबराबरी के व्यवहार की पूर्वशर्त रही है. यही गैरबराबरी का अहसास पुलिस की क्रूरता से लेकर जनसंहार तक को जन्म देता है.

इंप्लिसिट एसोसिएशन टेस्ट

यह रिसर्च में इंप्लिसिट एसोसिएशन टेस्ट, आइएटी का सहारा लिया गया है. यह एक उपकरण है जिसे 1990 के दशक में विकसित किया गया था और इस क्षेत्र में व्यापक रूप से इस्तेमाल किया जाता है. कंप्यूटर आधारित यह उपकरण दो विचारों के बीच सहयोग की ताकत को मापता है. उदाहरण के लिए काले और गोरे लोग या गे और स्ट्रेट लोग और दो लक्षण जैसे कि अच्छा और बुरा.

विचार यह है कि आसानी से जुड़ने का मतलब है कि दिमाग में सहयोग मजबूत है. जुड़ने के लिए आपको की बोर्ड पर उंगलियां चलानी होती हैं. उंगलियां तेज चलीं तो मतलब सहयोग मजबूत है और धीमें चलीं तो जुड़ना मुश्किल है.

अमेरिका में काले लोगों को अकसर गोरे लोगों की नस्लभेदी सोच का सामना करना पड़ता हैतस्वीर: Victoria Jones/empics/picture alliance

रिसर्चरों का मानना है कि आईएटी के परीक्षणों ने उस रवैये को दिखाया है जिसे लोक सार्वजनिक नहीं करना चाहते या फिर चेतना के स्तर पर उसके प्रति जागरूक हैं. सारे प्रयोगों के दौरान गोरे लोगों में से 61 फीसदी प्रतिभागियों ने गोरे लोगों को "इंसानों" से ज्यादा जोड़ा जबकि काले लोगों को "जानवरों" से. इससे भी बड़ी संख्या लगभग 69 फीसदी उन लोगों की थी जिन्होंने गोरे लोगों को तो इंसानों से जोड़ा लेकिन एशियाई लोगों को जानवरों से. गोरे और हिस्पानियाई लोगों के बीच हुए परीक्षणों का नतीजा भी यही रहा.

इन नतीजों पर लोगों की उम्र, धर्म और शिक्षा का कोई असर नहीं था लेकिन लिंग और राजनीतिक रुझानों का असर जरूर था. खुद को रुढ़िवादी मानने वाले लोगों ने गोरे लोगों और इंसानों के बीच रिश्तों को ज्यादा मजबूत माना.

अश्वेत लोगों में भी पूर्वाग्रह

अश्वेत लोगों में अपने समूहों की तुलना में गोरे लोगों के प्रति इस तरह का नस्ली पूर्वाग्रह नहीं दिखाई दिया. हालांकि जब उन्हें गोरे लोगों और दूसरे अल्पसंख्यक समूहों के प्रति उनका परीक्षण किया गया तो उन्होंने गोरे लोगों को काले लोगों के तुलना में ज्यादा इंसान माना.

मोरहाउस इन नतीजों को इस सच्चाई से जोड़ती हैं कि गोरे लोग अमेरिका में आर्थिक और सामाजिक रूप से ज्यादा दबदबा रखते हैं. प्रयोग में शामिल 85 फीसदी लोग अमेरिका के ही थे. उनका कहना है कि तीसरे पक्ष के रूप में इन समूहों का गोरे लोगों के प्रति आग्रह "दिखाता है कि ये सामाजिक वर्णक्रम कितना ताकतवर है." उन्होंने यह भी कहा कि भले ही इस परीक्षण के नतीजे कुछ लोगों को असहज कर देंगे लेकिन पुरानी छवियों को तोड़ने के लिए जागरूगता सबसे पहला कदम है.

एनआर/एए (एएफपी)

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