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चुनाव: पाकिस्तान हमेशा के लिए बदल गया?

अशोक कुमार
१२ फ़रवरी २०२४

पाकिस्तान में हुए हालिया आम चुनावों में कोई स्पष्ट विजेता उभर कर सामने नहीं आया. लेकिन इससे एक बात तो स्पष्ट हो गई है कि पाकिस्तान बदल गया है. पाकिस्तान अपनी बेड़ियों को तोड़कर आगे बढ़ रहा है.

इमरान खान
आर्थिक तंगी झेल रहे पाकिस्तान में बहुत से लोगों ने इमरान खान के नाम पर ही वोट दिया, भले ही वह खुद चुनाव मैदान में नहीं थेतस्वीर: AAMIR QURESHI/AFP/Getty Images

कहते हैं कि पाकिस्तान में सेना की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता. अब तक वही तय करती आई है कि कौन देश की सत्ता में आएगा और किसको बाहर का रास्ता दिखाया जाएगा. इस बार सब सत्ता में पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की वापसी तय मान रहे थे, क्योंकि सेना के साथ उनके समीकरण ठीक चल रहे हैं. ठीक उसी तरह, जैसे पिछले चुनाव में इमरान खान के समीकरण थे और वो 2018 में देश के प्रधानमंत्री बने थे. लेकिन अब पासा पलट चुका है. हालिया चुनाव के नतीजों के बाद जो तस्वीर उभरती है, उसमें नवाज शरीफ ही सत्ता के सबसे करीब दिख रहे हैं. उनकी पीएमएल (एन) सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी है और नई सरकार बनाने के लिए उन्होंने तोड़जोड़ शुरू कर दी है.

इमरान खान यह चुनाव किसी कीमत पर नहीं जीत सकते थे. यह बात तभी साफ हो गई थी, जब नवंबर 2022 में आसिम मुनीर पाकिस्तान के सेना प्रमुख बने. सबको अंदेशा था, इमरान खान ने प्रधानमंत्री रहते हुए आसिम मुनीर के साथ जो किया, वो उसका बदला जरूर लेंगे. इसके बाद इमरान खान के साथ जो हुआ, उन सारी घटनाओं को इसी संदर्भ में देखा जाता है. उनकी पार्टी के टुकड़े-टुकड़े हो गए. उन्हें कई मामलों में जेल की सजा हुई. उनकी पार्टी का चुनाव चिन्ह बल्ला छीन लिया गया.

ऐसे में, पार्टी के सामने अकेला रास्ता बचा था कि अलग-अलग सीटों पर खड़े निर्दलीय उम्मीदवारों का समर्थन करे. पार्टी ने यही किया. वोट खुले तो सबसे ज्यादा कामयाबी इन्हीं उम्मीदवारों को मिली. उन्होंने 93 सीटें जीतीं. नवाज शरीफ की पीएमएल (एन) 75 सीटों और पाकिस्तान पीपल्स पार्टी 54 सीटों के साथ बहुत पीछे नजर आती हैं. इमरान खान की पीटीआई का कहना है कि अगर धांधली नहीं की गई होती, उसके समर्थित उम्मीदवार इससे कहीं ज्यादा सीटें जीतते. लेकिन कागज पर ये सब आजाद उम्मीदवार हैं. किसी पार्टी के नहीं. भले ही वोट उन्हें इमरान खान के नाम पर मिला है.

नवाज शरीफ की पार्टी की नेतृत्व बनी सरकार की सिफारिश पर आसिम मुनीर को पाकिस्तान का सेना प्रमुख बनाया गया था, जबकि इमरान खान ऐसा नहीं चाहते थेतस्वीर: AP Photo/picture alliance

सेना की चुनौती

नवाज शरीफ खुश हो सकते हैं कि उनकी पार्टी को चुनावों में सबसे ज्यादा सीटें मिली हैं. लेकिन इस असलियत से वो वाकिफ हैं कि तमाम कोशिशों के बावजूद इमरान खान को रोकने के सारे हथकंडे नाकाम रहे. जो पार्टी चुनाव प्रचार में सबसे पीछे थी, या पीछे की गई, उसके लिए जनता ने आगे आकर वोट दिया. खासकर युवाओं ने कोई ध्यान नहीं दिया कि कौन उम्मीदवार है, क्या चुनाव निशान है, उन्हें तो बस इमरान खान को वोट देना था और उन्होंने दिया. पीटीआई के खाते में वोट डालने वाले इन लोगों ने तय किया कि उन्हें इमरान खान के साथ खड़ा होना है, भले ही पूरी सत्ता व्यवस्था उनके खिलाफ खड़ी हो.

पिछले साल नौ मई को जब पीटीआई प्रदर्शनकारियों ने सेना के ठिकानों पर हमला किया था, उसके बाद से पाकिस्तान का पूरा परिदृश्य ही सेना बनाम पीटीआई में तब्दील हो गया. लेकिन चुनाव नतीजे साफ संकेत देते हैं कि देश में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ रही है जो आंखें मूंदकर किसी भी चीज पर यकीन करने को तैयार नहीं हैं. जो उन्हें बताया और दिखाया जा रहा है, वे उसे पूरा सच मानने को तैयार नहीं हैं. यह सेना में लोगों के घटते भरोसे की तरफ इशारा करता है. अगर इन लोगों की चिंताओं पर ध्यान नहीं दिया गया तो उनका असंतोष लगातार बढ़ता जाएगा.

इस चुनाव का नतीजा जो रहे, लेकिन ये युवा पीढ़ी आने वाले चुनावों में भी वोटिंग के लिए वहीं कतारों में खड़ी होगी. वो बार-बार सवाल करने से नहीं चूकेगी. ऐसे बहुत सारे सवाल पाकिस्तानी सेना की तरफ जाते हैं. पाकिस्तान आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक तौर पर आज जिस मोड़ पर खड़ा है, उसके लिए बहुत से युवा सेना को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं, क्योंकि पाकिस्तान में अब तक वही तो होता आया है जो सेना ने चाहा है. और अगर आज देश बुरे हाल में है तो वे इसके लिए सेना को जवाबदेह ठहराना चाहते हैं.

इस पूरी व्यवस्था में बहुत से पाकिस्तानियों को इमरान खान उम्मीद की किरण लगते हैं. अब अगर सेना उन्हें सलाखों के पीछे रखेगी तो उनके समर्थकों में इससे निराशा और असंतोष ही पनपेगा. जिन लोगों ने इस दफा पहली बार चुनावों में वोट दिया है, उनमें से ज्यादातर का संबंध 21वीं सदी से है. उनके अपने सपने और अपनी उनकी उम्मीदें हैं. अपनी चिंताएं और अपना विजन है. उनका सही-गलत और झूठ-सच भी अलग है. उनके संघर्ष और उनकी चिंताएं भी पिछली पीढ़ी से अलग हैं. अगर देश की सेना में इस पीढ़ी का भरोसा कमजोर होगा, तो ये सेना के लिए चिंता की बात है.

पाकिस्तान की सेना ने देश की सुरक्षा चुनौतियों को हमेशा अपने हक में इस्तेमाल किया हैतस्वीर: Aamir Qureshi/AFP

तुरुप का पत्ता

अब तक पाकिस्तान उसी रास्ते पर चला है जिस पर सेना ने उसे चलाया है. लेकिन हालिया चुनाव संकेत दे रहे हैं कि अब ऐसा और नहीं चल सकता. क्योंकि अगर ऐसा होता तो इस चुनाव में नवाज शरीफ की सत्ता में वापसी के साथ इमरान खान का सूरज अस्त हो जाना चाहिए था. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. यानी पाकिस्तान बदल गया. और इस बदलाव की अगुवा खासकर युवा पीढ़ी और महिलाएं हैं. तो फिर पाकिस्तान की सेना इतनी आसानी से वो सब कुछ छोड़ देगी? बिल्कुल नहीं.

सेना के पास भी एक तुरुप का पत्ता है, जिसकी काट आसान नहीं है. उसने हमेशा खुद को देश का असली रक्षक बताया है. जो देश भारत, अफगानिस्तान और ईरान जैसे देशों से घिरा हो, उसके सामने सीमाओं की रक्षा बड़ी चुनौती है, इस बात में कोई शक नहीं है. लेकिन पाकिस्तानी सेना ने अपने इस तुरुप के पत्ते का बड़ी होशियारी से इस्तेमाल किया है. इसीलिए आज देश के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक ताने बाने पर सेना का दबदबा है.

पूरे देश में ऐसा कोई संगठन या संस्था नहीं है जो सेना के जितनी संगठित, अनुशासित और जनता के बीच भरोसे के लायक हो. हालांकि आलोचक कहते हैं कि अपनी इस छवि को गढ़ने के लिए सेना ने कभी राजनेताओं पर जनता का भरोसा कायम ही नहीं होने दिया. वहां आज तक कोई प्रधानमंत्री अपना पांच का कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया है. वैसे अब कुछ लोग इस दावे पर सवाल उठाने लगे हैं कि सेना ही देश की रक्षक है. कुछ युवा 1971 में पूर्वी पाकिस्तान के बांग्लादेश बनने के पीछे सेना की भूमिका को आलोचनात्मक नजरिए से देखने लगे हैं. पड़ताल करने पर उन्हें पता चल रहा है कि पाकिस्तानी सेना ने बंगालियों के साथ क्या-क्या किया, जिसके बाद उनका देश टूट गया. 

इमरान खान और उनकी पार्टी के लिए आगे का रास्ता बहुत तंग हैतस्वीर: Abdul Majeed/AFP

इमरान से उम्मीदें कितनी सही?

वैसे पाकिस्तान के युवाओं को अतीत से ज्यादा वर्तमान और भविष्य की चिंता है. लेकिन सवाल यह है कि जिस बदलाव की उम्मीद उन्हें है, क्या इमरान खान उसे संभव बना सकते हैं. इमरान खान अपनी छवि को लेकर बहुत संजीदा हैं. लेकिन बतौर राजनेता उनमें एक व्यावहारिक गुण की कमी दिखती है. वो गुण है लचीलापन. उनकी नजर में सब 'चोर' और 'बेइमान' हैं और इसीलिए वो किसी से भी बात नहीं करना चाहते. लेकिन वो यह भूल जाते हैं, जिस समाज को वह बदलना चाहते हैं, ये लोग भी उसी समाज का हिस्सा हैं. उनकी पार्टी में भी बहुत सारे नेता इन्हीं 'चोरों और बेईमान' की पार्टियों से पहुंचे थे. इसीलिए जब उनकी सत्ता थी तो उन पर भी भ्रष्टाचार के आरोप लगे.

मौजूदा सेना प्रमुख से इमरान का जो छत्तीस का आंकड़ा है उसमें मूल में भी पंजाब प्रांत की सरकार के खिलाफ लगे भ्रष्टाचार के कुछ आरोप ही थे. जब तत्कालीन आईएसआई चीफ आसिम मुनीर ने इन आरोपों की तरफ ध्यान दिलाया, तो तत्कालीन प्रधानमंत्री इमरान खान ने आरोपों की पड़ताल करने की बजाय उल्टे आसिम मुनीर की छुट्टी कर दी. वही आसिम मुनीर आज पाकिस्तान के सेना प्रमुख हैं.

बहरहाल जब तक आसिम मुनीर सेना प्रमुख हैं, तब तक तो इमरान खान की मुश्किलें कम होती नहीं दिख रही हैं. हां, जनता के बीच उनकी लोकप्रियता लगातार बनी हुई है. जाहिर है, मौजूदा सैन्य नेतृत्व ऐसी व्यवस्था चाहता है जिसमें इमरान खान ना हों. नई सरकार बनाने के लिए नवाज शरीफ, पाकिस्तान पीपल्स पार्टी और अन्य पार्टियों के नेताओं ने मुलाकातें शुरू कर दी हैं. सियासी सौदेबाजियां चल रही हैं. आने वाले कुछ दिनों में सरकार बन भी जाएगी. आर्थिक संकट में फंसे पाकिस्तान में तुरंत किसी बड़े बदलाव उम्मीद नहीं है. लेकिन पाकिस्तानी समाज में बहुत हलचल मची हुई है. आबादी का एक बड़ा वर्ग सेना से अपना देश वापस मांग रहा है, जो लोकतांत्रिक हो, पारदर्शी हो और जनरलों की मर्जी से नहीं, बल्कि जनता की उम्मीदों के मुताबिक चले.

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