हिमालयी क्षेत्र में आपदाएं लगातार बढ़ रही हैं. उत्तराखंड में सैकड़ों गांव ऐसे हैं जहां रहना सुरक्षित नहीं और विशेषज्ञ इन ग्रामीणों को कहीं और बसाने की सलाह दे रहे हैं.
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उत्तराखंड के उत्तरकाशी से करीब 5 किलोमीटर दूर कठिन पहाड़ी पर बसा है एक छोटा सा गांव: धांसड़ा. कोई 200 लोगों की आबादी वाला धांसड़ा पिछले कई सालों से लगातार दरक रहा है.
हालात ऐसे कि मॉनसून या खराब मौसम में यहां लोग रात को अपने घरों में नहीं सोते बल्कि गांव से कुछ किलोमीटर ऊपर पहाड़ी पर छानियां यानी अस्थायी टैंट लगा लेते हैं क्योंकि पहाड़ से बड़े-बड़े पत्थरों के गिरने और भूस्खलन का डर हमेशा बना रहता है. इसलिये जब लोग जान बचाकर ऊपर पहाड़ी पर भागते हैं तो रात के वक्त गांव में बहुत बीमार या बुज़ुर्ग ही रह जाते हैं क्योंकि वे पहाड़ पर नहीं चढ़ सकते.
असुरक्षित गांवों की लम्बी लिस्ट
उत्तराखंड में धांसड़ा अकेला ऐसा गांव नहीं है. यहां सैकड़ों असुरक्षित गांव हैं जहां से लोगों को हटाया जाना है और ये बात सरकार खुद मानती है. धांसड़ा के पास ही भंगोली गांव की रहने वाली मनीता रावत कहती हैं कि यहां कई गांवों में खौफ है. भंगोली के ऊपर पहाड़ काट कर सड़क निकाली गई है लेकिन अवैज्ञानिक तरीके से हुए निर्माण का खमियाजा गांव के लोगों को भुगतना पड़ रहा है.
तस्वीरों मेंः नदियों पर मार
नदियों पर जलवायु परिवर्तन की मार
नदियां करोड़ों लोगों के लिए पानी और पोषक तत्वों का सबसे जरूरी स्रोत हैं लेकिन गर्म होती जलवायु इस कमजोर पड़ते जलतंत्र को नुकसान पहुंचा रही है.
तस्वीर: AFP/Rammb/Noaa/Nesdis
जल ही जीवन है
पृथ्वी पर मौजूद पानी का सबसे बड़ा भंडार सागरों में हैं. पानी का एक बहुत छोटा हिस्सा ही धरती पर नदियों के रूप में बहता है. नदियों का यह पानी ना हुआ तो झील और दूसरी गीली जमीनें भी सूख जाएंगी. जलवायु परिवर्तन के साथ यह समस्या गंभीर होती जा रही है. इससे इंसानों और दूसरे जीवों को एक समान खतरा है.
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कई दशकों से हो रहा है जलवायु परिवर्तन
जलवायु परिवर्तन कोई नई बात नहीं है. तस्वीर में लेक चाड की 1963, 1973, 1987 और 1997 की स्थिति दिख रही है. बीते 60 सालों में यह करीब 25,000 वर्ग किलोमीटर से घट कर महज 2,000 वर्ग किलोमीटर रह गया है. लंबे समय तक सिंचाई के लिए बने बांधों को इसका कारण माना गया. रिसर्चरों ने पता लगाया है कि इसके पानी में कमी तापमान में उतार चढ़ाव की वजह से है जिसने यहां की अहम नदी कोमादुगु योब को बहुत प्रभावित किया है.
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जैव विविधता और भोजन की कमी
लेक चाड इस बात का सटीक उदाहरण है कि जलवायु परिवर्तन कैसे लोगों को खाना और पानी के नए स्रोत की खोज के लिए विवश कर रहा है. इस इलाके में किसानों और मवेशियों के संसाधनों वाले इलाके की ओर जाने की वजह से तनाव को बढ़ते देखा है. दूसरे महाद्वीपों में भी जलवायु परिवर्तन का असर गर्म होते पानी में मछलियों की घटती तादाद नदी में कम होते पानी के रूप में दिखा है.
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यूरोप झेल रहा है आंच
इनमें से एक जगह यूरोप है. 2018 की गर्मियों में यहां की विशाल और ताकवर नदी राइन की धार कुंद हो गई और उसका तापामान बढ़ कर 30 डिग्री सेल्सियस को पार कर गया. सिर्फ इतना ही नहीं सूखे की वजह से हरा भरी दिखने वाली नदी जो बरसात के मौसम में बहुत कम जीवों का ही घर रह गई. यूरोप के सबसे बड़े नदी जलमार्ग में इतनी जगह नहीं थी कि एक बार में एक से ज्यादा जहाजों को रास्ता दे सके.
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पिघल रहे हैं ग्लेशियर
दुनिया के दूसरे इलाके भी ग्लेशियर जैसे पानी के भरोसेमंद स्रोतों को घटते हुए देख रहे हैं. ग्लेशियरों को भारी मात्रा में बर्फ का संग्रह करने के लिए पानी के टावर के रूप में भी जाना जाता है और ये दुनिया में करीब 2 अरब लोगों के लिए पानी का स्रोत हैं. जानकारों को डर है कि तस्वीर में दिख रहा हिमालय अपने एक तिहाई ग्लेशियर इस सदी के अंत तक खो देगा.
तस्वीर: DW/Catherine Davison
हिमालय पर आश्रित दक्षिण एशिया
तस्वीरों में दिख रहे सिंधु नदी बेसिन के किसान कपास और चावल के लिए पूरी तरह हिमालय के ग्लेशियरों के पिघलने पर आश्रित हैं. ये दक्षिण एशिया में बड़े रिवर बेसिन का हिस्सा हैं जिनमें गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी नदियां शामिल हैं. कुल मिला कर सिर्फ इन तीन नदियों से 12.9 करोड़ किसानों और 90 करोड़ लोगों को पानी मिलता है.
तस्वीर: Imago/Aurora
जंगल की आग भी नदियों के लिए बुरी
धरती पर जंगल की आग अभूतपूर्व तरीके से फैलती जा रही है. तस्वीरों में दिख रहे ऑस्ट्रेलिया की आग जैसी घटनाएं जलवायु परिवर्तन का एक और असर दिखाती हैं. यह आग ऑस्ट्रेलिया के सबसे अहम जल स्रोत मर्रे डार्लिंग वॉटर बेसिन के लिए जहरीली साबित हो सकती है. हवा के साथ उड़ कर आई राख नदियों में समा गई और 26 लाख ऑस्ट्रेलियाई लोगों के लिए पानी को जहरीला बना गई. नदियों में रहने वाले जीवों की तो बात ही मत पूछिए.
तस्वीर: Reuters/Maxar Technologies
काई और डेड जोन
जंगल की आग से उड़ी राख ही नदियों का गला नहीं घोटती है. अमेरिका में हुई भारी बरसात के कारण खेतों से निकले प्रदूषक बह कर नदियों में जा मिले. उसके बाद वे वहां से खुले सागर में पहुंच गए. तस्वीर में जो आप काई जमी देख रहे हैं वह न्यूयॉर्क के तट पर दिखा एक और बुरा असर है. दूसरा बुरा असर है डेड जोन यानी प्रदूषण के कारण ऑक्सीजन से रहित पानी.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/NASA
ज्यादा बरसात हमेशा अच्छी नहीं
वास्तव में नाइट्रोजन का प्रदूषण मिसिसीपी नदी के लिए भी एक बड़ी समस्या बन गया जो कई अमेरिकी राज्यों से गुजरती है. बाढ़ के पानी में भारी मात्रा में बह कर आई नाइट्रोजन के अलावा शक्तिशाली चक्रवातों के कारण भी नदियों की जमीन बुरी तरह प्रभावित हो रही है और उनका सुरक्षा कवच टूट रहा है.
तस्वीर: AFP/Rammb/Noaa/Nesdis
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रावत के मुताबिक, "सड़क से सारा पानी बहकर हमारे घरों में आता है. पत्थर, मिट्टी और गाद बहकर यहां जमा हो जाती है, सो अलग. गांव को लोगों को अपनी मदद खुद ही करनी पड़ती है. हमें अपने रास्ते भी खुद बनाने पड़ते हैं. यहां कोई सरकार नहीं है."
सामाजिक कार्यकर्ता चारु तिवारी बताते हैं कि कुछ साल पहले सरकार ने उत्तराखंड में 376 संकटग्रस्त गांवों की लिस्ट बनाई लेकिन असल में इन गांवों की संख्या कहीं अधिक है. असुरक्षित कहे जाने वाले करीब 30 गांव तो चमोली जिले में ही हैं जिन पर आपदा का खतरा बना रहता है. यहां फरवरी में ऋषिगंगा में बाढ़ आई तो इसके किनारे बसे रैणी – जो पहले ही असुरक्षित माना जाता था – में लोग गांव छोड़कर ऊपर पहाड़ों पर चले गये.
इसी तरह चमोली का ही चाईं गांव भी संकटग्रस्त है और असुरक्षित माना जाता है. यहां हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट के लिये की गई ब्लास्टिंग और टनलिंग (सुरंगें खोदने) से गांव दरकने लगे हैं और लोग असुरक्षित महसूस कर रहे हैं. इस गांव में कभी रसीले फलों की भरमार थी जो फसल अब पानी की कमी के कारण नहीं होती. जानकार कहते हैं कि विस्फोटों से पहाड़ों की हाइड्रोलॉजी पर असर पड़ रहा है और जल-स्रोत सूख रहे हैं.
आपदाओं की बढ़ती मार
बाढ़ आना, बादल फटना और भूस्खलन तो हिमालयी क्षेत्र में आम है लेकिन इनकी मारक क्षमता और ऐसी घटनाओं की संख्या अब लगातार बढ़ रही है. जहां एक ओर असुरक्षित और बेतरतीब निर्माण को लेकर कई विशेषज्ञ चेतावनी देते हैं तो कई जानकार मानते हैं कि जंगलों के कटने और जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभाव का भी असर है. कई बार आपदाओं में छोटे बच्चे भी शिकार हो रहे हैं और अक्सर मीडिया में इसकी रिपोर्टिंग भी नहीं होती.
देखिएः दुनिया की टॉप 10 चोटियां
दुनिया की टॉप 10 चोटियां
हिमालय दुनिया का सबसे ऊंचा पहाड़ है. ऊंचाई के लिहाज से दुनिया की टॉप 10 चोटियां इस विशाल पर्वतमाला में हैं. एक नजर इन चोटियों पर.
तस्वीर: Imago/Indiapicture
01. माउंट एवरेस्ट
नेपाली में सगरमाथा कही जाने वाली यह चोटी दुनिया की सबसे ऊंची चोटी है. 1955 में भारत ने इसका सर्वे किया और ऊंचाई 8,848 मीटर बताई. ब्रिटिश सर्वेयर सर जॉर्ज एवरेस्ट के सम्मान में इस चोटी को माउंट एवरेस्ट नाम दिया गया.
तस्वीर: Reuters/N. Chitrakar
02. के2
पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर में पड़ने वाली कंचनजंघा 2 दूसरी सबसे ऊंची चोटी है. के2 कहा जाने वाला यह पर्वत 8,611 मीटर ऊंचा है.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/C. Riedel
03. कंचनजंघा
भारतीय राज्य सिक्किम और नेपाल के बीच स्थित कंचनजंघा ऊंचाई के मामले में तीसरे नंबर पर है. कंचनजंघा की ऊंचाई 8,586 मीटर है.
नेपाल, तिब्बत और चीन की सीमा पर खड़ी ल्होत्से चोटी 8,516 मीटर ऊंची है. कंचनजंघा की तरह ही यह भी माउंट एवरेस्ट की पड़ोसी चोटी है.
तस्वीर: G. Kaltenbrunner
05. मकालू
माउंट एवरेस्ट से 19 किलोमीटर दूर मकालू चोटी है. 8,485 मीटर ऊंची यह चोटी नेपाल और चीन में आती है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
06. चोयु
8,201 मीटर ऊंची चोयु चोटी भी नेपाल और चीन की सीमा में है.
07. धौलागिरी
सफेद बर्फ से हमेशा चमचमाने वाली धौलागिरी चोटी भी नेपाल में है. 8,167 मीटर ऊंची इस चोटी की चढ़ाई बेहद दुश्वार मानी जाती है.
तस्वीर: picture-alliance/blickwinkel/P. Royer
08. मनास्लु
8,163 मीटर ऊंची मनास्लु चोटी नेपाल में है. चोयु की पड़ोसी इस चोटी पर पहली बार इंसान 1956 में चढ़ा.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
09. नंगा पर्वत
पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर के गिलगिट बालटिस्तान में खड़ा यह पहाड़ 8,126 मीटर ऊंचा है. नंगा पवर्त की चढ़ाई सबसे मुश्किल बताई जाती है. इसे किलर माउंटेन भी कहा जाता है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
10. अन्नपूर्णा
8,091 मीटर ऊंची अन्नापूर्णा चोटी उत्तर मध्य नेपाल में है. माउंट एवरेस्ट की चढ़ाई करने वाले आम तौर पर पहले अन्नपूर्णा पर अभ्यास करते हैं.
तस्वीर: imago/Xinhua
23. नंदा देवी
7,816 मीटर ऊंची नंदा देवी भारत के भीतर मौजूद सबसे ऊंची चोटी है. उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल में पड़ने वाली यह चोटी 1988 से यूनेस्को की विश्व धरोहर है.
तस्वीर: Imago/Indiapicture
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ग्रामीण बताते हैं कि 2013 की केदारनाथ आपदा के बारे में अखबारों में खूब लिखा गया लेकिन रुद्रप्रयाग जिले के ही उखीमठ में इस घटना के एक साल पहले यानी 2012 में भूस्खलन से 28 लोग मरे थे. ये हादसा चुन्नी-मंगोली नाम के गांव में हुआ जहां उस घटना के बाद वहां लोग आज भी दहशत में हैं. इसी तरह साल 2010 में बागेश्वर के सुमगढ़ गांव में एक प्राइमरी स्कूल के 18 बच्चे बादल फटने के बाद हुए भूस्खलन में दब कर मर गये. मरने वाले सभी बच्चों की उम्र 10 साल से कम थी.
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भूगर्भ विज्ञानियों ने दी है चेतावनी
सभी हिमालयी राज्य भूकम्प की दृष्टि से अति संवेदनशील जोन में हैं. फरवरी में चमोली में आई बाढ़ के बाद जिला प्रशासन ने आपदा प्रबंधन विभाग से रैणी क्षेत्र का भूगर्भीय और जियो-टेक्निकल सर्वे करने को कहा. इस सर्वे के लिये उत्तराखंड डिजास्टर रिकवरी इनीशिएटिव के तीन जानकार वेंकटेश्वरलु (जियोटेक एक्सपर्ट), जीवीआरजी आचार्युलू (भूगर्भविज्ञानी) और मनीष सेमवाल (स्लोप स्टैबिलाइजेशन एक्सपर्ट) शामिल थे.
इन विशेषज्ञों ने सर्वे के बाद सरकार को जो रिपोर्ट दी है उसमें साफ कहा है, "रैणी गांव अपने मौजूदा हाल में काफी असुरक्षित है और इसके स्लोप स्टैबिलाइजेशन (ढलानों को सुरक्षित बनाने) की जरूरत है." रिपोर्ट में कहा है कि ऋषिगंगा और धौलीगंगा का संगम उस पहाड़ी की तलहटी (बिल्कुल नीचे) पर है जिस पर रैणी गांव बसा है.
रिपोर्ट चेतावनी देती है कि नदी के बहाव के कारण कमजोर पहाड़ का टो-इरोज़न (नदी के पानी से आधार का क्षरण) हो रहा है. इससे आने वाले दिनों में फिर आपदा आ सकती है. इसलिये या तो यहां के ढलानों को ठीक किया जाये या इस गांव को खाली कराया जाये.
देखिएः पर्वतारोहियों को डराने वाली चोटियां
पर्वतारोहियों को डराने वाली चोटियां
पहाड़ की चोटी पर पहुंचकर झंडा फहराना, ऐसा ख्वाब कई लोग देखते हैं. लेकिन दर्जनों लोग उन पहाड़ों से कभी लौटकर नहीं आ पाते.
तस्वीर: Getty Images/AFP/J-P Clatot
10. डेनाली
6,194 मीटर की इस चोटी को माउंट मैकिंले के नाम से भी जाता है. यह उत्तरी अमेरिका की सबसे ऊंची चोटी है. इस पर चढ़ने में 50 फीसदी पर्वतारोही ही कामयाब हो पाते हैं. यह पहाड़ अब तक 100 से ज्यादा पर्वतारोहियों की जान ले चुका है.
तस्वीर: picture-alliance/epa/G. Kemper
09. माउंट एवरेस्ट
दुनिया की सबसे ऊंची चोटी पर अब तक 1,500 से ज्यादा लोग चढ़ चुके हैं. ऑक्सीजन की कमी, बदलते मौसम और दर्रों से घिरी इस चोटी को छूने के चक्कर में अब तक 290 से ज्यादा पर्वतारोही मारे जा चुके हैं.
तस्वीर: STR/AFP/GettyImages
08. बाइंथा ब्राक
गिलगित बल्तिस्तान की इस चोटी को भी दुनिया के सबसे दुश्वार पर्वत शिखरों में गिना जाता है. 1977 में इंसान ने पहली बार इस पर चढ़ाई की. उसके बाद 2001 में जाकर कोई पर्वतारोही इस पर चढ़ने में सफल रहा. इस चोटी से उतरना बहुत ही मुश्किल है.
तस्वीर: Fotolia/Martin M303
07. माउंट विनसन
यह अंटार्कटिका की सबसे ऊंची चोटी है. इसकी उंचाई भले ही 4,892 मीटर हो. लेकिन यह धरती के सबसे दुश्वार इलाके में है. इसकी तरफ बढ़ने में अगर जरा भी चूक हुई तो राहत और बचाव की उम्मीद भी बेईमानी है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/R.Naar
06. मैटरहॉर्न
आप्ल्स की सबसे ऊंची चोटी न होने के बावजूद मैटरहॉर्न यूरोप की सबसे खतरनाक चोटी है. तकनीकी चढ़ाई, हिमस्खलन का खतरा और पत्थरों के टूटने का खतरा इसे यूरोप की सबसे जानलेवा चोटी बनाता है.
तस्वीर: DW
05. आइगर
आल्प्स की आइगर चोटी की चढ़ाई तीन तरफ से बहुत मुश्किल नहीं हैं. लेकिन उत्तरी दिशा से इस चोटी पर चढ़ना बहुत ही मुश्किल है. तकनीकी रूप से चोटी का नॉर्थफेस जटिल है और पत्थरों के टूटने का खतरा भी रहता है. इसे मौत की दीवार यूं ही नहीं कहा जाता.
तस्वीर: FABRICE COFFRINI/AFP/Getty Images
04. कंचनजंघा
दुनिया भी ज्यादातर चोटियों में समय के साथ मरने वालों की संख्या में कमी आई है. लेकिन कचनजंघा में इसका उल्टा हुआ है. हाल के सालों में कंचनजंघा में मरने वालों संख्या 22 फीसदी बढ़ी है. खतरनाक मौसम और हिमस्खलन अच्छे खासे पर्वतारोहियों की हालत खस्ता कर देता है.
तस्वीर: picture-alliance/NurPhoto/S. Majumder
03. नंगा पर्वत
दुनिया की नवीं ऊंची चोटी तक पहुंचने का रास्ता बहुत ही संकरा है. पर्वत के दक्षिणी हिस्से में हजारों मीटर गहरी खाई है. नंगा पर्वत को पर्वतारोही "आदमखोर" भी कहते हैं.
तस्वीर: Reuters/Forum/M. Obrycki
02. के2
दुनिया की दूसरी ऊंची चोटी के2 बेहद दुश्वार है. हर साल बहुत कम पर्वतारोही ही इसकी तरफ नजर उठाते हैं. खड़ी चढ़ाई, नुकीले कोने और बर्फ के स्तंभों से गुजरते हुए इसकी चोटी पर पहुंचा जा सकता है. तकनीकी मुश्किल इसकी चढ़ाई को दुस्साहसी बना देती है.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/C. Riedel
01. अन्नपूर्णा
1950 में पहली बार इंसान इस चोटी पर चढ़ा. लेकिन तब से अब तक 130 से ज्यादा लोग ही इस पर चढ़ पाए हैं. 53 इसके रास्ते में ही मारे गए. 8,000 मीटर ऊंची इस चोटी को दुनिया का सबसे खतरनाक पर्वत शिखर कहा जाता है.
तस्वीर: imago/McPhoto/Lovell
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जानकारों ने नदी के बहाव को माइक्रोपाइलिंग टेक्नोलॉजी (छोटे-छोटे पत्थर लगाकर प्रवाह को काबू करना) से नियंत्रित करने और इस जगह कुछ मीटर की दूरी पर दो तीन चेक डैम बनाने की सलाह की है.
रिपोर्ट के आखिर में कहा गया है कि सरकार रैणी गांव के लोगों को कहीं दूसरी जगह बसाये. विशेषज्ञों ने इसके लिये आसपास कुछ जगहों की पहचान भी की है जहां पर विस्थापितों का पुनर्वास किया जा सकता है लेकिन यह काम इतना आसान नहीं है.
बसावट के लिये जमीन कहां?
उत्तराखंड में समस्या ये है कि असुरक्षित इलाकों से हटाकर लोगों के पुनर्वास के लिये बहुत जमीन नहीं है. यह भी एक सच है कि किसी गांव के लोग विस्थापित को अपने यहां बसाना नहीं चाहते क्योंकि उन्हें लगता है कि इससे पहले से उपलब्ध सीमित संसाधनों पर दबाव बढ़ेगा.
चमोली की जिलाधिकारी स्वाति भदौरिया ने डीडब्लू को बताया, "रैणी गांव के पास अपनी कोई सुरक्षित जमीन नहीं है इसलिये वहां गांव वालों को नहीं बसाया जा सकता. पड़ोस के जिस गांव सुभाईं में हम लोगों को बसाना चाहते हैं वहां के लोग अभी अपने गांव में इनके (रैणीवासियों के) पुनर्वास के लिये तैयार नहीं हैं. इस तरह की अड़चन पुनर्वास में आती ही है. हम पहले भी इस समस्या का सामना कर चुके हैं."
हालांकि भदौरिया कहती हैं कि इससे पहले उनके जिले में 13 गांवों का विस्थापन कराया गया है लेकिन यह बहुत आसान नहीं है. दूसरे अधिकारी कहते हैं कि ग्रामीण जमीन खरीदें और सरकार उनका पैसा दे दे यह एक विकल्प जरूर है लेकिन सवाल है कि अगर सुरक्षित जमीन उपलब्ध नहीं होगी तो ग्रामीण जमीन खरीदेंगे कहां.
एक पहलू ये भी है कि पलायन के कारण बहुत से गांव खाली हो चुके हैं जिन्हें भुतहा गांव कहा जाता है. कुछ सामाजिक कार्यकर्ता इन गांवों में लोगों को बसाने की बात करते हैं लेकिन इसमें कई व्यवहारिक और कानूनी अड़चनें हैं.
चारु तिवारी कहते हैं कि जमीन और विस्थापन की समस्या विकास योजनाओं और वन संरक्षण की नीति से जुड़ी हुई है. उनके मुताबिक वन भले ही 47% पर हों लेकिन आज 72% ज़मीन वन विभाग के पास है. वह याद दिलाते हैं कि भूस्खलन और आपदाओं के कारण लगातार जमीन का क्षरण हो रहा है और सरकार के पास आज उपलब्ध जमीन का कोई प्रामाणिक रिकॉर्ड नहीं है.
तिवारी कहते हैं, "1958-64 के बीच आखिरी बार राज्य में जमीन की पैमाइश हुई. उसके बाद से पहाड़ में कोई पैमाइश नहीं हुई है. ऐसे में न्यायपूर्ण पुनर्वास कैसे कराया जा सकता है?"