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1971 की लड़ाई और पाकिस्तानी फौजी का दर्द

आतिफ तौकीर
१९ दिसम्बर २०१६

लड़ाइयां कई बार हार और जीत से परे कुछ लोगों के दिल और दिमाग पर एक बोझ छोड़ जाती है. ऐसा ही दर्द 1971 की लड़ाई को लेकर एक पाकिस्तानी फौजी को भी जिंदगी भर सताता रहा.

Bangladesch Unabhängigkeitskrieg Mukti Bahini Soldaten
बांग्लादेश की आजादी के लिए लड़ने वाले मुक्ति वाहिनी के सैनिकतस्वीर: picture-alliance/AP Photo/H. Faas, M. Laurent

"वह कयामत का दिन था. मैंने बहुत सी जंगें लड़ीं, मैंने उपमहाद्वीप का बंटवारा देखा, मैंने अपने बहुत से दोस्तों को अपनी बांहों में मरते देखा. लेकिन वह दिन अलग ही था. अंधेरा था. उदासी थी. बहुत उदास दिन था.” मेरे चाचा रशीद ने चाय का घूंट गटकते हुए यह बात कही. उनकी आंखें आंसुओं से भीगी थीं, जो उनके गालों पर ढलक रहे थे.

रशीद, जिन्हें मैं हमेशा मेजर साहब कहता था. उन्होंने पाकिस्तान की तहरीक को बचपन से देखा था और उनके मुताबिक पाकिस्तान उनका यकीन था. वह पाकिस्तानी सेना में थे और 1971 की लड़ाई में ढाका में तैनात थे. उन्होंने एक फौजी के तौर पर 1948 और 1965 की जंगें लड़ीं, फिर भी जब वह 1971 की लड़ाई की बात करते तो उनकी जुबान लड़खड़ाने लगती थी. जब भी मैं उनसे इस बारे में बात करता था तो बात कभी पूरी नहीं हो पाती थी. न जाने क्यों, इस मौजूं पर बात अधूरी ही रही. दुख और तकलीफें उसे बीच में ही रोक देती थीं. बात मुश्किल हालात या चुनौती से लड़ने की हो, या सही बात के लिए आवाज उठाने की, मेजर साहब से हमेशा मुझे हिम्मत मिलती रही है. लेकिन जब कभी हमने बंगाल के बारे में बात की, तो ऐसा लगता था कि वह आंसुओं को पीछे छुप रहे हैं और फिर बात बदलने की कोशिश कर रहे हैं क्योंकि इस बारे में वह बात नहीं करना चाहते थे. इस एक घटना ने उन्हें हमेशा के लिए बदल दिया. किसी जमाने में मेजर साहब एक मजबूत फौजी हुआ करते थे, फिर भी वह अमन के हामी बने.

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वह बताते थे, "हर तरफ अजीब सी अफरातफरी थी. हमें हुक्म मिला कि विद्रोही आंदोलन मुक्ति वाहिनी के लड़ाकों का सफाया कर दो और हमें पता ही नहीं था कि क्या करना है और किसका सफाया करना है. किसी भी फौजी के लिए सबसे मुश्किल काम होता है अपने ही लोगों के खिलाफ लड़ना.”

"लेकिन सब फौजियों पर यह बात लागू नहीं होती. कोई कानून नहीं था और कोई नियंत्रण नहीं था. फौजियों को खुली छूट थी कि इस आजादी के आंदोलन को कुचलने के लिए कुछ भी करें. बलात्कार, हत्या, उत्पीड़न और जो भी कुछ ठीक लगे.” यह कहते हुए वह अपनी आंखें बंद कर लेते हैं और उनकी पीड़ा ने एक बार फिर उनकी पलकों को गीला कर दिया.

मैंने उनसे इस मुद्दे पर कितनी ही बार बात की और हर बार हम एक ही नतीजे पर पहुंचे थे: एक राजनीतिक मुद्दा ताकत और सैन्य कार्रवाइयों के जरिए हल नहीं हो सकता. पूर्वी पाकिस्तान पूरी तरह से एक राजनीतिक मुद्दा था और वहां ताकत का इस्तेमाल पूरी तरह से गलत था.

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कुछ दिन पहले मुझे अपने एक दोस्त फैसल का फेसबुक पर एक संदेश मिला. यह दोस्त कभी जर्मन शहर बॉन में संयुक्त राष्ट्र के लिए काम करता था और फिर डेनमार्क में रहने लगा. उसने बताया कि उसके दो दोस्त और कलीग बॉन में आ गए हैं और मुझे उनसे मिलना चाहिए. उसने ग्रुप मैसेज में मेरा परिचय शहाना और उनके पति वहीद से कराया. मैंने उन दोनों का स्वागत किया और शहर के एक भारतीय रेस्त्रां में उन्हें खाने पर बुलाया.

वहीद लाहौर से हैं और उनकी पत्नी शाहाना का जन्म बेल्जियम में एक बंगाली परिवार में हुआ. शहाना कई बार पाकिस्तान जा चुकी हैं और उसे अपना "दूसरा घर” कहती हैं.

खाने की मेज पर, हंसी मजाक की बातों के बीच हमने दूसरे विश्व युद्ध के बाद जर्मनी में होने वाली तरक्की पर भी बात की.

नाजियों ने धर्म और नस्ल की बुनियाद पर लाखों लोगों का कत्ल कर दिया था और फिर जर्मनी ने इस बात को बाकायदा माना. जर्मनी ने एक नया संविधान बनाया जिसमें स्टेट की तरफ से ढाए गए जुल्मों को स्वीकार किया गया, इनके लिए पीड़ितों से माफी मांगी गई और अल्पसंख्यकों को सुरक्षा दी गई.

अपने अतीत से सबक लेकर आगे बढ़ जाने के मामले में जर्मनी एक शानदार मिसाल है.

अचानक शाहाना ने कहा, "अरे सुनो, क्या तुम 16 दिसंबर को हमारे यहां आओगे?”

मैंने कहा, "16 दिसंबर? ”

वह बोली, "हां, हम 1971 में मारे गए लोगों की याद में अपने घर में अमन की मोमबत्तियां जलाते हैं.”

1971, मुझे लगा कि मुझ में मेजर साहब दाखिल हो गए. मेरे चेहरे की हवाइयां उड़ गईं. उस तकलीफ ने मेरी आंखें नम कर दीं और पूरे आलम में एक अजीब सी असहजता छा गई.

शायद वह निमंत्रण इतना अचानक मिला कि मैं उसके लिए तैयार नहीं था. मेरे शब्द ही खत्म हो गए थे. मेरे पास कहने को कुछ नहीं था.

"आतिफ, मैंने एक पाकिस्तानी से शादी की है और मैं पाकिस्तान को प्यार करती हूं लेकिन जब भी मैं इस बारे में सोचती हूं तो मेरे अंदर हमेशा एक दर्द रहता ही है. यह ऐसी चीज है जिसे मैं समझा नहीं सकती.”

मैं इस बात को समझ सकता हूं. मैंने यही दर्द मेजर साहब के चेहरे पर भी कई बार देखा था.

आखिरकार मैंने कहा, "शहाना, एक पाकिस्तानी होने के नाते मैं सिर्फ आपके दुख और पीड़ा को साझा कर सकता हूं. मुझे बहुत अफसोस होता है.”

शहाना ने मेरा हाथ थामा और बोली, "अगर तुम मानते हो कि वे इंसानी जिंदगियां ज़ाया नहीं होनी चाहिए थीं और अगर तुम्हें उनके लिए दुख है, तो मुझे यह जानकर अच्छा लगा. मैं खुश हूं.”

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