लड़ाइयां कई बार हार और जीत से परे कुछ लोगों के दिल और दिमाग पर एक बोझ छोड़ जाती है. ऐसा ही दर्द 1971 की लड़ाई को लेकर एक पाकिस्तानी फौजी को भी जिंदगी भर सताता रहा.
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"वह कयामत का दिन था. मैंने बहुत सी जंगें लड़ीं, मैंने उपमहाद्वीप का बंटवारा देखा, मैंने अपने बहुत से दोस्तों को अपनी बांहों में मरते देखा. लेकिन वह दिन अलग ही था. अंधेरा था. उदासी थी. बहुत उदास दिन था.” मेरे चाचा रशीद ने चाय का घूंट गटकते हुए यह बात कही. उनकी आंखें आंसुओं से भीगी थीं, जो उनके गालों पर ढलक रहे थे.
रशीद, जिन्हें मैं हमेशा मेजर साहब कहता था. उन्होंने पाकिस्तान की तहरीक को बचपन से देखा था और उनके मुताबिक पाकिस्तान उनका यकीन था. वह पाकिस्तानी सेना में थे और 1971 की लड़ाई में ढाका में तैनात थे. उन्होंने एक फौजी के तौर पर 1948 और 1965 की जंगें लड़ीं, फिर भी जब वह 1971 की लड़ाई की बात करते तो उनकी जुबान लड़खड़ाने लगती थी. जब भी मैं उनसे इस बारे में बात करता था तो बात कभी पूरी नहीं हो पाती थी. न जाने क्यों, इस मौजूं पर बात अधूरी ही रही. दुख और तकलीफें उसे बीच में ही रोक देती थीं. बात मुश्किल हालात या चुनौती से लड़ने की हो, या सही बात के लिए आवाज उठाने की, मेजर साहब से हमेशा मुझे हिम्मत मिलती रही है. लेकिन जब कभी हमने बंगाल के बारे में बात की, तो ऐसा लगता था कि वह आंसुओं को पीछे छुप रहे हैं और फिर बात बदलने की कोशिश कर रहे हैं क्योंकि इस बारे में वह बात नहीं करना चाहते थे. इस एक घटना ने उन्हें हमेशा के लिए बदल दिया. किसी जमाने में मेजर साहब एक मजबूत फौजी हुआ करते थे, फिर भी वह अमन के हामी बने.
देखिए कितना सुंदर है बांग्लादेश
कितना सुंदर है बांग्लादेश
बांग्लादेश की ये तस्वीरें आपके अंदर मौजूद देश की छवि को बदल देंगी. आमतौर पर सिर्फ भीड़ भरे बाजारों की तस्वीरें दिखती हैं लेकिन ये तस्वीरें देखकर आप कहेंगे, आहा!
तस्वीर: DW/M. Mamun
सबसे लंबा बीच
कॉक्स बाजार का यह बीच दुनिया का सबसे लंबा बीच है. इसकी लंबाई है 120 किलोमीटर.
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अकेला कॉरल आईलैंड
यह बांग्लादेश का एकमात्र कॉरल द्वीप है. टेकनाफ में इस द्वीप का नाम है सेंट मार्टिन.
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निर्जन द्वीप
टेकनाफ बहुत चुप सी जगह है. एकदम साफ, स्वच्छ और निर्जन. तन्हाई पसंद लोगों के लिए जन्नत.
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नील पर्वत
2220 फुट ऊंचा यह हिल स्टेशन बादलों की सैरगाह है. बंदरबान जिले में इस हिल स्टेशन पर खूब लोग आते हैं.
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नीलाचल
बंदरबान से छह किलोमीटर दूर नीलाचल है. समुद्रतल से 1600 फुट ऊंची इस जगह पर पंछी गाते हैं.
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पहाड़ी झील
रंगामाटी झील पर झूलता पुल रोमांचकारी भी है और नीचे बोट की सवारी भी है. इसीलिए जगह सबको प्यारी भी है.
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पत्थरों की चादर
सिलहट जिले के बिछनाकांदी में पत्थरों की यह चादर भारतीय सीमा के पास ही है.
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60 गुंबद
दक्षिणी बागेरहाट जिले की यह 60 गुंबदों वाली मस्जिद यूनेस्को की विरासत सूची में शामिल है.
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सुंदरबन
भारत और बांग्लादेश की सीमाओं के आर-पार फैला सुंदरबन दुनिया के सबसे बड़े मैंग्रोव हैं.
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रंगामाटी की छत
त्रिपुरा के नजदीक ही समुद्रतट से 1800 फुट की ऊंचाई पर है खागराछोरी की जगह जिसे रंगामाटी की छत कहते हैं.
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तैरते बाजार
दक्षिणी जिले झालोकाठी में शहर से बस 15 किलोमीटर दूर है भीमरूली गांव जहां ये तैरते बाजार हैं.
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कुआकाटा
दक्षिणी जिले पोटुआखली में है कुआकाटा. सूरज की रोशनी में लाल हुआ यह रेत दिन रात का भेद मिटा देता है.
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ढाकेश्वरी मंदिर
ढाका में दुर्गा का यह मंदिर राजा बल्लाल सेन ने बनवाया था. कहते हैं ढाका इसी मंदिर के कारण ढाका है.
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लालबाग दुर्ग
ढाका का लालबाग दुर्ग औरंगजेब के बेटे आजाद ने 1678 में बनवाया था.
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सोनारगांव
ढाका में यह सोने सा चमकता सनहरी गांव है जहां बहुत सारी प्राचीन इमारतें इतिहास अलटती पलटती रहती हैं.
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वह बताते थे, "हर तरफ अजीब सी अफरातफरी थी. हमें हुक्म मिला कि विद्रोही आंदोलन मुक्ति वाहिनी के लड़ाकों का सफाया कर दो और हमें पता ही नहीं था कि क्या करना है और किसका सफाया करना है. किसी भी फौजी के लिए सबसे मुश्किल काम होता है अपने ही लोगों के खिलाफ लड़ना.”
"लेकिन सब फौजियों पर यह बात लागू नहीं होती. कोई कानून नहीं था और कोई नियंत्रण नहीं था. फौजियों को खुली छूट थी कि इस आजादी के आंदोलन को कुचलने के लिए कुछ भी करें. बलात्कार, हत्या, उत्पीड़न और जो भी कुछ ठीक लगे.” यह कहते हुए वह अपनी आंखें बंद कर लेते हैं और उनकी पीड़ा ने एक बार फिर उनकी पलकों को गीला कर दिया.
मैंने उनसे इस मुद्दे पर कितनी ही बार बात की और हर बार हम एक ही नतीजे पर पहुंचे थे: एक राजनीतिक मुद्दा ताकत और सैन्य कार्रवाइयों के जरिए हल नहीं हो सकता. पूर्वी पाकिस्तान पूरी तरह से एक राजनीतिक मुद्दा था और वहां ताकत का इस्तेमाल पूरी तरह से गलत था.
देखिए दहशत में जी रहे हैं बांग्लादेश के हिंदू
दहशत में जी रहे हैं बांग्लादेश के हिंदू
बांग्लादेश में पिछले दिनों फेसबुक पर कथित तौर पर धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाली एक पोस्ट के बाद हिंदुओं के घरों और मंदिरों पर हमले किए गए. देखिए हमले का शिकार बने लोग अब किस हाल में रहे हैं.
तस्वीर: Khukon Singha
फेसबुक पोस्ट पर बवाल
28 अक्टूबर को फेसबुक पर एक तस्वीर पोस्ट की गई जिसे इस्लाम के लिए अपमानजनक बताया गया. ये तस्वीर रसराज दास नाम के व्यक्ति के अकाउंट से पोस्ट की गई. हालांकि उसका कहना है कि उसके अकाउंट को हैक कर लिया गया था.
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तोड़फोड़ और तबाही
रसराज दास को गिरफ्तार किया गया. लेकिन ब्राह्मणबड़िया शहर के नसीरनगर और हबीबगंज जैसे इलाके में हिंसा होने से नहीं रोकी जा सकी. वहां हिंदुओं के घर और मंदिरों को निशाना बनाया गया.
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दोष किसका?
स्थानीय लोगों का कहना है कि रसराज कक्षा चार या पांच तक ही पढ़े हैं. इसलिए ये संभव ही नहीं है कि वो फोटोशॉप सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल करके ये विवादित तस्वीर तैयार करते. फिर भी रसराज ने इस मुद्दे पर माफी मांगी है.
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अकाउंट हैक
हिंसा के बाद नसीरनगर का दौरा करने वाले एक पूर्व जज ने भी यही कहा है कि रसराज फोटोशॉप इस्तेमाल नहीं कर सकते. ऐसे में उनका अकाउंट हैक करके किसी साइबर कैफे ये फोटो पोस्ट की गई है. सरकार के एक मंत्री और गैर सरकारी संगठन ने भी यही बात कही है.
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“पुलिस ने कुछ नहीं किया”
नसीरनगर के लोगों का कहना है कि जब दंगाई उनके घरों और मंदिरों में तोड़फोड़ कर रहे थे तो पुलिस ने उन्हें रोकने के लिए कुछ नहीं किया.
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डर के साए में
नसीरनगर में रहने वाले हिंदुओं का कहना है कि वे अब भी डर में जिंदगी गुजार रहे हैं.
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हिंसा
तीन नवंबर को नसीरनगर में फिर से हमला हुआ और हिंदुओं की संपत्ति को काफी नुकसान पहुंचाया गया. इसके अलावा गोपालगंज, रंगपुर, बरिशाल और ठाकुरगांव जैसी कई जगहों पर भी हिंदुओं पर हमले हुए.
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कंट्टरपंथियों के इशारे पर?
फेसबुक पर विवादित पोस्ट के बाद हिफाजत ए इस्लाम और अहले सुन्नत वाल जमात नाम के दो कट्टरपंथी गुटों ने सभा की थी और उसके बाद ही हिंदुओं पर हमले हुए.
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मरम्मत
हिंसा का शिकार बने लोगों ने अपने घरों की मरम्मत का काम शुरू कर दिया है. आखिर घर नहीं होगा तो रहेंगे कहां?
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लोगों की शिकायत
स्थानीय प्रशासन का कहना है कि पीड़ित परिवारों को मरम्मत के लिए छह हजार टका और टीन दिया गया है. लेकिन पीड़ितों की शिकायत है कि जितना नुकसान हुआ है, उसे देखते हुए मदद बहुत कम है. कई लोगों को ये मदद भी नहीं मिली है.
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सियासी कनेक्शन?
बांग्लादेश में सत्ताधारी आवामी लीग ने अपने तीन स्थानीय नेताओं को अस्थायी तौर पर पार्टी से निकाल दिया है. एक जांच समिति को यह पता करने का काम सौंपा गया है कि हिंसा में उनका हाथ या था नहीं.
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मंदिर की हालत
तोड़फोड का शिकार बना एक मंदिर और उसके पुजारी. मंदिर की मरम्मत तो शायद हो जाएगी, लेकिन बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा को लेकर जो खतरे हाल के बरसों में पैदा हुए हैं, उनसे निपटना चुनौतीपूर्ण है. हाल में समय में बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों पर हमलों के मामले बढ़े हैं.
तस्वीर: Khukon Singha
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कुछ दिन पहले मुझे अपने एक दोस्त फैसल का फेसबुक पर एक संदेश मिला. यह दोस्त कभी जर्मन शहर बॉन में संयुक्त राष्ट्र के लिए काम करता था और फिर डेनमार्क में रहने लगा. उसने बताया कि उसके दो दोस्त और कलीग बॉन में आ गए हैं और मुझे उनसे मिलना चाहिए. उसने ग्रुप मैसेज में मेरा परिचय शहाना और उनके पति वहीद से कराया. मैंने उन दोनों का स्वागत किया और शहर के एक भारतीय रेस्त्रां में उन्हें खाने पर बुलाया.
वहीद लाहौर से हैं और उनकी पत्नी शाहाना का जन्म बेल्जियम में एक बंगाली परिवार में हुआ. शहाना कई बार पाकिस्तान जा चुकी हैं और उसे अपना "दूसरा घर” कहती हैं.
खाने की मेज पर, हंसी मजाक की बातों के बीच हमने दूसरे विश्व युद्ध के बाद जर्मनी में होने वाली तरक्की पर भी बात की.
नाजियों ने धर्म और नस्ल की बुनियाद पर लाखों लोगों का कत्ल कर दिया था और फिर जर्मनी ने इस बात को बाकायदा माना. जर्मनी ने एक नया संविधान बनाया जिसमें स्टेट की तरफ से ढाए गए जुल्मों को स्वीकार किया गया, इनके लिए पीड़ितों से माफी मांगी गई और अल्पसंख्यकों को सुरक्षा दी गई.
अपने अतीत से सबक लेकर आगे बढ़ जाने के मामले में जर्मनी एक शानदार मिसाल है.
अचानक शाहाना ने कहा, "अरे सुनो, क्या तुम 16 दिसंबर को हमारे यहां आओगे?”
मैंने कहा, "16 दिसंबर? ”
वह बोली, "हां, हम 1971 में मारे गए लोगों की याद में अपने घर में अमन की मोमबत्तियां जलाते हैं.”
1971, मुझे लगा कि मुझ में मेजर साहब दाखिल हो गए. मेरे चेहरे की हवाइयां उड़ गईं. उस तकलीफ ने मेरी आंखें नम कर दीं और पूरे आलम में एक अजीब सी असहजता छा गई.
शायद वह निमंत्रण इतना अचानक मिला कि मैं उसके लिए तैयार नहीं था. मेरे शब्द ही खत्म हो गए थे. मेरे पास कहने को कुछ नहीं था.
"आतिफ, मैंने एक पाकिस्तानी से शादी की है और मैं पाकिस्तान को प्यार करती हूं लेकिन जब भी मैं इस बारे में सोचती हूं तो मेरे अंदर हमेशा एक दर्द रहता ही है. यह ऐसी चीज है जिसे मैं समझा नहीं सकती.”
मैं इस बात को समझ सकता हूं. मैंने यही दर्द मेजर साहब के चेहरे पर भी कई बार देखा था.
आखिरकार मैंने कहा, "शहाना, एक पाकिस्तानी होने के नाते मैं सिर्फ आपके दुख और पीड़ा को साझा कर सकता हूं. मुझे बहुत अफसोस होता है.”
शहाना ने मेरा हाथ थामा और बोली, "अगर तुम मानते हो कि वे इंसानी जिंदगियां ज़ाया नहीं होनी चाहिए थीं और अगर तुम्हें उनके लिए दुख है, तो मुझे यह जानकर अच्छा लगा. मैं खुश हूं.”
चटगांव यानी जहाजों का कब्रिस्तान, देखिए
चटगांव: जहाजों का कब्रिस्तान
हर साल हजारों मालवाहक जहाज सेवा से बाहर हो जाते हैं. इनमें से कई जहाजों को बांग्लादेश जैसे विकासशील देशों में तोड़ने के लिए बेच दिया जाता है. जहाज तोड़ने का काम खतरनाक है और कई बार यह जानलेवा साबित होता है.
तस्वीर: DW/G. Ketels
रेस्ट इन पीस?
बांग्लादेश के दक्षिणी शहर चटगांव में जहाज तोड़ने वाले दर्जनों प्लेटफॉर्म हैं. यह अरबों रुपये का उद्योग है, जहां देश भर के दो लाख लोगों को रोजगार मिलता है. कई बार मजदूर जहाज तोड़ने का काम खुले हाथों से करते हैं. चोट या फिर मृत्यु कोई दुर्लभ घटना नहीं.
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आलमगीर-जहाजों की कब्र खोदने वाला
डॉयचे वेले टीम की मुलाकात आलमगीर से हुई. वह रोजाना 14 घंटे काम करने के बाद करीब 400 रुपये कमाते हैं. वह नौ साल की उम्र से यहां काम कर रहे हैं. उन्हें न तो बीमारी की छुट्टी के लिए पैसे मिलते हैं और ना ही छुट्टी के बदले भुगतान किया जाता है.
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टुकड़ों टुकड़ों में
मालवाहक जहाज का जीवनकाल 25 से 30 साल होता है. उसके बाद बीमा और रख रखाव की लागत बहुत ज्यादा हो जाती है. बांग्लादेश, भारत और पाकिस्तान जैसे विकासशील देशों में गैर प्रशिक्षित श्रमिक जहाजों को तोड़ देते हैं.
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खतरनाक तोड़ फोड़
जहाज तोड़ने की प्रक्रिया का पहला कदम इसके आंतरिक भाग को अलग करना होता है. यह कमर तोड़ देने वाला काम है क्योंकि सागर में सफर करने वाले जहाजों को इस तरह बनाया जाता है कि वह चरम मौसम की मार झेल सके और इस भाग को तोड़ना नामुमकिन जैसा होता है. सुरक्षा के लिहाज से यह काम काफी खतरनाक है और कई बार तो जानलेवा भी.
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धीमी मौत
ज्यादातर मजदूरों को रक्षा उपकरण नहीं दिए जाते हैं. खुले हाथों से मजदूर जहाज तोड़ने का काम करते हैं. वे जहाज को तोड़ने के लिए गैस कटर का इस्तेमाल करते हैं. अपर्याप्त प्रशिक्षिण के कारण उनके दुर्घटना में घायल होने का जोखिम बना रहता है.
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जहरीले रसायन
जहाज तोड़ने वालों को विषाक्त पदार्थों से भी खतरा रहता है जिससे फेफड़ों की बीमारी और कैंसर तक हो सकता है. जो मजदूर बीमार पड़ जाते हैं, उनके इलाज का पर्याप्त इंतजाम नहीं है. उन्हें ना के बराबर मुआवजा मिलता है.
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इस्पात की जिंदगी
एनजीओ शिपब्रेकिंग प्लेटफॉर्म के मुताबिक हर साल 200 जहाज चटगांव के तट पर आते हैं. देश में इस्पात का बड़ा भाग बड़े मालवाहक जहाजों को तोड़ कर आता है. बढ़ती अर्थव्यवस्था के साथ इस्पात की घरेलू मांग बढ़नी तय है.
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पुराना इतिहास
चटगांव में 1969 से ही शिपब्रेकिंग यार्ड्स हैं. इस उद्योग की शुरुआत एक घटना के साथ हुई. कुछ साल पहले यहां एक बांग्लादेशी इस्पात कंपनी ने एक जहाज को खरीदा और उसे तोड़ने का काम शुरू किया. इस प्रक्रिया में सालों लग गए और इसी के साथ यह उद्योग शुरू हो गया.
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काम पर बच्चे
जहाज तोड़ने के धंधे में बाल श्रम आम बात है. बांग्लादेश में 15 साल से कम उम्र के बच्चे श्रमबल का 20 फीसदी हिस्सा हैं. यह अनुमान लगाया जाता है कि जहाज तोड़ने के काम में लगे आधे लोग 22 साल से कम के हैं. कई नाबालिग बच्चे यहां गैस कटर के सहायक और माल ढोने का काम करते हैं. बच्चे शिक्षा से वंचित हैं और वे चरम परिस्थितियों में काम करते हैं.
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बचा हुआ माल
जहाजों के अंदर से मिलने वाला माल मजदूर बेच देते हैं. जहाज के अंदर लगी सजावट से लेकर जहाज मालिकों की तरफ से छोड़ दी गई निजी चीजें बेच दी जाती हैं.
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बाहरी लोगों को इजाजत नहीं
एक जमाने में चटगांव पर्यटकों के बीच लोकप्रिय हुआ करता था. लेकिन आज यहां किसी भी बाहरी को शिपयार्ड में आने की इजाजत नहीं. जहरीले बाइप्रोडक्ट की वजह से जगह हानिकारक बन गई है. शिपयार्ड को नियमित करने और समुद्र तटों पर जहाज तोड़ने के काम को गैरकानूनी घोषित करने के प्रयासों को बांग्लादेश सरकार ने नजरअंदाज कर दिया है.