हमारी खाने की थाली तक पहुंचने वाली सब्जियां और फसलें उगाने वाले किसानों का जीवन दुनिया के ज्यादातर हिस्सों में कठिन है. उनकी आय बढ़ाने और पर्यावरण-सम्मत खेती को बढ़ावा देने के लिए यूरोपीय संघ ने बनाई नई साझा कृषि नीति.
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यूरोपीय देशों के कृषि मंत्रियों की बैठक में पूरे संघ पर लागू होने वाले कृषि सुधारों पर सहमति बन गई. बड़े स्तर पर लाए जाने वाले बदलावों में सबसे ज्यादा ध्यान इसे पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के लिहाज से मुफीद बनाने पर रहा. नई कृषि नीति को संघ के सभी 27 देशों ने स्वीकार कर लिया है. अब अगला कदम ब्रसेल्स स्थित यूरोपीय संसद में इसे पास करना होगा. इसी हफ्ते संसद में कृषि सुधारों से जुड़े प्रस्तावों पर मतदान होना है.
ईयू के सभी सदस्य देशों और यूरोपीय संसद को अब से लेकर अगले साल के बीच इस नीति के अंतर्गत आने वाले सभी नियम तय करने होंगे, जिसके बाद जनवरी 2023 से नई नीति अनिवार्य रूप से लागू हो जाएगी. 2021 से शुरु कर पहले दो सालों तक इसका पायलट फेज चलेगा. समझौते के बाद जर्मनी की कृषि मंत्री यूलिया क्लोएक्नर ने पत्रकारों से बातचीत में नई कृषि नीति को पहले से ज्यादा "ग्रीन, फेयर" और सरल बताया.
कैसे दिया जाएगा खेती को 'ग्रीन' बनाने पर जोर
यूरोपीय संघ ने नई कृषि नीति के तहत लाए जाने सुधारों के मद में अगले सात सालों में 387 अरब यूरो (करीब 459 अरब डॉलर) खर्च करने का बजट तय किया है. साझा कृषि नीति पर खर्च होने वाला यह ईयू के कुल बजट का सबसे बड़ा हिस्सा होगा. नई नीति में यह तय किया गया है कि सभी किसानों पर इसका संस्थागत दबाव होना चाहिए कि अगर वे सरकारों से वित्तीय मदद लेना चाहते हैं तो उन्हें पर्यावरण के लिहाज से और भी ज्यादा सख्त नियमों का पालन करना होगा.
खेती को कैसे बदल सकता है कोरोनावायरस
कोविड-19 से लड़ने के लिए लागू हुई तालाबंदी ने कृषि समेत कई क्षेत्रों को अस्त-व्यस्त कर दिया. फैक्टरी पशुपालन पर अंकुश से ले कर शहरी बागबानी में वृद्धि तक, जानिए कैसे ये महामारी हमारी खाद्य श्रृंखला को बदल सकती है.
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फैक्टरी पशुपालन पर लगाम
हालांकि वैज्ञानिक अभी भी नहीं जानते कि वास्तव में कोविड-19 की शुरुआत कैसे हुई, स्वाइन फ्लू और बर्ड फ्लू जैसी संक्रामक बीमारियों की शुरुआत लगभग निस्संदेह रूप से सूअरों और मुर्गियों के फैक्टरी पशुपालन केंद्रों से हुई थी. अब जब गहन फैक्टरी पशुपालन और महामारी के जोखिम के बीच में संबंध स्थापित हो ही गया है, यह मौजूदा स्तर पर हो रही फैक्टरी फार्मिंग पर पुनर्विचार करने का सही समय हो सकता है.
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मांस उद्योग के हालात
इस महामारी ने मांस संसाधन उद्योग में खराब परिस्थितियों को भी उजागर किया है. जर्मनी में मांस फैक्टरियों के कर्मचारियों के बीच कोरोनावायरस के फैलने के कई प्रकरण हुए हैं. पश्चिमी जर्मनी में तो टोनीज बूचड़खाने के 1,550 से भी ज्यादा कर्मचारियों के संक्रमित पाए जाने के बाद दो जिलों को क्वारंटीन में रखना पड़ा. पूरे मांस उद्योग के बेहतर नियंत्रण की मांगें बढ़ती जा रही हैं.
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वन्य-जीवों के पशुपालन को छोड़ना
विशेषज्ञों का मानना है कि संभव है कि नया कोरोनावायरस चीन के वूहान में एक 'वेट मार्केट' में बेचे जा रहे वन्य-जीवों से आया हो. महामारी के प्रकोप को देखते हुए चीन ने लगभग 20,000 ऐसे केंद्रों को बंद कर दिया जहां बेचने के लिए वन्य-जीवों का पशु-पालन होता था. चीन में कुछ प्रांत अब इस तरह के केंद्र चलने वाले पशु-पालकों को इन्हें छोड़ कर फसल उगाने या सूअर और मुर्गियां पालने के लिए सरकारी समर्थन दे रहे हैं.
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एक पहले से अधिक सुदृढ़ क्षेत्र
महामारी ने हमारी खाद्य आपूर्ति श्रृंखला पर गहरा असर डाला है. एक ऐसा उद्योग जिसका विकास वैश्वीकरण के दौर में पूरी दुनिया की खाद्य आपूर्ति का ख्याल रखने के लिए हुआ था, वह उद्योग कुछ मामलों में सिर्फ स्थानीय स्तर तक सिकुड़ गया है. कहीं जानवरों के चारे की कमी हो गई है तो कहीं श्रमिकों की. किसानों को मजबूरन विचार करना पड़ रहा है कि एक नए और अनिश्चित भविष्य के अनुकूल कैसे बदलें.
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शहरी खेती-बाड़ी का उदय
मजबूरन घर पर ज्यादा समय बिताने के कारण, ज्यादा से ज्यादा लोग अपने जरूरत के कृषि उत्पाद खुद उगाने की कोशिश कर रहे हैं. यह लंबे समय में एक सकारात्मक बदलाव साबित हो सकता है. अनुमान है कि 2050 तक दुनिया की दो-तिहाई आबादी शहरों में रह रही होगी और ऐसे में शहरी खेती-बाड़ी और ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाएगी. इसमें पारंपरिक कृषि के मुकाबले परिवहन के लिए जीवाश्म ईंधन भी कम लगता है और जमीन भी कम चाहिए होती है.
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प्रकृति को जमीन वापस देना
अनुमान है कि 2050 तक विश्व की आबादी 10 अरब हो जाएगी. ऐसे में इस बात से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि पूरी दुनिया में खाद्य पदार्थों की उत्पत्ति को बढ़ाने की जरूरत है. एक समय था जब और भूमि उपलब्ध कराने को इस समस्या का समाधान समझा जाता था, लेकिन शहरी खेती-बाड़ी पर पहले से मजबूत ध्यान और प्रकृति के अतिक्रमण के परिणामों को लेकर चिंता से भूमि के उपयोग को लेकर पुनर्विचार किया जा सकता है.
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वनस्पति-आधारित उत्पाद
जैसे जैसे मांस की खपत के संभावित स्वास्थ्य संबंधी असर को लेकर जानकारी बढ़ रही है, चीन में वनस्पति-आधारित उत्पादों को लेकर पहले से ज्यादा रुचि देखने को मिल रही है. पिछले कुछ सालों में पश्चिम के देशों में प्लांट-बेस्ड डाइट का चलन बढ़ गया है और संभव है कि यह रुचि और बढ़े क्योंकि उपभोक्ता इस बात को लेकर ज्यादा चिंतित होते जा रहे हैं कि वो जो मांस खाते हैं वो कहां से आता है.
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विकासशील देशों में खाद्य सुरक्षा बढ़ाना
कोविड-19 महामारी के विकासशील देशों पर भारी प्रभाव पड़ने का अंदेशा है, विशेष रूप से खाद्य सुरक्षा के संदर्भ में. संयुक्त राष्ट्र ने पहले ही संसाधनों के कम होने के साथ साथ भयानक अकाल की चेतावनी दे दी है. तुरंत मदद के साथ साथ, लंबी अवधि में अकाल को खत्म करने के लिए बेहतर भूमि सुरक्षा, फसलों में विविधता और सबसे ज्यादा खतरे में रहने वाले छोटे किसानों को और ज्यादा समर्थन देने की जरूरत पड़ेगी.
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छोटे किसानों के लिए प्रशासनिक तामझाम थोड़े कम रखे जाएंगे, जिससे वे प्रक्रियाओं का "कम बोझ उठाएं और पर्यावरण व जलवायु के लक्ष्यों में ज्यादा योगदान दे सकें." भविष्य में आने वाली सभी नई 'ईको-स्कीमों' में किसानों को सरकार से किसी भी तरह की प्रत्यक्ष प्रोत्साहन राशि हासिल करने के लिए पर्यावरण से जुड़े कड़े नियमों का पालन करना अनिवार्य होगा.
यह भी प्रावधान होगा कि अगर कोई किसान जलवायु और पर्यावरण से जुड़ी न्यूनतम शर्तों से भी आगे बढ़कर खेती करता है तो उसे उसी अनुपात में अतिरिक्त प्रोत्साहन राशि भी मिलेगी. इसके लिए ईयू के सभी सदस्य देशों को संघ द्वारा दी जाने वाली राशि का कम से कम 20 फीसदी रिजर्व रखना होगा. इस राशि को लेकर संघ के कई सदस्य देशों के बीच पहले असहमति थी. खासकर पूर्वी यूरोप के कई देशों को डर था कि अगर उनके किसान बढ़ चढ़ कर ईकोफ्रेंडली खेती करने के लिए तैयार नहीं होते हैं तो उन्हें यूरोपीय संघ से मुहैया कराई जाने वाली पूरी प्रत्यक्ष प्रोत्साहन राशि भी नहीं मिल पाएगी. यूरोपीय संसद में कृषि प्रमुख यानुस वोइचिकोव्स्की का कहना है कि इन चिंताओं पर चर्चा करने और उन्हें "अच्छे से निपटाने" पर आगे बातचीत होगी.
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क्यों पड़ी नई साझा कृषि नीति की जरूरत
जलवायु परिवर्तन की रफ्तार, जैवविविधता में ह्रास, मिट्टी का क्षरण और जल प्रदूषण जैसी समस्याएं दिन पर दिन गंभीर होती जा रही हैं. यही कारण है कि कृषि नीति में बड़े बदलावों की जरूरत महसूस की जा रही थी. यूरोपीय परिषद ने सन 2018 में कृषि सुधारों की एक विस्तृत रूपरेखा पेश की थी, जिसे 2021 से 2027 के बीच लागू किए जाने का प्रस्ताव था. अब इसमें पहले दो सालों को पायलट फेज मानने और फिर 2023 से इसे अनिवार्य बनाने पर सहमति बनी है.
इसके अलावा, खाने पीने की चीजों का सस्ता होना भले ही अब तक खरीदारों को नहीं खलता था लेकिन इससे यूरोपीय किसानों की आय पर बुरा असर पड़ता आया है और वे अपनी फसल और उपज की क्वालिटी को और सुधारने की हालत में भी नहीं रहते. यूरोप में सरकारी कृषि सब्सिडी के वितरण को लेकर यह समस्या बताई जाती है कि इसका बड़ा हिस्सा केवल बड़े किसानों तक ही पहुंचता है और छोटे किसानों को इसका ज्यादा फायदा नहीं मिलता.
इसी साल मई में यूरोपीय परिषद ने "फार्म टू फोर्क” (F2F) रणनीति पेश की थी जिसका मकसद ऑर्गेनिक खेती को बढ़ावा देना और खेती में कीटनाशकों और रासायनिकउत्पादों के इस्तेमाल को कम करना था. उसका लक्ष्य 2030 तक कीटनाशकों के इस्तेमाल में 50 फीसदी और उर्वरकों के इस्तेमाल में 20 फीसदी की कमी लाना है. इन महत्वाकांक्षी लक्ष्यों को हासिल करने के लिए तमाम विस्तृत नियम भी नई साझा कृषि नीति का हिस्सा होंगे.
ये खाएं - सेहत और दुनिया दोनों बचाएं
2050 तक दुनिया की आबादी दस अरब को पार कर जाएगी. ऐसे में खाने की आदतें ना बदलीं तो खाना उगाना ही मुश्किल हो जाएगा. इसलिए जरूरी है कि खाने के ऐसे विकल्पों को चुना जाए जो सेहत के लिए भी अच्छे हैं और पर्यावरण के लिए भी.
तस्वीर: Takashi .M / CC BY 2.0
बदलें अपनी आदतें
दुनिया भर में सबसे ज्यादा खेती गेहूं, चावल और मक्के की होती है. जाहिर है, ऐसा इसलिए क्योंकि इनकी खपत भी सबसे ज्यादा है. लेकिन जिस तेजी से दुनिया की आबादी बढ़ रही है, कुछ दशकों में सभी को गेहूं-चावल मुहैया कराना मुमकिन नहीं रह जाएगा. संयुक्त राष्ट्र की संस्था WWF ने कुछ ऐसी चीजों की सूची जारी की है जिनसे हम कुदरत को होने वाले नुकसान को कम कर सकते हैं.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/C. Schmidt
नारंगी टमाटर
क्या जरूरी है कि टमाटर लाल ही हो? दुनिया भर में उगने वाली सब्जियों की सूची में लाल टमाटर सबसे ऊपर है. लेकिन नारंगी टमाटर सेहत और पर्यावरण दोनों के लिहाज से बेहतर हैं. इनमें विटामिन ए और फोलेट की मात्रा लगभग दोगुना होती है और एसिड आधा. स्वाद में ये लाल टमाटरों से ज्यादा मीठे होते हैं.
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अखरोट
इंसान 10,000 सालों से अखरोट खाता आया है और आगे भी इसे खाता रह सकता है. बादाम इत्यादि की तुलना में अखरोट में प्रोटीन, विटामिन और मिनरल ज्यादा होते हैं. ये विटामिन ई और ओमेगा 3 फैटी एसिड का अच्छा स्रोत होते हैं.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
कुट्टू
भारत में इसे व्रत के दौरान खाया जाता है. कुछ लोग कुट्टू के आटे की रोटी बनाते हैं, तो कुछ इसकी खिचड़ी. पश्चिमी दुनिया में अब इसे सुपरफूड बताया जा रहा है और गेहूं का एक बेहतरीन विकल्प भी. सुपरमार्केट में अब बकवीट यानी कुट्टू से बनी ब्रेड और पास्ता भी बिक रहे हैं.
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दालें
इंसान ने जब खेती करना शुरू किया तब तरह तरह की दालें उगाईं. आज जितनी तरह की दालें भारत में खाई जाती हैं, उतनी शायद ही किसी और देश में मिलती हों. शाकाहारी लोगों के लिए ये प्रोटीन का बेहतरीन स्रोत हैं. मीट की तुलना में दालें उगाने पर 43 गुना कम पानी खर्च होता है.
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फलियां
इन्हें उपजाने से जमीन की गुणवत्ता बेहतर होती है. ये जंगली घास को दूर रखती है, इसलिए अन्य फसलों के साथ इसे लगाने से फायदा मिलता है. साथ ही ये मधुमक्खियों को भी खूब आकर्षित करती हैं. सेहत के लिहाज से देखा जाए तो ये फाइबर से भरपूर होती हैं.
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कैक्टस
ये सब जगह तो नहीं मिलता, इसलिए हर कहीं खाया भी नहीं जाता. लेकिन वक्त के साथ इसकी मांग बढ़ रही है. इसके फल को भी खाया जा सकता है, फूल को भी और पत्तों को भी. सिर्फ इंसान के खाने के लिए ही नहीं, जानवर के चारे के लिए भी इसका इस्तेमाल किया जा सकता है और बायोगैस बनाने के लिए भी.
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टेफ
भारत में अब तक इस अनाज का इस्तेमाल शुरू नहीं हुआ है. मूल रूप से यह इथियोपिया में मिलता है जहां इसका आटा बनाया जाता है और फिर डोसे जैसी रोटी बनाई जाती है जिसे वहां इंजेरा कहते हैं. हाल के सालों में यूरोप और अमेरिका में इसकी मांग बढ़ी है. यह ऐसा अनाज है जिस पर आसानी से कीड़ा नहीं लगता. यह सूखे में भी उग सकता है और ज्यादा बरसात होने पर भी.
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अलसी
कहते हैं रोज एक चम्मच अलसी के बीज खाने चाहिए. इससे पेट भी साफ रहता है और खून में वसा और चीनी की मात्रा भी नियंत्रित रहती है. यूरोप में ऐसे कई शोध चल रहे हैं जिनके तहत प्रोसेस्ड फूड में गेहूं की जगह अलसी के आटे के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया जा रहा है, खास कर केक और मफिन जैसी चीजों में.
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राजमा
इनका जितना इस्तेमाल उत्तर भारत में होता है, उतना ही मेक्सिको और अन्य लातिन अमेरिकी देशों में भी. अगर इन्हें अंकुरित कर खाया जाए तो इनमें मौजूद पोषक तत्व तीन गुना बढ़ जाते हैं. ये प्रोटीन से भरपूर होते हैं और इसलिए मीट का एक अच्छा विकल्प भी.
तस्वीर: Imago/Westend61
कमल ककड़ी
एशियाई देशों में इसका खूब इस्तेमाल होता है. कमल के पौधे की इसमें खास बात होती है कि उसे बहुत ज्यादा रखरखाव की जरूरत नहीं होती. इसे थोड़े ही पानी की जरूरत होती है और इसलिए पर्यावरण के लिए यह एक कमाल का पौधा है.