रोटी की खातिर कब तक परदेस में मरते रहेंगे बिहारी!
२५ मार्च २०२२तीन दिन पहले, 22 मार्च को बिहार के गौरवशाली अतीत को याद करते हुए और वर्तमान को समृद्धशाली बनाने की प्रतिज्ञा के साथ धूमधाम से बिहार दिवस मनाया गया. लेकिन, इस धूम-धड़ाके के 24 घंटे भी नहीं बीते थे कि बिहार से सैकड़ों किलोमीटर दूर तेलंगाना (हैदराबाद) में कबाड़ के एक गोदाम में आग लगने की एक घटना में बिहार के सारण और कटिहार जिले के 11 मजदूरों की मौत हो गई. ये मजदूर गोदाम में काम करते थे और गोदाम के ऊपर बने कमरे में रहते थे.
इसी दिन देर रात उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद के विजयनगर इलाके में नाला खुदाई के दौरान एक स्कूल की दीवार गिरने से तीन मजदूर काल के गाल में समा गए. ये सभी अररिया जिले के जोकीहाट के रहने वाले थे. इन मजदूरों में कोई घर बनाने के लिए पैसे जुटाने की तमन्ना के साथ, तो कोई बहन के हाथ पीले करने के लिए पैसे कमाने के लिए परदेस गया था. इन सब की हसरतें तो अधूरी रह ही गईं, अब वे अपनों का मुंह भी नहीं देख पाएंगे.
ऐसा नहीं है कि राज्य के बाहर कामगारों की मौत की यह पहली घटना है. दूसरे प्रदेशों में बिहारी मजदूरों की मौत की खबरें अक्सर आती हैं. हर ऐसी घटना के बाद गम जताया जाता है और मुआवजे का एलान होता है. एक-दो दिन सोशल मीडिया पर शोक संदेश तैरते हैं. धीरे-धीरे इन मजदूरों की मौत की असली वजह बेरोजगारी और पलायन को भुला दिया जाता है. कुछ दिनों बाद फिर ऐसी ही घटना होती है और फिर शोक और मुआवजे का सिलसिला शुरू हो जाता है. आखिर बिहार के कामगार रोजी-रोटी की खातिर परदेश में कब तक मरते रहेंगे? क्या यही इनकी नियति बन गई है?
लंबी है मामलों की फेहरिस्त
इससे पहले बीते फरवरी माह में महाराष्ट्र के पुणे में एक निर्माणाधीन मॉल में लोहे की जाली गिरने से कटिहार जिले के पांच मजदूरों की जान चली गई. इस घटना पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी दुख जताया था. पुणे में ही जून, 2019 में हुई एक अन्य घटना में बिहार के 15 मजदूरों की मौत हो गई थी. पिछले साल अक्टूबर में जम्मू-कश्मीर में आतंकवादियों ने बिहार के मजदूरों को मौत के घाट उतार दिया था. इसी माह उत्तराखंड के नैनीताल में हुए एक हादसे में पश्चिम चंपारण जिले के नौ श्रमिकों की मौत हो गई थी.
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इन घटनाओं के अलावा रोजगार की खोज में दूसरे राज्यों में जाने के दौरान भी ये मजदूर सड़क हादसों के शिकार होते रहते हैं. ऐसी ही एक घटना अगस्त, 2021 की है, जब महाराष्ट्र में बिहार और उत्तर प्रदेश के 12 मजदूरों की जान चली गई थी. साल 2020 के अगस्त महीने में बिहार से मजदूरों को लेकर अंबाला जा रहा वाहन उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले में एक ट्रक के पीछे जा घुसा था. इस दुर्घटना में पांच मजदूरों की मौत हो हुई, जिनमें से चार सिवान जिले के थे. इसी साल मई महीने में उत्तर प्रदेश के औरैया जिले में हुए सड़क हादसे में बिहार-झारखंड के नौ मजदूरों की जान चली गई थी. जाहिर है कि ये चंद उदाहरण हैं. ऐसे हादसों की फेहरिस्त लंबी है.
अमानवीय स्थिति में रहने की मजबूरी
परदेश में इन मजदूरों को दुर्व्यवहार तो बर्दाश्त करना ही पड़ता है, रोजगार देने वाले इन्हें बंधक तक बना लेते हैं. ऐसे ही 14 कामगार कर्नाटक के बेलगाम में बंधक बना लिए गए थे. बड़ी मशक्कत के बाद पिछले गुरुवार को ये लोग पश्चिम चंपारण के बगहा स्थित अपने घर पहुंच पाए. इन्हें इनके गांव का ही एक व्यक्ति ईख की फसल कटाई के लिए वहां लेकर गया था. इतना ही नहीं, बाहर गए ज्यादातर श्रमिक अमानवीय स्थितियों में रहने को मजबूर होते हैं.
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तेलंगाना में जहां आग लगने की घटना हुई, वहां आग से बचाव के लिए किसी तरह के उपाय नहीं किए गए थे. गोदाम के ऊपर के कमरे में जाने के लिए सिर्फ एक घुमावदार सीढ़ी बनी थी, जो हादसे के वक्त मददगार साबित नहीं हुई. किसी तरह एक मजदूर कूदकर अपनी जान बचा सका. नतीजतन, गोदाम में रखी प्लास्टिक की बोतलों और फाइबर केबल में लगी आग से उठे धुएं और आग की लपटों में घुटकर, झुलसकर वे काल के गाल में समा गए.
दर्द इतना कि आंसू सूख गए
सारण के पुरुषोत्तमपुर गांव के 19 वर्षीय अंकज के पिता ओमप्रकाश राम, मां संजू देवी और दादा कन्हाई राम बेहाल हैं. अंकज की बहन शिल्पी, रीता और पूजा की आंखें रोते-रोते सूज गईं. तेलंगाना में कबाड़ गोदाम में लगी आग ने अंकज को भी लील लिया. चार बहनों का दुलारा अंकज घर का इकलौता लड़का और परिवार का इकलौता कमाऊ सदस्य था. अंकज के पिता ओमप्रकाश रुंधे गले से कहते हैं, "बच्चे से 21 तारीख को बात हुई थी. उसे मई में बहन की शादी में आना था. डेढ़ साल पहले वह कमाने के लिए गया था और अब हम सब को छोड़कर चला गया."
अमनौर अगुवान गांव के देवनाथ राम मोबाइल बजते ही सिहर उठते हैं. सुबह ही उन्हें जानकारी मिली थी कि रात में तीन बजे गोदाम में आग लगने की वजह से उनके 25 साल के बेटे दीपक और उसके भतीजे बिट्टू की मौत हो गई. चाचा-भतीजे की मौत से परिवार में कोहराम मचा है. आजमपुर गांव के राधेकिशन राम के दो बेटे, 22 साल के राजेश और 19 साल के प्रेम कमाने के लिए 20 दिन पहले ही तेलंगाना गए थे. आग लगने के हादसे में राजेश की मौत हो गई और प्रेम जिंदगी-मौत के बीच झूल रहा है. इन दोनों की बहन रितु की 14 जून को शादी होनी थी. इसी के लिए पैसे कमाने दोनों भाई तेलंगाना गए थे.
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गाजियाबाद में हादसे का शिकार हुए मुनकेश, अतहर और तौफीक की कोरोनाकाल में आर्थिक स्थिति खराब हो गई थी. घर पर भी कोई काम नहीं मिल रहा था. इसी वजह से ये काम करने बाहर गए थे. अतहर अपने पिता शमशाद से ढेर सारे रुपये कमाकर लौटने का वादा करके गया था. वहीं तौफीक ने पिता से कहा था कि वह जल्द ही कमाकर लौटेगा और घर बनाएगा.
पलायन की विवशता क्यों
पत्रकार सुधीर कुमार मिश्रा कहते हैं, "आप कश्मीर से कन्याकुमारी तक चाहे जहां चले जाइए. भारत में सबसे कम प्रति व्यक्ति आय और सबसे ज्यादा असमानता वाले राज्य बिहार के लोग आपको हर जगह मिल जाएंगे. इसकी इकलौती वजह राज्य में रोजगार का अभाव है. यही वजह है कि कोरोना काल में लॉकडाउन के दौरान सैकड़ों किलोमीटर पैदल सफर करके अपने घरों को लौटने वाले लोग फिर पलायन को मजबूर हो गए."
2011 की जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि 2001 से 2011 के बीच 93 लाख लोग रोजगार की तलाश में बिहार से दूसरे राज्यों में गए. यह बिहार की आबादी का करीब नौ फीसदी है. बिहार से दूसरे राज्यों में जाने वाले 55 फीसदी लोग रोजी-रोटी के लिए पलायन करते हैं.
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समाजशास्त्री मधुरिमा शर्मा कहती हैं, "देश में पलायन करने वाली कुल आबादी का 13 फीसदी हिस्सा बिहार से आता है. इनके पलायन की सबसे बड़ी वजह रोजगार है. सूबे के मुखिया बताते हैं कि यह राज्य लैंड लॉक्ड है, इसलिए यहां बड़े उद्योग-धंधे नहीं लगते हैं. हरियाणा, उत्तर प्रदेश और दिल्ली भी तो लैंड लॉक्ड हैं. फिर वहां इतने उद्योग कैसे लगे! आखिर कब तक लोग दूसरे राज्यों में पलायन करते रहेंगे."
बिहार के मूल निवासी और दिल्ली में कारोबार करनेवाले अनिल पाठक कहते हैं, "बिहार की औद्योगिक नीतियों में खामियों की वजह से लोग वहां निवेश करने से कतराते हैं. सिंगल विंडो क्लेरेंस की बात बेमानी है. चाहे जमीन उपलब्ध कराने की बात हो या सुरक्षा देने की. लोगों को सरकार की बात पर भरोसा ही नहीं हो पाता है."
बिहार में क्यों नहीं मिलते अवसर
वैसे एक सच्चाई यह भी है कि जमीन का रकबा छोटा होना भी एक बड़ी समस्या है. अगर कोई कंपनी यहां अपना उद्योग लगाना चाहेगी, तो उसे कम से कम 40 से 50 लोगों से जमीन लेनी होगी. जमीन देने के लिए इतने लोगों को एक साथ राजी करना वाकई मुश्किल काम है. उपजाऊ होने की वजह से लोग अपनी जमीन छोड़ना भी नहीं चाहते हैं. यही वजह से सरकार जरूरी मात्रा में जमीन उपलब्ध नहीं करा पाती है.
हालांकि, लॉकडाउन के बाद सरकार ने स्किल मैपिंग और मजदूरों के सर्वे की बात कही है. पश्चिम चंपारण जैसे कुछ जिलों में कलस्टर बनाकर स्व-रोजगार को बढ़ावा दिया गया. कुछ लोगों को रोजगार मिला भी. इसके अलावा बेरोजगारों के लिए स्वयं सहायता भत्ता योजना, परिवहन, पशुपालन और कृषि विभाग में कई योजनाएं लागू की गईं. लेकिन, नेशनल करियर सर्विस पोर्टल (NCSP) के आंकड़े बता रहे हैं कि बिहार में पिछले एक साल में बेरोजगारों की संख्या तीन गुना बढ़ी है.
वहीं सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी की ताजा रिपोर्ट के अनुसार इस साल जनवरी में बिहार में बेरोजगारी दर 13.3 प्रतिशत रही. दिसंबर में यह 16 प्रतिशत थी, जो पिछले साल का उच्चतम स्तर था. अर्थशास्त्री प्रो. नवल किशोर चौधरी कहते हैं, "अब तक की सरकारें विकास के माध्यम से रोजगार प्राप्त करने की नीति पर चलती रही हैं. लेकिन, अब सरकार को रोजगार को मेन प्रोडक्ट और विकास को बाइ प्रोडक्ट बनाने की जरूरत है. इससे विकास दर में कमी आ सकती है, किंतु लोगों को रोजगार मिलने पर समाज में खुशहाली आएगी और लोगों की क्रय शक्ति बढ़ेगी." साफ है, राज्य में मौजूद श्रम संसाधनों के उपयोग की व्यवस्था के अभाव में कामगारों के लिए पलायन फिर विवशता बन गई है.
रिपोर्ट: मनीष कुमार