दक्षिण अफ्रीका में एक छोटी सी नदी बहुराष्ट्रीय कंपनियों और कई स्थानीय पक्षों के बीच बहुकोणीय विवाद का केंद्र बन गयी है.
लीजबीक नदी को लेकर दक्षिण अफ्रीका में कई समूह विरोध कर रहे हैंतस्वीर: Nardus Engelbrecht/AP/picture alliance
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लीजबीक नदी दक्षिण अफ्रीका की मशहूर टेबल माउंटेन से बहती है, सिर्फ 9 किलोमीटर. लेकिन पानी की यह छोटी सी सर्पीली धारा बड़े विवाद का केंद्र बन गयी है, जिसमें एमेजॉन जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनी, स्थानीय आदिवासी समूह, पर्यावरणविद और जमीन पर हक के लिए लड़ रहे स्थानीय लोग शामिल हैं.
दक्षिण अफ्रीका में जमीन एक बेहद जज्बाती मुद्दा है. 400 साल के डच और ब्रिटिश साम्राज्यवादी शासन और फिर चार दशक की अश्वेत विरोधी सरकार के दौरान स्थानीय अश्वेत लोगों के अलावा, भारतीय मूल के लोगों और मिश्रित नस्ल के लोगों की खूब जमीनें छीनी गईं, ताकि श्वेत लोगों के लिए विशेष इलाके बनाये जा सकें.
ग्रीस: जंगली आग में झुलसे कछुओं की देखभाल
ग्रीस की विनाशकारी जंगली आग में कई कछुए झुलस गए थे. वन्यजीवों का प्रथम उपचार करने वाला एक स्वयंसेवी केंद्र इन कछुओं का इलाज कर रहा है और इलाज के बाद इन्हें इनके प्राकृतिक आवास में लौटा रहा है.
तस्वीर: Spyros Bakalis/AFP
कछुओं से प्यार
वन्यजीवों का प्राथमिक उपचार करने वाला केंद्र 'एनिमा' एथेंस के पास में ही मौजूद है. केंद्र में पशु चिकित्सक क्लियोपैट्रा कीका एक कछुए की टांग पर सावधानी से एक क्रीम लगा रही हैं. इस टांग की जली हुई चमड़ी गिर चुकी है और जल्द ही इस कछुए को इसके प्राकृतिक आवास में छोड़ा जा सकेगा.
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वालंटियर कर रहे हैं मदद
जुलाई और अगस्त 2023 में ग्रीस में कई स्थानों पर विध्वंसकारी जंगली आग लगी थी. एथेंस से करीब 60 किलोमीटर दूर स्थित इस केंद्र के आस पास का इलाका सबसे पहले प्रभावित होने वाले इलाकों में था. करीब 400 कछुओं को एथेंस के आस पास से और पास के द्वीप ईविया से बचाया गया था.
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कई तरह की परेशानियां
घायल कछुओं को 'एनिमा' और एथेंस के पास स्थित एक चिड़ियाघर ले जाया गया. एक स्वयंसेवी समूह के संस्थापक वासिलिस फाकियानोपाउलोस ने बताया, "कुछ कछुओं की टांगों और उनके खोल पर जलने के घाव थे. दूसरों के शरीर के अंदर धुंआ चले जाने से उन्हें सांस लेने में परेशानी हो रही थी.
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परेशानी का ठीक से पता लगाना
अगर एक कछुआ घायल हो तो सबसे पहले उसे एक पानी से भरे पूल में रख देना चाहिए ताकि उसके शरीर की नमी वापस आ सके. तजुर्बेकार पशु चिकित्सक कीका ने बताया, "अगर परेशानी सामने दिखाई ना दे रही हो, तो आप सूंघ कर संभावित बाहरी संक्रमण का पता लगाने की कोशिश करते हैं."
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जंगल में वापस जाने को तैयार
जो कछुए जंगल में वापस छोड़े जाने के लिए तैयार हैं उनके खोल पर नीली चॉक से एक क्रॉस का निशान बना दिया जाता है. करीब 100 कछुओं को छोड़ा भी जा चुका है. टीम जानती है कि कछुओं को जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी कैद से छोड़ दिया जाना जरूरी है. जो पशु सामान्य रूप से जंगलों में रहते हैं और मिलनसार नहीं होते हैं, बाड़े में रहने से उनका तनाव बढ़ जाता है.
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मजबूत सरीसृप
पशु कल्याण के लिए अंतरराष्ट्रीय कोष (आईएफडब्ल्यू) की सेलीन सिस्लर-बीएंवेनू कहती हैं, "कछुए मजबूत पशु होते हैं. वो अपना मेटाबॉलिज्म घटा कर कई हफ्तों तक बिना भोजन के रह सकते हैं. इसके बाद वो पहली ही बारिश में खाना खाने बाहर निकल आएंगे."
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फिर से आजाद
बर्केन नाम का यह कछुआ फिर से आजाद हो सकता है और अपने परिचित आवास में लौट सकता है, जहां वह छिपने के स्थान और पानी के स्रोत कहां है जानता है. कई स्वयंसेवियों की मदद से ये पशु आग से बच गए. इस समूह ने सिर्फ कछुओं ही नहीं बल्कि सांपों, बिल्लियों और आग में फंसे दूसरे पशुओं को भी बचाया. (यूली हुएनकेन)
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देशभर में समाजसेवी संस्थाएं अब इन जमीनों को वापस पाने के लिए संघर्ष कर रही हैं. लेकिन लीजबीक नदी पर संघर्ष कई तरफा है. इस वजह से कानूनी और जमीनी लड़ाइयां लगातार बढ़ रही हैं और यह नदी देशभर में जारी संघर्षों का प्रतीक बन गयी है.
संघर्षों का प्रतीक बनी लीजबीक
दक्षिण अफ्रीका में जमीन के हकों पर शोध करने वाले निक बडलेंडर बताते हैं, "यह नदी एक धागा है जो देश के बहुत बड़े और नजरअंदाज कर दिये गये मुद्दों को जोड़ता है, जैसे कि पर्यावरण की सुरक्षा, आदिवासियों के अधिकार और जमीन के अधिकार.”
दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद की नीति को खत्म हुए तीन दशक हो चुके हैं. आज देश बड़े पैमाने पर बेरोजगारी, असमानता, भ्रष्टाचार और कुपोषण जैसी समस्याओं से जूझ रहा है. इसलिए उसे बड़े पैमाने पर विदेशी निवेश की चाह है ताकि आर्थिक समस्याएं सुलझ सकें. लिहाजा, एमेजॉन जैसी कंपनियां बेहद अहम हो गयी हैं.
विरासत बनाम विकास का विवादतस्वीर: Nardus Engelbrecht/AP/picture alliance
एमेजॉन नदी पर अधिकार को लेकर इसी बात को दलील बनाती है. कंपनी की ओर से जवाब में लीजबीक लीजर प्रोपर्टीज ट्रस्ट का कहना है कि रिवर क्लब का विकास सिर्फ कंपनी के लिए नहीं है. एक बयान में उन्होंने कहा, "यह क्लब बड़ी संख्या में कॉरपोरेट घरानों, दुकानों और आम लोगों के रहने की जगह होगा. इसमें सस्ते घर उपलब्ध कराये जाएंगे. एक हरियाला गलियारा बनेगा, जिसमें 10 लाख से ज्यादा पौधे लगाये जाएंगे. एक विरासत केंद्र बनाया जाएगा जिसे आदिवासी समूह चलाएंगे.”
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आदिवासियों में मतभेद
कुछ आदिवासी समूहों जैसे खोई कबीले ने इस परियोजना का समर्थन किया है लेकिन बाकी समूह इसका तीखा विरोध कर रहे हैं. गोरिंगईकोना खोई खोइन इंडिजनस ट्रडिशनल काउंसिल (जीकेकेआईटीसी) इन विरोधी संस्थाओं में से एक है. संस्था के तौरीक जेनकिन्स कहते हैं, "यह नदी इतिहास और पर्यावरण से हमारा रिश्ता है. अब इतिहास खुद को दोहरा रहा है.”
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एमेजॉन इस नदी के किनारे 12 एकड़ में एक परियोजना विकसित करना चाहती है. यह वही जगह है जहां खोई और सान आदिवासियों ने पुर्तगालियों के खिलाफ 1510 में जंग लड़ी थी.
1659 में डच और खोई लोगों के बीच जंग हुई और खोई हार गये. उसके बाद डच शासक खेती के लिए मलयेशिया, मेडागास्कर और भारत से गुलाम लेकर आये. उन गुलामों के वंशज अब इसी जमीन पर रहते हैं. नदी से कुछ दूर की जमीन पर हक पाने के लिए ये लोग कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं. 1960 के दशक में टेबल पहाड़ी की तलहटी में 69 एकड़ में बसे प्रोटी गांव से इन लोगों को जबरन हटा दिया गया था.
प्रोटी गांव के लोगों के समुदाय प्रोटी विलेज कम्यूनिल प्रॉपर्टी एसोसिएशन के अध्यक्ष बैरी एलमान कहते हैं, "इस पूरे इलाके में हमारी विरासत की जड़े हैं.”
इन परिवारों ने 2006 में 5 एकड़ जमीन पर हक का मुकदमा जीता था लेकिन अन्य कानूनी लड़ाइयां जारी रहीं, इस कारण वे कब्जा नहीं पा सके. पहले पड़ोस के एक धनी इलाके के लोगों ने और फिर एक पर्यावरण समूह फ्रेंड्स ऑफ द लीजबीक (एफओएल) ने इस कब्जे का विरोध कर दिया. एफओएल का कहना है कि अगर यहां निर्माण कार्य होता है तो नदी को नुकसान होगा.
रिवर क्लब की जीत
इस बीच नदी के निचले हिस्से में एमेजॉन अफ्रीका द्वारा बनाये जा रहे 24.3 करोड़ डॉलर के रिवर क्लब के खिलाफ पर्यावरणीय समूहों की अपील को इसी मई में सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया. जेनकिन्स कहते हैं कि खोई समूह ने इस परियोजना का समर्थन आदिवासियों को बांटने की साजिश है.
एशिया की सबसे अधिक ऊंचाई वाली लैंड आर्ट एग्जीबिशन 'सा लद्दाख'
लद्दाख में विभिन्न पृष्ठभूमियों के कलाकार दक्षिण एशिया में सबसे ऊंचाई पर स्थित एक असाधारण कला प्रदर्शनी में अपनी कलाकृतियों का प्रदर्शन करने के लिए जुटे.
तस्वीर: Sā Ladakh
जलवायु, संस्कृति और समुदाय
यह भूमि कला प्रदर्शनी लेह, लद्दाख में 3600 मीटर की ऊंचाई पर आयोजित की गई. इस प्रदर्शनी का शिर्षक 'सा' है. इस प्रदर्शनी में स्थानीय से लेकर विदेशी कलाकारों ने अपनी कला पेश की.
तस्वीर: Sā Ladakh
प्रकृति की सोच
एशिया की सबसे ऊंची भूमि कला प्रदर्शनी 'सा' लद्दाख में कलाकारों ने 'जलवायु आशावाद' की व्याख्या की और अपनी कला के जरिए दुनिया से प्रकृति के बारे में भी सोचने का संदेश दिया.
तस्वीर: Sā Ladakh
पिघलते ग्लेशियर और पर्यावरण की चिंता
देश-विदेश से आए कलाकारों ने दुनिया को चिंता में डालने वाली चीजों पर आर्ट इंस्टालेशन लगाए, जिनमें ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण तेजी से पिघलते ग्लेशियर के बारे में भी चिंताजनक तस्वीर पेश की गई.
तस्वीर: Sā Ladakh
कैसे मिले प्लास्टिक से छुटकारा
इस तस्वीर में एक कलाकार प्लास्टिक कचरे की समस्या को दर्शाता हुआ. कलाकार ने रेत और प्लास्टिक की खाली बोतलों का इस्तेमाल कर इस आर्ट इंस्टालेशन को तैयार किया है.
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बेकार और दोबारा इस्तेमाल की जाने वाली चीजें
यह प्रदर्शनी लेह के पास डिस्को वैली की पृष्ठभूमि में लगाई गई, और प्रदर्शनी के लिए जो भी आर्ट इंस्टालेशन को तैयार किया गया उसके लिए त्याग दिए गए, दोबारा इस्तेमाल करने वाले और नवीकरणीय सामग्रियों का ही इस्तेमाल किया गया.
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स्थानीय कलाकारों की भी भागीदारी
अंतरराष्ट्रीय कलाकारों के अलावा लद्दाख के स्थानीय कलाकारों की कलाकृतियां भी प्रदर्शनी में शामिल की गईं. जिससे उन्हें विदेशी कलाकारों के साथ काम करने का मौका मिला.
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जलवायु आशावाद
'सा' लद्दाख के सह-संस्थापक राकी निकहेतिया ने इस प्रदर्शनी के बारे में कहा, "हमारा प्राथमिक ध्यान 20 एकड़ भूमि पर होगा, जहां हम जलवायु आशावाद की अपनी व्याख्या में गहराई से उतरेंगे. भूमि कला के उल्लेखनीय माध्यम से हमारा उद्देश्य लुभावने लेकिन नाजुक हिमालयी परिदृश्य के बीच समुदायों को आकर्षक और प्रेरित करते हुए जलवायु संबंधी मुद्दों पर एक समावेशी बातचीत को बढ़ावा देना है."
तस्वीर: Sā Ladakh
पहाड़ से एक संदेश
इस तस्वीर में पुराने कपड़ों को जोड़कर एक संदेश लिखा गया है. इसमें लिखा है- 'यू डोन्ट ओन मी' यानी तुम मेरे मालिक नहीं हो.
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रात में लेह
जर्मन कलाकार फिलिप फ्रैंक द्वारा पेश एक आर्ट इंस्टालेशन. जिसमें रंगी बिरंगी रोशनी बिखरती हुई नजर आ रही है.
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प्रकृति और इंसान के बीच बराबरी जरूरी
'सा' लद्दाख के आयोजकों का कहना है कि इस प्रदर्शनी के जरिए एक अहम संदेश देने की कोशिश की गई है कि अगर इंसान दुनिया में नहीं भी रहे तो प्रकृति हमेशा रहेगी और जो गैर बराबरी पैदा हुई है उसे पाटने की जरूरत है.
तस्वीर: Sā Ladakh
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केपटाउन शहर ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत किया. प्रशासन का कहना है कि रिवर क्लब "स्थानीय निवासियों के लिए धरोहर, पर्यावरण, अर्थव्यवस्था और विकास परियोजनाओं के अलावा भी बहुत से लाभ लेकर आएगा.” उसके मुताबिक शहर में निर्माण क्षेत्र में 5,000 से ज्यादा और अन्य क्षेत्रों में 19,000 से ज्यादा नौकरियां पैदा होंगी.
हालांकि जेनकिन्स कहते हैं कि ये आंकड़े बढ़ा-चढ़ाकर पेश किये जा रहे हैं और फैसले के खिलाफ अपील की जाएगी. वह कहते हैं, "हमारी विरासत बिकाऊ नहीं है.”