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कोरोना हो जाए तो इबुप्रोफेन लें या नहीं?

२० मार्च २०२०

कोरोना संक्रमण होने के दो साफ संकेत होते हैं सूखी खांसी और तेज बुखार. और बुखार होने पर या पैरासिटामोल दी जाती है या इबुप्रोफेन. लेकिन इबुप्रोफेन के इस्तेमाल को ले कर सोशल मीडिया पर कई तरह की बातें चल रही हैं. सच क्या है?

Ibuprofen bei Coronavirus-Infektion
तस्वीर: picture-alliance/dpa/L. Mirgeler

नॉवल कोरोना वायरस का खतरा सबसे ज्यादा उन लोगों को है जिन्हें डायबिटीज, ब्लड प्रेशर या दिल से जुडी कोई बीमारी है. ऐसा सिर्फ इसलिए ही नहीं है क्योंकि इन लोगों का शरीर पहले ही इन बीमारियों के कारण कमजोर है, बल्कि इसलिए भी क्योंकि ये लोग नियमित रूप से ऐसी दवाओं का सेवन कर रहे हैं जो संक्रमण को बढ़ावा दे सकती हैं. दुनिया की कम से कम एक चौथाई आबादी को हाई ब्लड प्रेशर की समस्या है. जर्मनी की ही बात की जाए तो यहां आबादी का करीब एक तिहाई हिस्सा हाई ब्लड प्रेशर की दवाएं लेता है. वैज्ञानिकों का मानना है कि ये दवाएं कोरोना संक्रमण को और बढ़ाने के लिए जिम्मेदार हो सकती हैं.

इसी तरह से जिन लोगों को डायबिटीज होता है उन्हें नियमित रूप से इंसुलिन लेना होता है. यह भी कोरोना वायरस की रोकथाम में मुश्किल खड़ी करता है. और ऐसा ही पेनकिलर इबुप्रोफेन के साथ भी है. सोशल मीडिया पर जब इबुप्रोफेन से जुड़े मेसेज फैलने शुरू हुए तो पहले तो इसे फेक न्यूज बताया गया. लेकिन बाद में विश्व स्वास्थ्य संगठन को हस्तक्षेप करना पड़ा और उसने भी इबुप्रोफेन से दूर रहने की ही हिदायत दी. हालांकि इस दिशा में अब तक कोई रिसर्च नहीं हुई है लेकिन एहतियातन इबुप्रोफेन से दूर रहने को कहा जा रहा है. संयुक्त राष्ट्र का भी यही कहना है कि फिलहाल कोरोना के कारण हुए बुखार से निपटने के लिए पैरासिटामोल लेना ही बेहतर है.

डॉक्टरों की बंटी हुई राय

जर्मनी में तो कुछ डॉक्टर इबुप्रोफेन के साथ साथ एस्पिरिन से भी दूर रहने को कह रहे हैं. डीडब्ल्यू ने जब वायरोलॉजिस्ट योनास श्मिट कनासिट से इस बारे में जानना चाहा तो उन्होंने कहा, "हमारे पास कोरोना वायरस सार्स-कोव-2 को ले कर बहुत ही कम जानकारी है और आज तक कोई क्लिनिकल डाटा तैयार नहीं हो पाया है." हालांकि इस बारे में डॉक्टरों की राय बंटी हुई दिख रही है. बर्लिन के मशहूर शारिटे अस्पताल के डॉक्टर क्रिस्टियान ड्रोस्टेन का कहना है, "इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि इबुप्रोफेन से हालत बिगड़ेगी. अगर ऐसा होता तो अब तक हमें पता चल गया होता.

डब्ल्यूएचओ का कहना है कि अगर किसी को कोरोना का संक्रमण हो गया है तो बुखार कम करने के लिए खुद से कोई भी दवा लेने की जगह डॉक्टर की सलाह सुनें और बेहतर होगा अगर पैरासिटामोल लें. इबुप्रोफेन के इर्दगिर्द इस विवाद की शुरुआत हुई साइंस पत्रिका लैंसेंट में 11 मार्च 2020 को छपे एक लेख के साथ. लेख में अन्य कुछ दवाओं के साथ इबुप्रोफेन का जिक्र भी किया गया. लेकिन साथ ही यह भी लिखा गया कि यह सिर्फ एक "हायपोथेसिस" यानी अनुमान है. लेख लिखने वाले तीन रिसर्चरों ने लैब में चूहों पर टेस्ट की बात भी कही लेकिन इंसानों पर ना ही इस प्रकार का कोई टेस्ट हुआ है और ना ही इस दिशा में कोई डाटा मौजूद है.

इस दावे की वजह क्या है?

कोशिकाओं की सतह पर एस रिसेप्टर होते हैं जो एस एंजाइम के साथ जुड़ सकते हैं. सार्स वायरस एस2 नाम के एंजाइम का इस्तेमाल कर कोशिका में प्रवेश करता है और अंदर जा कर अपनी संख्या बढ़ाने लगता है. सार्स यानी सीवियर एक्यूट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम. मौजूदा कोरोना वायरस का पूरा नाम है सार्स-कोव-2 यानी सीवियर एक्यूट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम कोरोना वायरस 2. 2002-03 में फैली सार्स महामारी के दौरान इस तरह के वायरस पर रिसर्च हुई और तब ऐसे रिसेप्टर्स के साथ उनकी प्रतिक्रया के बारे में पता चला.

इबुप्रोफेन और एस्पिरिन जैसी दवाओं को एस इनहिबिटर कहा जाता है यानी ये एस एंजाइम को ब्लॉक करती हैं. लेकिन ये एस रिसेप्टर को खत्म नहीं करतीं. माना जाता है कि एस एंजाइम की गैरमौजूदगी में कोशिकाओं के एस2 रिसेप्टर बढ़ जाते हैं. ऐसे में जब वायरस हमला करता है तो उसके पास कोशिका में प्रवेश करने के लिए कई एंट्री पॉइंट बन जाते हैं. शरीर वायरस को रोक नहीं पाता और एस इनहिबिटर दवाओं का सेवन करते रहने से वायरस के लिए हमला करना आसान होता चला जाता है. लैंसेंट पत्रिका में छापे लेख का यही आधार है.

ऐसा भी माना जा रहा है कि इटली में कोरोना के कारण इतनी बड़ी संख्या में लोगों की जान जाने के पीछे एक यह वजह हो सकती है कि वहां एस इनहिबिटर्स का ज्यादा इस्तेमाल किया गया. हालांकि इस दावे को भी अभी तक साबित नहीं किया जा सका है. लेकिन इतना जरूर है कि आने वाले वक्त में रिसर्चर इन दावों की सच्चाई जानने के लिए काम करेंगे और विज्ञान जगत भविष्य में इस तरह की महामारी का सामना करने की बेहतर स्थिति में होगा.

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