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ट्रंप के ‘अमेरिका फर्स्ट’ का वैश्विक कारोबार पर कैसा असर

थोमस कोलमन
२० दिसम्बर २०२४

विश्व व्यापार संगठन जैसे बहुपक्षीय संगठनों को चिंता सता रही है कि क्या अमेरिका के अगले राष्ट्रपति ट्रंप नियम आधारित वैश्विक व्यापार व्यवस्था को खत्म कर देंगे? अगर ऐसा होता है, तो छोटे देशों पर इससे क्या असर पड़ेगा.

साल 2020 में व्हाइट हाउस कार्यालय में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप
अमेरिका ने नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप वैश्विक संधियों और संस्थानों को ज्यादा तवज्जो नहीं देते तस्वीर: Douliery Olivier/abaca/picture alliance

विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) जैसे बहुपक्षीय संगठन अमेरिका के भावी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के लिए बहुत कम महत्व रखते हैं, क्योंकि वे उन्हें अमेरिकी हितों के विपरीत मानते हैं. चीन में जर्मनी के पूर्व राजदूत मिषाएल शेफर का तो यहां तक मानना है कि ट्रंप इन संस्थाओं में समझौते के लिए ज्यादा समय लगाना ‘समय की बर्बादी' मानते हैं.

उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा कि ट्रंप की दुनिया को देखने की सोच उन लोगों से बिल्कुल अलग है जो नियम-आधारित वैश्विक व्यापार व्यवस्था का समर्थन करते हैं. इसलिए, ट्रंप इस कार्यकाल में जो करने की योजना बना रहे हैं उसकी तुलना में उनका पहला कार्यकाल ‘एक आसान सफर' जैसा माना जाएगा.

शेफर कहते हैं, "अंतरराष्ट्रीय समुदाय को कैसे काम करना चाहिए, इस बारे में विचारधारा में एक बड़ा अंतर है. सदियों के संघर्ष और युद्ध को खत्म करने के लिए, यूरोप अलग-अलग देशों का समूह बन गया है. इसने ‘नियम-आधारित व्यवस्था' स्थापित की, जो आपसी जिम्मेदारियों और अधिकारों पर आधारित है. इस ढांचे का प्रभाव यूरोप से बाहर भी है और यह विदेश नीति, सुरक्षा, और आर्थिक नीति को लेकर दुनिया के अन्य देशों को राह दिखाता है.”

हालांकि, ट्रंप की तथाकथित ‘अमेरिका फर्स्ट' नीति का दृष्टिकोण पूरी तरह अलग है. इसके तहत, ‘कारोबार के हिस्सेदारों के साथ सीधी बातचीत और लाभ के लिए अमेरिकी शक्ति का उपयोग' को प्राथमिकता दी जाती है.

क्या वैश्विक व्यापार के लिए तय किए गए नियम खत्म हो जाएंगे?

जर्मन इंस्टीट्यूट फॉर इंटरनेशनल एंड सिक्योरिटी अफेयर्स (एसडब्ल्यूपी) से जुड़े कारोबार विशेषज्ञ हेरिबर्ट डीटर का मानना है कि अंतर्राष्ट्रीय नीति में बहुपक्षवाद खत्म होने से छोटे देशों, खासकर ‘ग्लोबल साउथ' के देशों पर गंभीर असर पड़ेगा.

उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा, "हमने सोवियत संघ के पतन के बाद यह माना था कि अंतरराष्ट्रीय समाधान संभव हैं, लेकिन आज के भू-राजनीतिक गुटों के दौर में अब यह मुश्किल नजर आता है.”

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डीटर आजकल भारत के बेंगलुरु में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडीज में पढ़ा रहे हैं. वह कहते हैं कि डब्ल्यूटीओ ‘अपने पूर्व स्वरूप की छाया' बनकर रह गया है और विशेष रूप से संघर्ष कर रहा है. डब्ल्यूटीओ पहले काफी मजबूत था और दुनिया के देशों के बीच व्यापार के नियम बनाने में अहम भूमिका निभाता था, लेकिन अब यह पहले जैसा नहीं रहा. इसे विवाद सुलझाने में परेशानी हो रही है.”

दूसरे शब्दों में कहें, तो अगर किसी देश के बीच व्यापार को लेकर कोई झगड़ा होता है, तो डब्ल्यूटीओ उसे पहले की तरह अच्छे से नहीं सुलझा पा रहा है. उसे दुनिया के देशों के बीच व्यापार के नियम बनाने में मुश्किलें आ रही हैं.

विश्व व्यापार संगठन की प्रमुख चिंता जता चुकी हैं कि शायद ट्रंप से उनके संगठन को समर्थन ना मिले तस्वीर: Li Xin/dpa/picture alliance

विशेषज्ञों का कहना है कि अगर डब्ल्यूटीओ को नजरअंदाज किया जाता है और इसके नियमों को तोड़ा जाता है, तो इससे काफी नुकसान होगा और बड़े देश भी इससे होने वाले असर से नहीं बच पाएंगे. उन्हें भी गंभीर परिणाम झेलने होंगे.

जर्मनी स्थित कील इंस्टीट्यूट फॉर द वर्ल्ड इकोनॉमी और ऑस्ट्रियन इंस्टीट्यूट ऑफ इकोनॉमिक रिसर्च की ओर से किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि डब्ल्यूटीओ के पतन से यूरोप की अर्थव्यवस्था को बहुत बड़ा नुकसान होगा. यह ट्रंप द्वारा संभावित तौर पर बढ़ाए जाने वाले टैरिफ से होने वाले नुकसान से चार गुना ज्यादा होगा.

रिपोर्ट में कहा गया है कि इस वजह से यूरोपीय संघ की वास्तविक जीडीपी में 0.5 फीसदी की गिरावट आ सकती है. जर्मनी को ज्यादा नुकसान होगा और अमेरिका को थोड़ा कम. चीन को सबसे ज्यादा नुकसान होगा.

अध्ययन में चेतावनी दी गई है कि अगर दुनिया अमेरिका और चीन के नेतृत्व वाले भू-राजनीतिक गुटों में बंट जाती है, तो इससे आर्थिक नुकसान और भी अधिक होगा, विशेष रूप से यूरोपीय संघ और चीन को. सबसे खराब स्थिति में, चीन की वास्तविक जीडीपी में 6 फीसदी और जर्मनी की जीडीपी में 3.2 फीसदी तक की गिरावट हो सकती है. जबकि, अमेरिकी जीडीपी में 2.2 फीसदी की गिरावट हो सकती है.

गरीब देशों को लग सकता है कितना बड़ा झटका

यूरोपीय संघ दुनिया का सबसे अधिक जुड़ा हुआ व्यापारिक ब्लॉक है, जिसने वैश्विक भागीदारों के साथ कुल 45 व्यापार समझौते किए हैं, लेकिन कम व्यापारिक साझेदारों वाले छोटे देशों को डब्ल्यूटीओ के पतन से सबसे अधिक नुकसान होगा.

एसडब्ल्यूपी के हेरिबर्ट डीटर ने कहा, "जिन छोटे देशों के व्यापारिक संबंध कम हैं उनके लिए डब्ल्यूटीओ काफी मायने रखता है. किसी भी तरह की विवाद की स्थिति में ये देश हमेशा डब्ल्यूटीओ से मदद मांगते हैं. डब्ल्यूटीओ इन विवादों को सुलझाने में मदद करता है और छोटे देशों के हक की बात करता है.”

उन्होंने आगे कहा कि यह पहले उनके लिए बहुत अच्छा काम करता था, लेकिन 2018 से अमेरिका की ओर से नए न्यायाधीशों को नियुक्त करने से मना करने की वजह से डब्ल्यूटीओ का यह सिस्टम ठीक से काम नहीं कर रहा है.

डीटर कहते हैं कि शक्तिशाली देश ‘डब्ल्यूटीओ के बिना भी अपने हितों का ध्यान रख सकते हैं, लेकिन छोटे देशों को बड़े देशों की संदिग्ध मांगों के आगे अक्सर झुकने' के लिए मजबूर होना पड़ रहा है.

विश्व बैंक की पूर्व मुख्य अर्थशास्त्री पिनेलोपी गोल्डबर्ग भी मानती हैं कि डब्ल्यूटीओ को लेकर चल रहे मौजूदा गतिरोध की वजह से ‘छोटे देशों को ज्यादा नुकसान' हो सकता है. उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा कि इन देशों के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर व्यापार करना बहुत जरूरी है, क्योंकि उनके पास बड़े घरेलू बाजारों की कमी है.

गोल्डबर्ग कहती हैं, "हालिया शोध से पता चलता है कि पिछले तीन दशकों में गरीबी में कमी मुख्य रूप से उन विकासशील देशों में हुई है जो वैश्विक स्तर पर कारोबार करते हैं. बहुपक्षीय व्यापार प्रणाली से ग्लोबल साउथ के देशों में तरक्की हुई है.

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हालांकि, अफ्रीका के कई देशों ने अभी तक वैश्विक व्यापार में महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभाई है. इनमें से अधिकांश देशों के पांच से कम व्यापार समझौते हैं. संघर्षग्रस्त दक्षिण सूडान और बुरुंडी को सबसे अधिक नुकसान होने की संभावना है.

लैटिन अमेरिका में वेनेजुएला, इक्वाडोर और बोलीविया वैश्विक व्यापार से सबसे कम जुड़े हुए देशों में शामिल हैं. एशिया में, अफगानिस्तान और मंगोलिया जैसे देश व्यापार सौदों में कम शामिल होते हैं.

अमेरिकी हस्तक्षेपवाद की वापसी

हेरिबर्ट डीटर के मुताबिक, बहुत से संकेत बता रहे हैं कि नियम-आधारित व्यापार व्यवस्था वाला युग समाप्त हो रहा है. 1995 में विश्व व्यापार संगठन की स्थापना के समय उम्मीद थी कि दुनिया में सभी देशों के लिए समान और निष्पक्ष व्यापार के नियम बनेंगे, लेकिन अब लगता है कि यह सिर्फ ‘इतिहास में एक छोटा सा अपवाद' था. अब ऐसा लग रहा है कि ये नियम अब ज्यादा मायने नहीं रखते. यानी, देश अब इन नियमों का पालन नहीं कर रहे हैं. इसका मतलब है कि दुनिया में व्यापार अब पहले जैसा आसान और निष्पक्ष नहीं रहा.

डीटर ने कहा कि 1990 के दशक के अंत में, संयुक्त राज्य अमेरिका ने अपने हितों को बढ़ावा देना शुरू कर दिया, खासकर अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के भीतर. उस समय, भारी कर्ज में डूबे देशों के लिए आईएमएफ के पुनर्गठन कार्यक्रमों में अमेरिका का बहुत अधिक हस्तक्षेप था.

वह आगे कहते हैं, "वह कोई राहत नहीं था. वे अमेरिका की विदेशी आर्थिक नीतियां थीं, जिनमें मदद लेने वाले देशों के हितों की कोई परवाह नहीं की गई थी.”

डीटर का मानना है कि अंतरराष्ट्रीय व्यापार सहयोग जारी रहेगा, लेकिन छोटे पैमाने पर. हालांकि, यह भी ‘कोई बुरी बात नहीं' है. उन्होंने कहा, "छोटे स्तर पर व्यापार नीतियां, डब्ल्यूटीओ की तुलना में अधिक प्रभावी हो सकती हैं. डब्ल्यूटीओ में हर सदस्य देश के पास वीटो पावर होता है, जिससे फैसले लेने में बहुत समय लगता है. इसका मतलब यह नहीं है कि अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संबंध खत्म हो जाएंगे और निश्चित रूप से यह वैश्वीकरण का अंत नहीं है.”

इन तमाम बातों के बीच पूर्व राजदूत मिषाएल शेफर का मानना है कि ग्लोबल साउथ के छोटे देशों के लिए चुनौतीपूर्ण समय आने वाला है, क्योंकि उन्हें ‘आने वाले सबसे बुरे समय के लिए खुद को तैयार करना होगा.'

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