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लॉस एंड डैमेज फंड क्या है और कैसे काम करेगा?

२१ नवम्बर २०२२

दुनिया के गरीब देशों को जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुकसान का मुआवजा देने के लिए एक फंड बनाने पर रविवार को सहमति बन गई. जलवायु सम्मेलन के 30 सालों के इतिहास में इसे अब तक की सबसे बड़ी सफलता बताया जा रहा है.

Tuvalu | Inselstaat im Pazifischen Ozean
तस्वीर: Mario Tama/Getty Images

अब इस बात को सबने मान लिया है कि सीमित संसाधनों वाले गरीब देश मौसम के तीखे होते तेवरों से सबसे ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं. बाढ़, सूखा और आंधियों का कहर झेल रहे ये देश वास्तव में औद्योगिक रूप से विकसित देशों के कर्मों का बोझ उठा रहे हैं जिन्होंने दुनिया की आबोहवा में हुए बदलाव में सबसे बड़ी भूमिका निभाई है. इन देशों की यह जिम्मेदारी है कि इस बोझ का कुछ हिस्सा अपने कंधों पर भी लें.

सरकार में शामिल नेता, पर्यावरणवादी और कार्यकर्ता इस कोष के बनाये जाने पर जश्न मना रहे हैं लेकिन अब भी कई सवालों के जवाब मिलने बाकी हैं. इनमें इनके दीर्घकालीन असर से लेकर काम करने के तौर तरीके तक शामिल हैं. "लॉस एंड डैमेज" फंड का विचार कैसे विकसित हुआ और अब तक इसके बारे में क्या कुछ पता चल सका है.

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इतिहास

1990 के दशक के शुरुआती सालों में छोटे, तटवर्ती द्वीपीय देशों के समूह अलायंस ऑप स्मॉल आइलैंड स्टेट्स ने संयुक्त राष्ट्र से नुकसान और भरपाई कोष बनाने की मांग शुरू की.  इसके जरिये जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक ढांचा बनाने का विचार था.

इसके बाद से ही यह विचार हमेशा से संयुक्त राष्ट्र की सालाना जलवायु सम्मेलनों में चर्चा का विषय रहा. हालांकि इसके बारे में हमेशा मुख्य चर्चा के हाशिये पर ही बात होती रही. कुछ विकासशील देश और जलवायु कार्यकर्ता इस मांग को उठाते रहे लेकिन कई अमीर देश इस विचार को कुचलते रहे. पहली बार इस साल के कॉप27 में इस विचार को मुख्य एजेंडे में शामिल किया गया और यह चर्चा के केंद्र में आया.

लॉस एंड डैमेज फंड पर दुनिया के देशों में सहमति तस्वीर: Peter Dejong/AP/picture alliance

कौन देगा पैसा?

शुरुआत में इस कोष के लिए विकसित देश और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं जैसे दूसरे निजी या सार्वजनिक स्रोतों से पैसा आएगा. इसके साथ ही इसमें दुनिया की प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं के भी शामिल होने का विकल्प रहेगा. समझौते के अंतिम मसौदे में, "कोष के स्रोतों की पहचान और विस्तार" का जिक्र है जिस पर यूरोपीय संघ, अमेरिका और दूसरे देशों ने काफी दबाव बनाया. इसका मकसद उन देशों को पैसा देने के लिए तैयार करना है जो विकासशील तो हैं लेकिन बहुत सारा प्रदूषण फैला रहे हैं.

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चर्चा के दौरान चीन ने कहा कि नये कोष के लिए पैसा विकसित देशों को देना चाहिए, उन्हें नहीं. हालांकि ऐसा होता दिख रहा है कि जब अमेरिका पैसा देने के लिए रजामंद होता है तो चीन भी पैसे देता है. 2014 में हरित जलवायु कोष के लिए ओबामा प्रशासन ने 3 अरब डॉलर देने की शपथ ली तो चीन ने भी 3.1 अरब डॉलर का योगदान दिया. कौन पैसा देगा, इसका फैसला एक कमेटी करेगी जो एक साल के भीतर इसके लिए पैसा जुटाने की योजना बना रही है.

किसे मिलेगा पैसा?

समझौते में कहा गया है कि यह कोष उन "विकासशील देशों की मदद करेगा जो जलवायु परिवर्तन के नकारात्मक असर के कारण खतरे में हैं." हालांकि इसमें मध्यम आय वाले उन देशों के लिए भी धन पाने की गुंजाइश होगी जो जलवायु से जुड़ी आपदाओं से बहुत ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं.

जलवायु परिवर्तन के कारण कई देशों का अस्तित्व पर संकट हैतस्वीर: Mario Tama/Getty Images

करीब एक तिहाई पाकिस्तान ने बाढ़ के कारण भारी नुकसान देखा है, इसी तरह इयान तूफान ने क्यूबा की दशा बिगाड़ दी है. इन देशों को इस कोष से पैसा मिल सकता है. वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टिट्यूट के अंतरराष्ट्रीय जलवायु निदेशक डेविड वास्को का कहना है, "मानवीय कार्यों में जुटी दूसरी संस्थाएं और एजेंसियां, जो लोगों की मदद कर रही हैं, प्रवासी और शरणार्थी समस्याओं से जूझ रही हैं, खाद्य और जल सुरक्षा के लिए काम कर रही हैं, उनके लिए लॉस और डैमेज फंड से कैसे मदद मिलेगी" यह अभी तय किया जाना बाकी है. आने वाले सालों में इस पर फैसले होंगे.

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भरोसा कायम करना

आर्थिक मदद के अलावा कोष बनाने को एक बड़े कदम के रूप में देखा जा रहा है लेकिन आखिर में यह क्या साबित होगा यह इस पर निर्भर है कि कोष कितनी जल्दी तैयार होता है. पिछले टूटे वादों के कारण इसे लेकर भरोसे की थोड़ी कमी है. 2009 में अमीर देश हर साल 100 अरब डॉलर की रकम विकासशील देशों को हरित ऊर्जा का तंत्र विकसित करने के लिए देने पर रजामंद हुए थे ताकि जलवायु परिवर्तन के हिसाब से ये देश खुद को तैयार कर सकें. हालांकि आज तक इस पहले के लिए कभी भी पूरा पैसा नहीं आया.

अमीर देश लंबे समय तक इस लॉस एंड डैमेज फंड के खिलाफ इसलिए रहे क्योंकि उन्हें डर है कि यह जिम्मेदारी लंबे समय तक उठानी पड़ सकती है. यह समझौता भले ही हो गया है लेकिन विकसित देशों की यह चिंता बनी हुई है. इसी वजह से समझौते के शब्दों में वार्ताकारों ने यह तय किया कि इसे "देनदारी" ना कहा जाये और योगदान स्वैच्छिक हो.

ऐसी चेतावनियों और प्रतिवादों के बाद भी इस तरह के कोष के बनने की कुछ प्रतिक्रियाएं हो सकती हैं. उदाहरण के लिए प्रशांत क्षेत्र के कई देश अंतरराष्ट्रीय अदालत में जलवायु परिवर्तन पर विचार के लिए दबाव बना रहे हैं. उनकी दलील है कि उनके अधिकारों की रक्षा के लिए अंतरराष्ट्रीय कानूनों को मजबूत किया जाना चाहिए क्योंकि उनकी जमीन बढ़ते समुद्री जलस्तर की वजह से सिकुड़ रही है. लॉस एंड डैमेज फंड का बनना उनकी मांगों को मजबूत कर सकता है.

एनआर/वीके (एपी)

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