अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने अगले आठ सालों में बाल मजदूरी खत्म करने का लक्ष्य रखा है. दुनिया में हर दस में से एक बच्चा बाल मजदूरी का शिकार है.
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भारत में बच्चों को अगरबत्ती और पटाखा फैक्ट्री में काम दिया जाता है, तो अफ्रीका में इनके हाथों कोबाल्ट निकलवाया जाता है. संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के मुताबिक मजदूरी कर रहे आधे बच्चे खतरनाक किस्म के कामों में लगे हैं. आईएलओ के महानिदेशक गाय राइडर ने ब्युनोस आयर्स में हो रहे अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में कहा कि 90 के दशक की तुलना में बाल श्रमिकों की संख्या में दस करोड़ से भी ज्यादा की कमी आयी है. लेकिन उन्होंने यह भी माना कि बीते सालों में कमी की दर धीमी हो गयी है. राइडर ने कहा, "हम यह तो अंदाजा नहीं लगा सकते कि भविष्य में लेबर मार्केट किस तरह से बदलेगी लेकिन हम एक बात जरूर जानते हैं कि अब हम और बाल मजदूरी नहीं चाहते और ना ही आधुनिक जमाने की गुलामी."
आईएलओ के आंकड़ों के अनुसार दुनिया में आज भी 15 करोड़ से अधिक बाल श्रमिक मौजूद हैं और इनमें से कम से कम ढाई करोड़ से जबरन मजदूरी करायी जा रही है. अर्जेंटीना में चल रही आईएलओ की चौथी कांफ्रेंस में 2025 तक दुनिया से बाल मजदूरी को हटाने का लक्ष्य रखा गया है. इस सम्मेलन में 193 देश हिस्सा ले रहे हैं. सम्मेलन ऐसे समय में हो रहा है जब मानवाधिकार संगठन एमनेस्टी इंटरनेशनल की रिपोर्ट 'टाइम टू रिचार्ज' पर दुनिया भर में चर्चा चल रही है.
एमनेस्टी के अनुसार दुनिया की 28 बड़ी कंपनियों पर की गयी रिसर्च में पाया गया कि आधी कंपनियां ऐसी हैं, जो बाल मजदूरी से निकलवाये गये कोबाल्ट का इस्तेमाल करती हैं. कोबाल्ट का इस्तेमाल मोबाइल फोन और इलेक्ट्रिक कारों की बैटरी बनाने के लिए किया जाता है. एमनेस्टी की सूची में माइक्रोसॉफ्ट, रेनो और हुवाई जैसे बड़े नाम शामिल हैं. एमनेस्टी के अनुसार सात साल के छोटे बच्चे अपनी सेहत और जान को खतरे में डाल कर कोबाल्ट निकालते हैं जिसका इस्तेमाल अक्षय ऊर्जा के लिए किया जाता है. संस्था का कहना है कि जांच के दौरान कोई भी कंपनी ऐसी नहीं मिली, जो मानवधिकारों का पूरी तरह ख्याल रखती हो.
भारत में बाल मजदूरी
भारत सरकार ने बाल मजदूरी कानून में बदलाव लाने का फैसला किया है. 14 साल से कम उम्र के बच्चे अब स्कूल के बाद और छुट्टियों में घर से जुड़े उद्यमों में काम कर सकेंगे. शर्त यह है कि पारिवारिक उद्यमों में जोखिम वाले काम न हों.
तस्वीर: DW/J. Singh
जोखिम वाले काम पर रोक
भारत का मौजूदा कानून 14 साल से कम उम्र के बच्चों को 18 तरह के जोखिम वाले काम करने से ही रोकता है पर अब 18 साल तक के बच्चे भी इस तरह के काम नहीं कर पाएंगे. लेकिन घर पर चल रहे काम खतरनाक हैं या नहीं, इसे कौन तय करेगा?
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हुनर का सवाल
कुटीर उद्योग से जुड़े लोगों का कहना है कि पारंपरिक हुनर कम उम्र में ही सिखाना जरूरी है. अगर संसद ने बाल श्रम कानून बदल दिया तो भारत द्वारा वर्ष 2016 तक बाल श्रम के उन्मूलन के द हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन में किए गए वायदे का क्या होगा?
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बढ़ेगी बाल मजदूरी
बाल अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे कार्यकर्ताओं का कहना है कि अगर बाल श्रम पर नया कानून अस्तित्व में आया तो भारत के मौजूदा सवा करोड़ से भी ज्यादा बाल श्रमिकों की संख्या और बढ़ जाने की आशंका है.
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परिवार की मदद
पिछले साल ही बाल मजदूरों को बंधुआगिरी कराने वालों के शिंकजे से निकालने का अभियान चला रहे भारत के कैलाश सत्यार्थी को नोबेल पुरस्कार दिया गया. उनके देश में कॉपी-किताबों की जगह होगी बच्चों के लिए मां बाप की दुकान.
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कैसे रुके बाल मजदूरी
दुनिया भर में सवा सौ करोड़ बाल श्रमिक हैं. बच्चों को पढ़ने लिखने का और बेहतर जिंदगी का मौका देने की तो बहुत बात होती है लेकिन इस समस्या को जड़-मूल से नष्ट करने का कोई ठोस हल अब तक नहीं निकला है.
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सिर्फ बस्ते का भार
ढाबा, होटल, दुकान, खान या फैक्ट्री में काम नहीं, हमारे लिए तो कंधे पे बस्ते का भार है सही. बच्चों को परिवार चलाने की जिम्मेदारी नहीं पढ़ने लिखने और व्यक्तित्व का विकास करने की संभावना चाहिए.
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गरीबी का बोझ
बाल श्रम से निजात पाने के लिए स्कूल के बाद काम की बेड़ियां नहीं खेलों और पुस्तकों की ज़रुरत है. पर लोग करें भी क्या? उद्योग में नए रोजगार बन नहीं रहे और बढ़ती आबादी और बच्चों का लालन पालन भी तो सब से बड़ी परेशानी है.
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हंसी की तलाश
"घर से है मंदिर बहुत दूर, चलो यूं कर लें, एक रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए.” लेकिन कितने लोग हैं जो यह तय कर पाते हैं. इन बच्चों की हंसी में बेहतर जिंदगी की उम्मीद ठहाके लगा रही है लेकिन बहुत से बच्चों की उम्मीद पूरी नहीं होती.
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फोन बनाने वाली कंपनियां एप्पल, सैमसंग और सोनी और साथ ही जर्मनी की मशहूर कार निर्माता कंपनियां बीएमडब्ल्यू, फॉल्क्सवागेन और डैमलर भी इसमें शामिल हैं.
आईबी/एके (डीपीए, रॉयटर्स)
पाकिस्तान में पिसते एक करोड़ बच्चे
भारत की ही तरह पाकिस्तान में भी बच्चों से काम करवाने पर रोक है. लेकिन संयुक्त राष्ट्र की बाल संस्था यूनिसेफ का कहना है कि आज भी पाकिस्तान में लगभग एक करोड़ बच्चे जिंदा रहने के लिए मेहनत मजदूरी करने को मजबूर हैं.
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विकलांग कुम्हार का मेहनती बेटा
गुलाम हुसैन के पिता चल फिर नहीं सकते. वह घर पर मिट्टी के बर्तन बनाते हैं, जिन्हें बेचने के लिए बेटा हर रोज सुबह अपनी रेहड़ी पर निकलता है. गुलाम हुसैन ने बताया कि हर रोज उसके पांच-छह सौ रुपये बन जाते हैं. कभी कभी तो एक हजार भी कमा लेता है. लेकिन कई बार दिन भर सड़कों की खाक छानने के बाद खाली हाथ घर लौटना पड़ता है.
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तालीम की बजाय तरबूज
इस्लामाबाद में तरबूत बेचने वाले ये दोनों भाई कभी स्कूल नहीं गए. बड़े भाई लियाकत बेग को एक दिन के पांच सौ और छोटे भाई मंसूर बेग को दो सौ रुपये मिलते हैं. वे तरबूत बेचें या कोई और फल, उन्हें अपनी रोजी रोटी कमाने के अलावा किसी और चीज का होश नहीं. लियाकत का कहना है कि दोनों भाइयों की कमाई से ही उनका घर चलता है.
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गहरी सोच और इंतजार
और नयी पेशावरी चप्पल बेचने के साथ साथ यह बच्चा जूते और बैगों की मरम्मत भी करता है. किसी ग्राहक के इंतजार में बैठा वह गहरी सोच में दिखाई देता है. इस तस्वीर का दर्दनाक पहलू दायीं तरफ कोने में रखी कॉपी है. जिस बच्चे को इस समय स्कूल में होना चाहिए, वह फुटपाथ पर जूतों की मरम्मत कर रहा है.
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धूप के चश्मे
साल के मोहम्मद हनीफ का ताल्लुक पेशावर से है, लेकिन कुछ समय से वह अपने माता पिता के साथ इस्लामाबाद में रह रहा है. पहले वह स्कूल जाता था लेकिन टीचर ने पीटा तो उसे स्कूल से नफरत हो गयी. दूसरी कक्षा के बाद वह स्कूल नहीं गया. पहले वह भुने हुए मक्के के दाने बेचता था, लेकिन अब वह धूप के चश्मे बेच रहा है.
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सब कुछ देती है नजर
आठ साल के बख्शू जान की उम्र खुद गुब्बारों से खेलने की है, लेकिन पेट पालने के लिए वह ये गुब्बारे बेचता है. बख्शू का कहना है कि उस पूरा परिवार इसी तरह गुब्बारे बेचता है. कई लोग अपने बच्चों के लिए उससे गुब्बारे खरीदते हैं तो कई बार बिना गुब्बारे लिए ही पैसे दे देते हैं. इस गुब्बारे को देखते हुए मानो वह सोच रहा है कि बेचूं या फिर अपने लिए ही रख लूं?
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उम्र 12 साल, अनुभव 4 साल
इस्लामाबाद में जूते की एक दुकान पर सेल्स बॉय का काम करने वाला 12 साल का जावेद चौधरी. उसे यह काम करते हुए चार साल हो गये हैं. उसके पिता का काफी समय पहले निधन हो चुका है और मां अलग अलग घरों में काम करती है. वह कहता है, “कई साल से हमने ईद पर भी नये कपड़े नहीं पहने हैं. महंगाई बहुत है और हमारा गुजारा पहले ही मुश्किल से चलता है.”
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हर सूट 100 रुपये
सात साल का वकास अहमद रावलपिंडी के राजा बाजार में रहता है और वहीं एक स्टॉल पर रेडीमेड कपड़े बेचता है. ग्राहकों को बुलाने के लिए वह "हर सूट 100 रुपये" की आवाजें लगाता है. वकास ने बताया कि वह यह काम दो साल से कर रहा है और कभी स्कूल नहीं गया. उसका कहना है, “हमारे घर का कोई बच्चा स्कूल नहीं गया. सब ऐसे ही स्टॉल लगाते हैं.”
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नन्हे सेल्समैन
एक दुकान, जिस पर एक बालिग व्यक्ति के साथ दो बच्चे भी सामान बेचते दिखते हैं. बच्चे जिनके ये खेलने और स्कूल जाने के दिन हैं, यहां काम पर लगे हुए हैं. अकसर गरीब माता-पिता अपने बच्चों को 100 रुपये की दिहाड़ी पर ऐसी दुकानों पर काम करने भेज देते हैं.
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स्कूल भी, काम भी
यह बच्ची इस्लामाबाद की एक झुग्गी बस्ती में रहती है लेकिन अपने घर से कुछ ही दूर वह घरों में बर्तन और कपड़े धोने के अलावा साफ सफाई का काम भी करती है. सुबह यह लड़की एक स्कूल में पढ़ने जाती है और दोपहर बाद यह काम करती है. माता पिता की आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण उसे यह काम करना पड़ता है.
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सरकार पर सवाल
इस्लामाबाद में ये दोनों भाई गर्मियों में बर्फ और सर्दियों में भुने हुए मक्के के दाने बेचते हैं. पाकिस्तान में ऐसे लाखों बच्चे हैं जिन्हें पता ही नहीं है कि 12 जून को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बाल श्रम विरोधी दिवस मनाया जाता है. सवाल यह है कि क्या ऐसे बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए देश की सरकार गंभीर है?
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समाज का घाटा
एक मोटरसाइकल वर्कशॉप में काम करना वाला यह बच्चा अपनी उम्र के लिहाज से किसी मिडल स्कूल में होना चाहिए. लेकिन गरीबी और बदहाली अकसर माता पिता को अपने बच्चों को ऐसे कामों पर लगाने के लिए मजबूर कर देती है. जो बच्चे पढ़ लिखकर प्रशिक्षित पेशेवर बन सकते हैं, उन्हें छोटा मोटा मैकेनिक या खोमचे पर बिठा देना समाज के लिए बहुत घाटे का सौदा है.
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स्कूल जाने की तमन्ना
तपती धूप में फल बेच रहे इस बच्चे का कहना है कि उसे पता ही नहीं है कि यह काम वह कब से कर रहा है. इसके अलावा उसने अब तक कुछ नहीं किया है. वह स्कूल जाना चाहता था, लेकिन वह ऐसा नहीं कर सकता. शिक्षा और बेहतरी की उम्मीदों से महरूम इस बच्चे के लिए कौन जिम्मेदार है.