शांति, सुरक्षा, एकजुटता और विकास के नारे के साथ जब 1961 में गुटनिरपेक्ष आंदोलन (नैम) की नींव पड़ी थी तो इसकी स्थापना में मूल भाव निहित था, एक नई आर्थिक विश्व व्यवस्था का निर्माण. कहने को आज गुटनिरपेक्ष आंदोलन सिर्फ रस्मी आयोजन सा रह गया है लेकिन यही वो समय है जब वो अपने दशकों से जमा आलस्य को तोड़कर एक नई करवट ले सकता है. विकास और वृद्धि के वैश्विक असंतुलन को कम करने के लिए इसकी जरूरत खत्म नहीं हुई है बल्कि ये मांग तो और पुरअसर हुई है.
इसमें कोई शक नहीं कि राष्ट्रकुल (कॉमनवेल्थ) की तरह ये संस्था भी, सुधारों के अभाव में अपना प्रभाव खो रही है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि इसे अब ठंडे बस्ते में डाल दिया जाए. बल्कि समकालीन समय की चुनौतियां तो ये कहती हैं कि गुटनिरपेक्ष आंदोलन को अगर सही दिशा और दूरदृष्टिसंपन्न नेतृत्व मिले तो ये अपनी प्रतिष्ठा और महत्व को शीत युद्ध के दौर से कहीं आगे ले जा सकता है. नैम के लिए ये जरूरी है कि वो अंतरराष्ट्रीय वास्तविकताओं को परिभाषित करने और उन्हें आकार देने में अपनी भूमिका निभाए, बदलाव के प्रति लचीला बने और नए विश्व माहौल में अपने लिए उपयुक्त आर्थिक और राजनीतिक सामरिकताओं का निर्माण करे.
दो अक्टूबर 1869 को भारत में एक ऐसी ज्योति ने जन्म लिया, जिसने पूरे विश्व को अहिंसा और प्रेम का संदेश दिया. आईये देखें उन बड़ी हस्तियों को जिन्हें महात्मा गांधी से प्रेरणा मिली.
2009 में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा वर्जीनिया प्रांत के एक हाईस्कूल में गए. तभी एक छात्र ने सवाल किया कि आप जीवित या गुजर चुकी किस हस्ती के साथ डिनर करना चाहेंगे. ओबामा ने जवाब दिया, "महात्मा गांधी." अमेरिकी संसद में ओबामा के दफ्तर में महात्मा गांधी की तस्वीर भी लगी है.
तस्वीर: Reuters/Jim Bourgअमेरिका के मशहूर क्रांतिकारी मार्टिन लूथर किंग ने नागरिक अधिकारों के लिए अहिंसक तरीके से लड़ाई लड़ी और कामयाबी पाई. मार्टिन लूथर किंग गांधी की सोच और उनके विचारों से बहुत ही ज्यादा प्रभावित थे. किंग ने कहा, "ईसा मसीह ने हमें लक्ष्य दिये हैं और महात्मा गांधी ने उन लक्ष्यों तक पहुंचने की रणनीति."
तस्वीर: picture-alliance/akgजवानी में भारत भ्रमण पर आए स्टीव जॉब्स गांधी की जिंदगी और आध्यात्म से प्रभावित थे. स्टीव जॉब्स ने 1980 के दशक में जब अपनी कंपनी बनाई और एप्पल कंप्यूटर बेचना शुरू किया तो उन्होंने विज्ञापनों में चरखे के साथ बापू की तस्वीर लगाई. विज्ञापन का नारा था, "अलग सोचो."
तस्वीर: dapd20वीं सदी के महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइनस्टाइन भी महात्मा गांधी के कायल थे. दोनों एक दूसरे को खत भी लिखा करते थे. गांधी जी के हत्या की खबर पाते ही आइनस्टाइन की आंखें भर आईं. उन्होंने कहा, "एक दिन ऐसा भी हो सकता है कि आने वाली पीढ़ी को यकीन ही नहीं होगा कि मांस और खून का बना ऐसा आदमी कभी पृथ्वी पर चला होगा."
तस्वीर: picture-alliance / akg-imagesदक्षिण अफ्रीका का आधुनिक इतिहास नेल्सन मंडेला से जुड़ा है और नेल्सन मंडेला गांधी से जुड़े हैं. नेल्सन मंडेला ने गांधी के पदचिह्नों पर चलते हुए दक्षिण अफ्रीका को रंग भेद और नस्लवाद से आजादी दिलाई. भारत में तैनात दक्षिण अफ्रीका के राजदूत हैरिस माजेके ने कहा, "नेल्सन मंडेला दक्षिण अफ्रीका के पिता हैं और महात्मा गांधी हमारे दादा."
तस्वीर: picture-alliance/dpaसंगीत की दुनिया के सबसे बड़े नामों में शुमार बीटल्स बैंड के ब्रिटिश संगीतकार जॉन लेनन भी गांधी से प्रभावित थे. बापू के जैसा गोल चश्मा लेनन भी पहना करते थे. लेनन कहते थे कि गांधी ने कहा है "वो बदलाव खुद बनो, जो तुम दुनिया में देखना चाहते हो."
तस्वीर: picture-alliance/dpaतिब्बत में चीन के दमन के बाद दलाई लामा भागकर भारत आए. 1956 में 20 साल की उम्र में दलाई लामा राजघाट में बापू की समाधि पर गए. दलाई लामा ने समाधि को छुआ और जीवन में कभी हिंसा का रास्ता न अपनाने का प्रण किया. 1989 में दलाई लामा ने अपना शांति पुरस्कार महात्मा गांधी को समर्पित किया.
तस्वीर: picture alliance/dpaनोबेल शांति पुरस्कार विजेता और म्यांमार की नेता आंग सांग सू ची अपने जीवन को महात्मा गांधी से प्रभावित बताती है. सू ची दुनिया भर में जगह जगह बच्चों को गांधी के बारे में पढ़ने को कहती हैं. म्यांमार में सेना के सत्ता हथियाने के लिए खिलाफ सू ची ने लंबा अहिंसक विरोध किया. वह 15 साल नजरबंद रहीं.
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गुटनिरेपक्ष आंदोलन की अक्षमता या प्रभावहीनता की एक वजह तो ये है कि शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद गुटनिरपेक्षता का सिद्धांत अपनी चमक खो बैठा है लेकिन यह गंभीर आंतरिक समस्याओं से भी जूझ रहा है. इनमें, सदस्यता का पैमाना बहुत उदार रहा है जिसकी वजह से सदस्यों में आत्मानुशासन का अभाव दिखता है, सहमति के तरीकों में कमजोरियां दिखती हैं. और तो और वैश्विक घटनाओं की निगरानी का कोई तंत्र भी नहीं है, यहां तक कि प्रतिक्रिया के स्तर पर भी नैम से कोई एक स्वर पिछले कुछ दशकों से नहीं सुना गया. ये भी सही है कि तत्कालीन सोवियत संघ की अगुवाई वाले कम्युनिस्ट या पूर्वी ब्लॉक के ढह जाने के बाद और नतीजतन वैश्विक पूंजीवाद और नवउदारवाद के आगमन ने गुटनिरपेक्षता की अवधारणा को ही कमजोर किया है. गुटनिरपेक्ष आंदोलन के सदस्य देश आपसी विवादों का शांतिपूर्ण हल निकालने की संरचना बनाने में भी विफल रहे हैं. इन लंबा चलने वाले झगड़ों ने भी आंदोलन को कमजोर किया है.
उधर अमेरिका भले ही एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था का सरताज बना हुआ है और इसमें उसकी खुशफहमी भी शामिल है कि वो नई विश्व व्यवस्था का निर्माण कर चुका है. लेकिन अंततः वैश्विक घटनाएं इस बात की गवाह हैं कि अस्थायी तौर पर अमेरिका निर्मित गठबंधनों का बोलबाला हो लेकिन निर्णायक और अंतिम तौर पर उनका सिक्का बने रहना असंभव है. क्योंकि अंतरराष्ट्रीय सिस्टम बहुस्तरीयता केंद्रित है और कई ऐसे समूहों का उदय हुआ है जो अमेरिकी आर्थिक और सैन्य आधिपत्य की छाया में वृद्धि करने से परहेज करते हैं. कल तक अगर रूस अमेरिका का एक प्रतिपक्ष था तो आज चीन है. बेशक ये वैचारिक प्रतिपक्ष नहीं है लेकिन सैन्यवादी और आर्थिक हितवादी प्रतिपक्ष जरूर है जिससे अमेरिका भी असहज है. चीन के अलावा अन्य छोटे समूह जैसे भारत, रूस, दक्षिण कोरिया और ब्राजील का ब्रिक्स समूह हो या जी-77, सार्क या लैटिन अमेरिकी देशों का संगठन या यूरोपीय देशों का संगठन, अपने अपने स्तर पर और अपनी कमजोरियों के बावजूद ये एकध्रुवीय वर्चस्व को चुनौती देने की स्थिति में आ रहे हैं. ये बात सही है कि सैन्य सामरिकता के लिहाज से अमेरिकी ताकत अभी एकछत्र है और उसे चुनौती देने वाला कोई नहीं लेकिन ये भी सच है कि आज अमेरिका दुनिया का अकेला शक्ति संपन्न देश नहीं रह गया है.
इंग्लैंड जाकर कानून की पढ़ाई करने वाले मोहनदास करमचंद गांधी के जीवन के वो पड़ाव जिन्होंने उन्हें महात्मा बना दिया.
तस्वीर: APअपने सबसे छोटे बेटे देवदास के साथ बापू. यह तस्वीर 1931 में लंदन में ली गई. महात्मा गांधी ने अपने परिवार पर वही अनुशासन लागू किया जो बाकी दुनिया से चाहा.
तस्वीर: APयह तस्वीर 1915 में ली गई जब मोहनदास करमचंद गांधी अपनी पत्नी कस्तूरबा के साथ दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे. भारत आने के बाद उन्हें रवींद्र नाथ टैगोर ने पहली बार महात्मा कह कर पुकारा. इसके बाद ही उन्हें महात्मा गांधी के नाम से जाना जाने लगा.
तस्वीर: AP1944 में ब्रिटिश अधिकारियों से बातचीत करने जब बापू मुंबई आए तो रेलवे स्टेशन पर उनका जोरदार स्वागत हुआ. हजारों लोग सिर्फ उनकी एक झलक पाने के लिए मीलों पैदल चलकर आए थे.
तस्वीर: APमैं जितनी बार चरखे से सूत निकालता हूं उतनी ही बार भारत के गरीबों का विचार करता हूं: गांधी
तस्वीर: APआजादी से पहले भारत में सांप्रदायिक सद्भाव बिगड़ गया. जगह जगह हिंदू मुस्लिम दंगे होने लगे. इन परिस्थितियों में 1944 में गांधी जी मुस्लिम लीग के प्रमुख मोहम्मद अली जिन्ना के पास गए. जिन्ना ने बेहद आदर के साथ गांधी की एक एक बात सुनी.
तस्वीर: AP"सत्य से ऊपर कोई भगवान नहीं है. ताकत शारीरिक क्षमता से नहीं आती है. ताकत अदम्य इच्छाशक्ति से आती है." गांधी ने जो कहा, उसे पहले कर के दिखाया. फिल्म 'गांधी' में बेन किंग्सले.
तस्वीर: picture-alliance/Mary Evans Pi''यदि भारत ने हिंसा को अपना धर्म स्वीकार कर लिया और यदि उस समय मैं जीवित रहा, तो मैं भारत में नहीं रहना चाहूंगा. तब वह मेरे मन में गर्व की भावना उत्पन्न नहीं करेगा.'' इतनी बड़ी बात कहने वाला आदमी ही जाति, धर्म और देश की सीमाओं से परे जन जन के मन पर राज कर सकता है. जोहानिसबर्ग में बापू की मूर्ति.
तस्वीर: picture-alliance/dpa''संस्था जितनी बड़ी होगी, उसके दुरुपयोग की संभावनाएं भी उतनी ही बड़ी होंगी. लोकतंत्र एक बड़ी संस्था है, इसलिए उसका दुरुपयोग भी बहुत हो सकता है.लेकिन उसका इलाज लोकतंत्र से बचना नहीं, बल्कि दुरुपयोग की संभावना को कम से कम करना है.'' आज गांधी कहां हैं?
तस्वीर: Thomas Weißenfels/Fotolia''विदेशी भाषा के माध्यम ने बच्चों के दिमाग को शिथिल कर दिया है, उनके स्नायुओं पर अनावश्यक जोर डाला है, उन्हें रट्टू और नकलची बना दिया है तथा मौलिक कार्यों और विचारों के लिए सर्वथा अयोग्य बना दिया है. इसकी वजह से वे अपनी शिक्षा का सार अपने परिवार के लोगों तथा आम जनता तक पहुंचाने में असमर्थ हो गए हैं.''
तस्वीर: APभारत पाकिस्तान विभाजन के वक्त हुए दंगों से गांधी जी इतने दुखी हुए कि वह आमरण अनशन पर बैठ गए. छह दिन बाद 18 जनवरी 1948 को जब हिंदू, मुस्लिम और सिख नेताओं ने उन्हें आश्वासन दिया कि वह शांति बहाल कराएंगे तो बापू के पेट में अन्न का दाना गया.
तस्वीर: AP30 जनवरी 1948, हिंदू कट्टरपंथियों ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की गोली मार कर हत्या कर दी. कट्टरपंथी गांधी जी के धार्मिक सहिष्णुता के सिद्धांत के विरोधी थे. दुनिया को अहिंसा का पाठ पढ़ाने वाले साबरमती के संत को अपने ही देश के कुछ लोग नहीं समझ पाए.
तस्वीर: AP''सच्चा स्वराज्य थोड़े लोगों के द्वारा सत्ता प्राप्त कर लेने से नहीं बल्कि जब सत्ता का दुरुपयोग होता हो तब सब लोगों के द्वारा उसका प्रतिकार करने की क्षमता प्राप्त करके हासिल किया जा सकता है.आजादी नीचे से शुरू होनी चाहिए.''
तस्वीर: APगांधी जी की हत्या के आरोपियों पर चले मुकदमे की सुनवाई लाल किले में हुई. नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे को फांसी की सजा हुई. गोपाल गोडसे को उम्रकैद हुई. कुछ आलोचक कहते हैं कि हत्यारों को फांसी देने का फैसला करते ही भारत ने बापू के अहिंसा के विचारों को तिलाजंलि दे दी.
तस्वीर: picture-alliance/ZBमहात्मा गांधी अब विचारों, तस्वीरों और मूर्तियों में हैं. दुनिया के 20 से ज्यादा देशों के किसी एक प्रमुख शहर में गांधी जी की प्रतिमा दिखाई पड़ती है. लेकिन भारत में गांधी कहां बचे हैं? आप पूछते हैं खुद से यह सवाल?
तस्वीर: picture-alliance/Soeren Stache
कहा जा सकता है कि इसके लिए संयुक्त राष्ट्र और उसकी एजेंसियां तो हैं ही, फिर गुटनिरपेक्ष आंदोलन की क्या जरूरत. सही है कि यूएन सबसे बड़ी अंतरराष्ट्रीय एजेंसी है लेकिन हम ये भी जानते हैं कि हाल के दशकों में यूएन की भूमिका शिथिल हुई है और वो आदर्श और नैतिकता की रस्म अदायगी का जमावड़ा सा बन गया है. उसमें भी अमेरिकी वर्चस्व छाया हुआ है और यूएन के पास शक्तियां अत्यन्त सीमित हैं. वो चाहकर भी वैश्विक दबंगइयों की मुखालफत नहीं कर पाता. यूएन की नाक के ही नीचे इतने युद्ध और सैन्य कब्जे हो चुके हैं और विडम्बना ये है कि वह अक्सर असहाय दिखता है. ऐसे में गुटनिरपेक्ष आंदोलन अपनी प्रभावशाली उपस्थिति का अहसास करा सकता है. और एक संस्थापक देश होने के नाते भारत को तो ये जमीन, ये मंच और ये मौका तो किसी भी कीमत पर नहीं गंवाना चाहिए, अगर वो वास्तव में अपनी भूमिका को दक्षिण एशियाई भूगोल से बाहर भी देखता है. अकेले अकेले रह कर न भारत कुछ कर पाएगा न कोई अन्य गुटनिरपेक्ष देश, लिहाजा साथ रहकर वे अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के संतुलन को बिगड़ने से बचा सकते हैं, इस कड़ी में सबसे पहला काम तो संयुक्त राष्ट्र में सुधारों की प्रक्रिया में तेजी लाकर उसे मजबूत करने का होगा. दक्षिण-दक्षिण सहयोग यानी छोटे और गरीब देशों के आपसी सहयोग को प्रोत्साहित करना होगा, और तीसरी सबसे बड़ी बात नैम में जरूरत के मुताबिक सुधार करने होंगे. लेकिन ध्यान ये रखना होगा कि ये सुधार अपनी घरेलू और पारस्परिक जरूरतों के लिहाज से तय हों.
बेशक आतंकवाद एक गहन समस्या के रूप में उभर आया है लेकिन ये भी सच है कि आज दुनिया के अधिकतर देशो में शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य और मानवाधिकारों को लेकर बहुत चिंताजनक माहौल है. इन देशों में मुक्त बाजार सिस्टम ने तो अपनी पैठ और अपने रास्ते बना ही लिए हैं लेकिन वहां की मूल समस्याएं जस की तस हैं. विकास असंतुलित है. नैम देश साथ मिलकर इस माहौल को बदलने की दिशा में कारगर कदम उठा सकते हैं. इसके लिए अमेरिका, ब्रिटेन, यूरोप, चीन या संयुक्त राष्ट्र का मुंह ताकते रहने की फिर कोई जरूरत न होगी. क्योंकि बात सिर्फ अंतरराष्ट्रीय दोस्तियां विकसित करने की नहीं, बात आत्मसम्मान और नागरिक गरिमा की भी है. अंतरराष्ट्रीय राजनीति में गुटनिरपेक्षता की अवधारणा का धूमिल हो जाना, दुनिया के लोगों के लिए कोई अच्छा संकेत नहीं कहा जा सकता है.
ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी