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2024 में जर्मन विदेश नीति के आगे कई बड़ी चुनौतियां

क्रिस्टॉफ हासेलबाख
२ जनवरी २०२४

जर्मन विदेश नीति का शांत और स्थिर दौर बीत चुका है. जर्मन सरकार के आगे कई चुनौतियां हैं. बर्लिन को दो युद्धों, ज्यादा आक्रामक हो रहे चीन और वैश्विक व्यवस्था में आ रहे बदलावों से निपटने के रास्ते खोजने होंगे.

रक्षा मंत्री बोरिस पिस्टोरियस, विदेश मंत्री आनालेना बेयरबॉक और जर्मन चांसलर ओलाफ शॉल्त्स
रक्षा मंत्री बोरिस पिस्टोरियस (बाईं तरफ), विदेश मंत्री आनालेना बेयरबॉक (बीच में) और जर्मन चांसलर ओलाफ शॉल्त्स 2024 में भी जर्मनी की विदेश और रक्षा नीति को आकार देना जारी रखेंगे. तस्वीर: ANNEGRET HILSE/REUTERS

दिसंबर 2023 की शुरुआत में जर्मन भाषा के संगठन ने "क्रीजेनमोडुस" को अपने साल का शब्द चुना. इसका मतलब होता है, संकटकालीन. जर्मन विदेश नीति की मौजूदा हालत का खाका खींचने के लिए ये बड़ा उपयुक्त शब्द है.

इस्राएल और हमास के बीच जारी युद्ध, जर्मनी की मुश्किलों की फेहरिस्त में ताजा एंट्री है. जर्मनी, यूरोपीय संघ और अमेरिका समेत कई देशों की सरकारों ने हमास को आतंकवादी संगठन का दर्जा दिया हुआ है. इस्राएल और हमास के संघर्ष का विस्तार हो सकता है और इसके बहुत खौफनाक नतीजे हो सकते हैं.

इस्राएल की सुरक्षा को जर्मनी अपना "सबसे अहम मकसद" मानता है. जर्मन चांसलर ओलाफ शॉल्त्स कई बार ये दोहरा चुके हैं. शॉल्त्स के लिए, यह एक दायित्व है जिसकी वजह जर्मनी के नाजी अतीत से जुड़ी है. हालांकि इसके बावजूद विदेश मंत्री आनालेना बेयरबॉक ने इस्राएल के सैन्य अभियानों की आलोचना की.

नवंबर 2023 में डीडब्ल्यू को दिए एक इंटरव्यू में बेयरबॉक ने कब्जा किए गए वेस्ट बैंक में यहूदी सेटलर्स द्वारा फलस्तीनियों के खिलाफ की गई हिंसा पर खेद जताया. उन्होंने कहा, "इस्राएली प्रधानमंत्री को इस सेटलरों की हिंसा की निंदा करनी चाहिए, कानूनी कार्रवाई की जानी चाहिए और ऐसा करना इस्राएल की सुरक्षा के हित में भी होगा."

इसके अलावा जर्मनी उस विमर्श में भी शामिल है, जिसमें युद्ध के बाद मध्यपूर्व की रूपरेखा को लेकर बातचीत हो रही है. यूरोपीय संघ और अमेरिका की तरह जर्मनी भी "टू-स्टेट सॉल्यूशन" का पक्षधर है. इसका मतलब है, एक इस्राएली देश के साथ-साथ एक फलीस्तीनी देश.

रूस के हमले का असर

रूस के हमले ने यूरोप में सुरक्षा की भावना को तबाह कर दिया. हालिया दशकों में किसी और मसले ने जर्मन और यूरोपीय राजनयिकों के आगे इतनी बड़ी चुनौती नहीं पेश की, जितनी फरवरी 2022 में यूक्रेन पर रूसी हमले ने. बाकी पश्चिमी देशों के साथ जर्मनी ने भी यूक्रेन को विस्तृत सैन्य सहायता उपलब्ध कराई. इसके बावजूद युद्ध शुरू होने के तकरीबन दो साल बाद भी रूस द्वारा कब्जा कर लिए गए इलाकों को वापस हासिल करने में यूक्रेन को बहुत कम कामयाबी मिल पाई है. 

पश्चिमी देशों में अब यूक्रेन को सैन्य सहायता मुहैया कराने की तत्परता कमजोर हो रही है. ऐसा अमेरिका के साथ भी है, जो कि यूक्रेन का सबसे अहम सहयोगी है. एक तरफ जहां पश्चिमी देशों में युद्ध को लेकर एक तरह की थकान बढ़ रही है, वहीं नेताओं पर वार्ता के रास्ते युद्ध खत्म करने के तरीके तलाशने का दबाव है.

योहानस वारविक, हाले विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञानी हैं. वारविक ने डीडब्ल्यू से कहा, "मुझे लगता है कि संघर्ष विराम के बाद यूक्रेन में कुछ भूभागीय बदलावों और उसकी निष्पक्षता से जुड़ी मुश्किल कूटनीतिक बातचीत का समय आएगा. ये सारे मुद्दे वार्ता की मेज पर होंगे." 

विपक्षी दल सीडीयू के सदस्य रोडरिष कीजेवेटर का मानना है कि समाधान तलाशने के समझौते से जुड़ी सारी बातचीत खतरनाक है और यूक्रेन में सैन्य सफलता संभव है. उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा, "पश्चिमी देशों ने आजादी के अभियान में बाधा डाली है क्योंकि बहुत कम सप्लाई, बहुत देरी से भेजी गई." उन्होंने कहा, "रणनीति यह होनी चाहिए कि जितनी जल्दी हो सके, (हथियारों) आपूर्ति भेजी जाए."

जर्मन चांसलर ने दिया उम्मीद और मिलजुल कर काम करने पर जोर

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चीन के प्रति बढ़ता संशय

अंगेला मैर्केल 2005 से 2021 तक जर्मनी की चांसलर रहीं. उनके कार्यकाल के मुकाबले अब जर्मनी और चीन के रिश्तों में बहुत बदलाव आ चुका है. व्यापार नीति के हित में मैर्केल बहुत नाजुक तरीके से चीन की सरकार के साथ बरतती थीं. इससे उलट मौजूदा सरकार द्वारा इस साल जारी की गई रणनीति में चीन को जर्मनी और यूरोपीय संघ का "एक सहयोगी, प्रतिद्वंद्वी और व्यवस्थागत तौर पर विरोधी" बताया गया. हालिया समय में जर्मन सरकार ने होड़ के पक्ष पर ज्यादा जोर दिया है.

जर्मन सरकार ताइवान के प्रति चीन के बर्ताव को लेकर चिंता है. साथ ही, यूक्रेन युद्ध के बावजूद रूस के साथ चीन के करीबी रिश्तों पर भी चिंता है. इन सबके बावजूद चीन 2016 से ही जर्मनी का सबसे अहम व्यापारिक सहयोगी बना हुआ है. यही वजह है कि जर्मन सरकार की चीन नीति दोनों अर्थव्यवस्थाओं को अलग करने पर केंद्रित नहीं है क्योंकि इससे जर्मनी को बहुत नुकसान होगा. इसकी जगह चीन पर एकतरफा आर्थिक निर्भरता घटाने की कोशिश की जा रही है.

आदर्श बनाम कारोबारी हित?

मूल्यों पर आधारित विदेश नीति की सीमाएं चीन के मामले में खासतौर पर स्पष्ट दिखती हैं. अप्रैल 2023 में चीन के तत्कालीन विदेश मंत्री किन गांग ने बेयरबॉक की मानवाधिकार के प्रति ज्यादा सम्मान की अपील के जवाब में कहा, "चीन को जिस चीज की सबसे कम जरूरत है, वो है पश्चिम की ओर से कोई स्कूलमास्टर."

30 नवंबर को पत्रकार मॉर्टन फ्राइडेल ने फ्रांकफुर्टर आलगेमाइन त्साइटुंग में लिखा, "ऐसी दुनिया में जहां उदार पश्चिम पर लगातार दबाव बढ़ रहा है, लगातार मूल्यों पर जोर देने से दुश्मन बनाना आसान हो जाता है." फ्राइडेल आगे लिखते हैं, "इसका यह मतलब नहीं है कि मूल्यों को त्याग दिया जाए. इसका तात्पर्य बस इतना है कि उनपर लगातार बहस ना की जाए."

वहीं जर्मन काउंसिल ऑन फॉरेन रिलेशंस के हेनिंग हॉफ जर्मन सरकार की विदेश नीति को ज्यादा सकारात्मक तरीके से देखते हैं. हॉफ ने डीडब्ल्यू से कहा, "अगर हम मूल्यों की पूरी तरह से अनदेखी कर देंगे, जैसा कि हमने रूस के साथ किया, तो इसके खौफनाक नतीजे होंगे और यूक्रेन के मामले में हम ये देख रहे हैं."

इस रणनीति से चीन को पछाड़ना चाहता है जर्मनी!

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सहयोगियों की तलाश

यूक्रेन में युद्ध ने जर्मन सरकार को एक मुश्किल सबक सिखाया है. रूस के खिलाफ लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों का समर्थन करने को तैयार सहयोगियों की वैश्विक तलाश में कई विकासशील और उभर रहे देशों ने अपनी पीठ दिखाई. उन्होंने मॉस्को के साथ व्यापार जारी रखने का इरादा दिखाया.

हेनिंग हॉफ रेखांकित करते हैं कि आमतौर पर पश्चिम के साथ रहने वाले भारत और ब्राजील जैसे देश "इस बदल रही वैश्विक व्यवस्था में किसी का भी पक्ष ना लेने की अपनी आजादी का इस्तेमाल कर नई गुंजाइश तलाश रहे हैं."

हालांकि शॉल्त्स सरकार इन देशों के साथ संपर्क कर उन्हें बराबरी के स्तर पर साथ लाने की कोशिश करती आई है. हॉफ कहते हैं, "यह जर्मनी की विदेश नीति का एक सक्रिय विस्तार है और मुझे लगता है कि बर्लिन सही राह पर है."

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