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ग्लासगो COP26 से पहले सबकी चिंता

११ अक्टूबर २०२१

यूएन के जलवायु सम्मेलन से पहले माहौल तो बन रहा है लेकिन अमेरिका और चीन के सहयोग के बिना इस सम्मेलन का कोई अर्थ नहीं है. ये दोनों देश दुनिया के आधे से ज्यादा कार्बन उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैं.

तस्वीर: Guglielmo Mangiapane/REUTERS

ग्लासगो में होने वाले COP26 सम्मेलन से पहले विशेषज्ञ चिंता जता रहे हैं कि अमेरिका और चीन के बीच असहयोग सारी कोशिशों पर पानी फेर सकता है. पर्यावरण प्रेमी इस सम्मेलन से एक ठोस समझौते की उम्मीद कर रहे हैं लेकिन पिछले कुछ समय से चीन और अमेरिका के बीच संबंधों में तनातनी जारी है, जिससे उनकी उम्मीदों को ग्रहण लग सकता है.

संयुक्त राष्ट्र के विशेषज्ञ चाहते हैं धरती का औसत तापमान 1.5 फीसदी से ज्यादा ना बढ़े. इसके लिए हर देश को कार्बन उत्सर्जन घटाना होगा. अमेरिका और चीन, जो आधे से ज्यादा उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैं, कोशिश तो कर रहे हैं लेकिन विशेषज्ञों की नजर में वे कोशिशें ऊंट के मुंह में जीरे के बराबर हैं.

कुछ तो होगा

कैलिफॉर्निया एयर रिसॉर्सेज बोर्ड नामक संस्था की मैरी निकोलस कहती हैं, "अगर चीन और अमेरिका की सरकारों की ठोस समझौते पर सहमत नहीं होती हैं, तो भी कुछ कार्रवाई की गुंजाइश तो रहेगी, क्योंकि दोनों देश अपने अपने स्तर पर कदम उठाने के इच्छुक हैं. लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि समझौता गैरजरूरी है क्योंकि समझौता नहीं होगा तो दूसरे देश कार्रवाई करने में ज्यादा इच्छुक नहीं होंगे.”

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अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के प्रशासन ने चीन को अपने देश के लिए सबसे बड़ी चुनौती बताया है और मानवाधिकार से लेकर ताईवान तक अलग-अलग मुद्दों पर उसे घेरने की कोशिश की है. लेकिन पर्वावरण एक ऐसा मुद्दा है जिस पर अमेरिकी सरकार चीन से सहयोग करना चाहती है.

अमेरिका का जलवायु दूत जॉन केरी ने हाल ही में एक भाषण में कहा था, "अमेरिका और चीन के मतभेद कोई रहस्य नहीं हैं लेकिन जलवायु पर सहयोग ही एक जरिया जिससे दुनिया के मौजूदा आत्मघाती संकट से उबरा जा सकता है.”

संबंधों में ठंडेपन के बावजूद हाल के दिनों में केरी दो बार चीन की यात्रा कर चुके हैं. हालांकि उनकी हालिया यात्रा पर चीन के विदेश मंत्री वां यी ने चेतावनी जारी कर दी थी. उन्होंने कहा था, "जलवायु पर अमेरिका और चीन के बीच सहयोग को दोनों देशों के रिश्तों के माहौल से अलग करना असंभव है.”

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इस टिप्पणी ने वॉशिंगटन को परेशान कर दिया था क्योंकि इसका अर्थ था कि बाइडेन और केरी की सिर्फ जलवायु पर चीन से सहयोग की नीति विफल रही. उस परेशानी को थोड़ी राहत चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के यूएन महासभा में दिए भाषण से मिली, जिसमें उन्होंने जलवायु परिवर्तन पर कई कदम उठाने की बात की. उन्होंने ऐलान किया कि चीन विदेशों में कोयला बिजली संयंत्र नहीं बनाएगा.

एक का असर दूजे पर

एमेटे इंस्टिट्यूट ऑन क्लाइमेट चेंज के सह निदेशक एलेक्स वांग संभावना जताते हैं कि चीन और अमेरिका में जलवायु परिवर्तन पर कदम उठाने में एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ भी मच सकती है.

वांग कहते हैं, "इससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चीन की छवि सुधरती है. अगर चीन के नेताओं को लगा कि वे पिछड़ रहे हैं तो उन पर दबाव बढ़ेगा और तब हो सकता है कि वे घरेलू जीवाश्म ईंधन उद्योग की आवाजों को नजरअंदाज करें. लेकिन इस दबाव के बिना तो थोड़ा बहुत कुछ कर लेने के पक्ष में ही रहेगा.”

वांग ने डॉनल्‍ड ट्रंप का उदाहरण दिया, जो जलवायु परिवर्तन को लेकर निष्क्रिय रहे तो चीन पर भी कोई दबाव नहीं था.

कोलंबिया यूनिवर्सिटी के सेंटर ऑन ग्लोबल एनर्जी पॉलिसी में फेलो मैरी निकोलस मानती हैं कि चीन अगर कार्बन की कीमत पर सहमत हो जाता है तो बड़ा परिवर्तन हो सकता है. वह कहती हैं, "मेरे ख्याल से उससे निवेशकों और उद्योगपतियों को एक मजबूत संदेश जाएगा.”

वीके/सीके (रॉयटर्स)

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