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जहां डॉलर बरसते हैं, वहां लोग चुप क्यों हैं

२ दिसम्बर २०१६

फिल्म 'डॉलर सिटी' उन शोषित मजदूरों की चुप्पी पर सवाल उठाती है जिनसे उनके सपने छीन लिए गए. यह फिल्म तिरुपुर की कहानी दिखाती है, जहां डॉलर बरसते हैं.

Textilarbeiterin in Indien
तस्वीर: AP

तमिलनाडु के तिरुपुर को भारतीय कपड़ा उद्योग में खास दर्जा हासिल है. यहां की कई फैक्ट्रियों के प्रांगण में एक छोटा हौद बनाया गया है जिसमें बहुत महंगी एरोवाना मछली तैरती रहती है. फैक्ट्री मालिकों का मानना है कि इस मछली को रखना शुभ होता है, इससे धन आता है. लेकिन इन फैक्ट्रियों में काम करने वालों की किस्मत में यह मछली कोई बदलाव नहीं कर पाती. दसियों हजार लोग इन फैक्ट्रियों में काम करते हैं. वे गरीब ही काम करना शुरू करते हैं और गरीबी में जीवन बिताकर फैक्ट्रियां छोड़ जाते हैं. इन मजदूरों पर फिल्म बनाने वाले पीआर अमुधन कहते हैं कि उद्योगपति खूब मुनाफा कमाते हैं लेकिन मजदूरों तक इस मुनाफे का हिस्सा जरा भी नहीं पहुंच पाता.

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अमुधन ने 'डॉलर सिटी' नाम की डॉक्युमेंट्री बनाई है. इस फिल्म में तिरुपुर की कहानी है जो कपड़ा उद्योग का तेजी से बढ़ता केंद्र है. इस जगह को भारतीय अर्थव्यवस्था में भी सम्मान की नजर से देखा जाता है क्योंकि रेडीमेड कपड़ों के निर्यात से भारत खूब विदेशी मुद्रा कमा रहा है. लेकिन अमुधन बताते हैं कि ये डॉलर्स बस मालिकों के हिस्से में आते हैं. वह कहते हैं, "शहर में आने वाले डॉलर्स को पाने और उन पर मौज उड़ाने का हक बस मालिकों का ही है. कामगार बहुत कम कमातते हैं. और इस मुद्दे पर हर कोई एकदम खामोश है. यहां तक कि शोषित मजदूर भी शिकायत नहीं करता है."

तस्वीर: DW

 

अमुधन की फिल्म 1 मई को रिलीज हुई थी और तब से भारत भर में 50 बार दिखाई जा चुकी है. इसे देखने वालों में मजदूर और उनके मालिकों के अलावा नीति निर्माता भी हैं. इस फिल्म ने बहस को शुरुआत दी है. चेन्नै में फिल्म देखने के बाद गारमेंट और फैशन वर्कर्स यूनियन की अध्यक्ष सुजाता मोदी ने अपने ब्लॉग में लिखा, "इस फिल्म ने दिखाया है कि गारमेंट इंडस्ट्री कितनी ताकतवर है. और यह भी दिखाया कि तिरुपुर में फैक्ट्री वर्कर कितनी भयानक परिस्थितियों में रहते और काम करते हैं."

तस्वीरों में, बांग्लादेश में बाल मजदूरी

भारत दुनिया के सबसे बड़े कपड़ा निर्माता देशों में से एक है. लगभग सभी मशहूर ब्रैंड्स के कपड़े भारत में बनते हैं. अब यह उद्योग 40 अरब डॉलर सालाना का हो चुका है. लेकिन इस उद्योग में काम करने वाले मजदूर इस कदर शोषित हैं कि अपनी बात कहने की ताकत भी खो चुके हैं. इन मजदूरों के लिए काम करने वाले कार्यकर्ता कहते हैं कि ये लोग बहुत खराब हालात में घंटों लगातार काम करते हैं, अक्सर बंधुआ होते हैं और भयानक शोषण सहते हैं. अमुधन बताते हैं, "युवा मजदूरों में तिरुपुर का आकर्षण है क्योंकि यह शहर बेहतर भविष्य के वादे देता है. लेकिन इस शहर का हिस्सा बनने का एक कायदा है जो सभी को मानना होता है. आप सवाल नहीं कर सकते. विरोध नहीं कर सकते. प्रदर्शन नहीं कर सकते. तब भी नहीं जब बेहतर भविष्य का वादा पूरा नहीं हुआ."

तस्वीर: DW

"डॉलर सिटी" में श्रम कानूनों को लेकर सरकार की लापरवाही की भी बात की गई है लेकिन सबसे अहम बात यह उभरती है कि शोषित मजदूर आवाज नहीं उठा रहे हैं. मोदी लिखती हैं, "फिल्म में जितने भी मजदूरों से बात की गई, किसी ने अपनी मुश्किलें बयान नहीं कीं." अमुधन इसी चुप्पी पर सवाल उठाते हैं. वह कहते हैं, "मैं इसे सामूहिक अपराध के तौर पर देखता हूं, जिसमें हर कोई बराबर का हिस्सेदार है."

वीके/एके (रॉयटर्स)

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