भारत में पहली बार अदालत में फेशियल रिकग्निशन तकनीक को चुनौती दी गई है. तेलंगाना के इस मुकदमे का नतीजा ऐतिहासिक होगा जिसका असर हर आदमी पर पड़ेगा.
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लॉकडाउन के दौरान हैदराबाद में पुलिस ने एसक्यू मसूद को सड़क पर ही रोक लिया था. पुलिस ने उन्हें अपना मास्क हटाने को कहा और फिर उनकी एक फोटो खींच ली. मसूद को इसकी कोई वजह नहीं बताई गई.
सामाजिक कार्यकर्ता मसूद को फिक्र हुई कि उनकी तस्वीर क्यों ली गई है और उसका क्या इस्तेमाल किया जाएगा. इसलिए उन्होंने शहर के पुलिस प्रमुख को एक कानूनी नोटिस भेजकर जवाब मांगा. कोई जवाब ना मिलने पर उन्होंने पिछले महीने एक मुकदमा दायर किया जिसमें तेलंगाना सरकार द्वारा चेहरा पहचानने वाली तकनीक के इस्तेमाल को चुनौती दी गई है. भारत में अपनी तरह का यह पहला मामला है.
निजता के अधिकार का हवाला
थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन से बातचीत में 38 वर्षीय मसूद कहते हैं, "मैं एक मुसलमान हूं और ऐसे अल्पसंख्यकों के साथ लगातार काम करता हूं जिन्हें लगातार पुलिस द्वारा परेशान किया जाता है. इसलिए मुझे इस बात का डर है कि मेरी फोटो का दुरुपयोग किया जा सकता है.”
दुनिया में सबसे ज्यादा निगरानी वाले शहर
आमतौर पर निगरानी को लेकर अधिकार कार्यकर्ता सवाल उठाते रहे हैं लेकिन प्रति वर्ग मील सीसीटीवी लगाने के मामले में भारतीय शहरों ने दुनिया के अन्य शहरों को पछाड़ दिया है. दुनिया के शीर्ष तीन शहरों में दो शहर भारत के हैं.
तस्वीर: Wang Gang/dpa/picture-alliance
1.दिल्ली
कंपेरिटेक की रिपोर्ट के मुताबिक प्रति वर्ग मील में सबसे अधिक निगरानी कैमरे (सीसीटीवी कैमरे) लगाने के मामले में दिल्ली दुनिया का पहला शहर बन गया है. दिल्ली में प्रति वर्ग मील 1826 कैमरे लगे हुए हैं.
तस्वीर: dapd
2.लंदन
प्रति वर्ग मील में लगाए गए सीसीटीवी कैमरों के मामले में दिल्ली दुनिया के 150 शहरों में पहले स्थान पर है तो वहीं लंदन दूसरे स्थान पर है. लंदन में प्रति वर्ग मील 1138 कैमरे लगाए गए हैं.
तस्वीर: Getty Images/AFP/B. Stansall
3.चेन्नई
कंपेरिटेक की रिपोर्ट के मुताबिक प्रति वर्ग मील में लगाए गए सीसीटीवी कैमरों के हिसाब से चेन्नई तीसरे स्थान पर आता है. इस शहर में प्रति वर्ग मील में 609 कैमरे लगाए गए हैं.
तस्वीर: Getty Images/AFP/A. Sankar
4.शेंजन
चीनी शहर शेंजन में प्रति वर्ग मील 520 कैमरे लगे हुए हैं. इस संख्या के साथ शेंजन सूची में चौथे स्थान पर है.
तस्वीर: STEPHEN SHAVER/newscom/picture alliance
5.वूशी
शेंजन के बाद एक और चीनी शहर शीर्ष दस शहरों में शामिल है. इस शहर का नाम वूशी है और यहां प्रति वर्ग मील 472 कैमरे लगे हुए हैं.
तस्वीर: Mark Schiefelbein/AP Photo/picture-alliance
6.चिंगदाओ
छठे स्थान पर चीनी शहर चिंगदाओ है और यहां पर प्रति वर्ग मील में 415 सीसीटीवी कैमरे लगाए गए हैं.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/B. Yip
7.शंघाई
चीन का शंघाई प्रति वर्ग मील 408 कैमरों के साथ सातवें स्थान पर है.
तस्वीर: NICOLAS ASFOURI/AFP
8.सिंगापुर
सिंगापुर में प्रति वर्ग मील 387 सीसीटीवी कैमरे लगे हुए हैं. कई बार सीसीटीवी कैमरों द्वारा निगरानी को लेकर सवाल भी उठाए जाते रहे हैं.
तस्वीर: Yeen Ling Chong/AP Photo/picture-alliance
9.चांगशा
चीन के शहर चांगशा में प्रति वर्ग मील 353 कैमरे लगे हुए हैं. चीनी सरकार पर आरोप लगते आए हैं कि वह अपने ही नागरिकों की सख्त निगरानी करती है.
तस्वीर: Reuters/T. Siu
10.वुहान
चीनी शहर वुहान कोरोना वायरस के प्रसार के लिए दुनिया भर में जाना जाता है. इस शहर में प्रति वर्ग मील 339 कैमरे लगे हुए हैं. दुनिया के कई अधिकार समूह इलेक्ट्रॉनिक निगरानी की आलोचना करते आए हैं और लोगों की निजता के हनन से इसको जोड़कर देखते हैं
तस्वीर: Ng Han Guan/AP/dpa/picture alliance
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मसूद निजता के अधिकार का हवाला देते हैं. वह कहते हैं, "निजता के अधिकार की बात भी है और यह जानना मेरा अधिकार भी है कि मेरी तस्वीर क्यों खींची गई, इसका क्या इस्तेमाल किया जाएगा, कौन-कौन उस फोटो का इस्तेमाल कर सकता है और उसकी सुरक्षा कैसे की जाएगी. हर किसी को यह जानने का अधिकार है.”
चूंकि भारत में हर जगह चेहरा पहचानने वाली तकनीक का इस्तेमाल शुरू हो रहा है, इसलिए डिजिटल अधिकार कार्यकर्ता तेलंगाना में दर्ज इस मुकदमे को उत्सुकता से देख रहे हैं. फेशियल रिकग्निशन तकनीक का इस्तेमाल पूरी दुनिया में तेजी से बढ़ा है. अब इसे फोन की स्क्रीन खोलने से लेकर एयरपोर्ट आदि में प्रवेश के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है. यह तकनीक आर्टिफिशल इंटेलिजेंस पर आधारित है और तस्वीरों के एक डेटाबेस से मिलान के जरिए काम करती है.
पूरे देश में फैल रहा है जाल
भारत सरकार पूरे देश में फेशियल रिकग्निशन सिस्टम शुरू कर रही है, जो दुनिया में सबसे विशाल होगा. सरकार का कहना है कि देश में पुलिसकर्मियों की कमी है इसलिए ऐसी तकनीक की सख्त जरूरत है ताकि अपराध रोके जा सकें और बच्चों को चुराए जाने से बचाया जा सके. हालांकि आलोचक कहते हैं कि इस बात के वैज्ञानिक प्रमाण नहीं हैं कि इस तकनीक के इस्तेमाल से अपराध कम होते हैं.
डिजिटल अधिकारों के लिए काम करने वाले कार्यकर्ता कहते हैं कि फेशियल रिकग्निशन सिस्टम अक्सर गहरे रंग वाले या महिलाओं के चेहरों को पहचानने में गलती करता है और भारत में डेटा सुरक्षा को लेकर कड़े कानून नहीं हैं इसलिए यह तकनीक और ज्यादा खतरनाक हो जाती है.
किस देश में कितनी सुरक्षित है नागरिकों की सूचना
भारत में अभी यह बहस छिड़ी है कि नागरिकों के पास निजता का मूल अधिकार है या नहीं. लेकिन विश्व के कुछ देशों में सरकार के अधिकारों और नागरिकों की प्राइवेसी को लेकर नियम साफ हैं.
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अमेरिका में सुप्रीम कोर्ट ने दिखायी राह
विश्व के सबसे पुराने लोकतंत्र में निजता का अधिकार गंभीर मसला है. हालांकि यह संविधान में उल्लिखित नहीं लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कई संशोधनों की व्याख्या इस तरह की, जिससे प्राइवेसी के अधिकार का पता चलता है. संविधान का चौथा संशोधन बिना किसी "संभावित कारण" के किसी की तलाशी पर रोक लगाता है. कुछ अन्य संशोधनों में नागरिकों को बिना सरकारी दखलअंदाजी के अपने शरीर और निजी जीवन से जुड़े फैसले लेने का अधिकार है.
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खास है प्राइवेसी एक्ट, 1974
अमेरिका के इस एक्ट के अंतर्गत सरकारी दस्तावेजों में दर्ज किसी की निजी जानकारियों को बिना उसकी अनुमति के देश की कोई केंद्रीय एजेंसी हासिल नहीं कर सकती. अगर किसी एजेंसी को जानकारी चाहिए तो पहले उसे बताना होता है कि उसे किस काम के लिए उस सूचना की जरूरत है. सोशल सिक्योरिटी नंबर को लेकर यह विवाद है कि इससे सरकारी एजेंसी यह जान जाती है कि कोई व्यक्ति टैक्स भरता है या नहीं या कैसे सरकारी अनुदान लेता है.
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जापान का 'माइ नंबर'
2015 में जापान में नागरिकों की पहचान से जुड़ा एक नया सिस्टम शुरु हुआ. इसमें टैक्स से जुड़ी जानकारी, सामाजिक सुरक्षा के अंतर्गत मिलने वाले फायदों और आपदा राहत के अंतर्गत मिलने वाली मदद को एक साथ लाया गया. आलोचकों की भारी निंदा के बावजूद सरकार ने इसे शुरु कर दिया. सभी जापानी नागरिकों और वहां के विदेशी निवासियों को 12 अंकों की संख्या 'माइ नंबर' मिली. सरकार अब इसमें बैंक खातों को भी जोड़ना चाहती है.
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डाटा लीक के लिए सरकार जिम्मेदार
जापान में भी निजता के अधिकार को साफ साफ परिभाषित नहीं किया गया है. लेकिन जापानी संविधान में नागरिकों को "जीवन, आजादी और खुशी तलाशने" का अधिकार है. 2003 में निजी सूचना की सुरक्षा का कानून बना, जिसमें लोगों की जानकारी को सुरक्षित रखना अनिवार्य है. जब भी किसी व्यक्ति के डाटा का इस्तेमाल होगा, तो उसे इसके मकसद के बारे में जानकारी दी जाएगी. निजी डाटा को लीक से बचाने के लिए सरकार कानूनी रूप से बाध्य है.
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डाटा सुरक्षा में भी यूरोपीय समरसता
पूरे यूरोप में डाटा प्रोटेक्शन डायरेक्टिव लागू होते हैं. इसके अंतर्गत लोगों की सूचना के रखरखाव और इस्तेमाल पर कई तरह की रोक है. ईयू के सदस्य देशों को "ऐसे तकनीकी और संगठनात्मक उपाय लागू करने होते हैं जिससे किसी के डाटा का गलती या गैरकानूनी इस्तेमाल ना हो, ना ही उसे कोई अनाधिकृत व्यक्ति पा सके, बदल सके या किसी तरह का नुकसान पहुंचा सके.” इस नियम का उल्लंघन होने पर न्यायिक उपायों का व्यवस्था है.
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स्वीडन की स्कैंडेनेवियन सोच
स्वीडन विश्व का पहला देश था जहां नागरिकों को पहचान संख्या दी गयी. हर सरकारी कामकाज में इसका इस्तेमाल अनिवार्य हुया. लेकिन अगर किसी की सूचना उसकी जानकारी के बिना इस्तेमाल की जाये और उस पर नजर रखी जाये, तो इसके खिलाफ सुरक्षा मिलेगी. स्वीडन जैसे स्कैंडेनेवियाई देशों में सरकार से नागरिकों को इतने भत्ते मिलते हैं, जिनके लिए लोगों का पहचान नंबर देना जरूरी होता है. प्राइवेसी की चिंता यहां बहुत कम है.
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भारत के सामने नया सवाल
दुनिया के तमाम देशों में सरकारें अपने नागरिकों की ज्यादा से ज्यादा जानकारियां जुटाने में लगी हैं. ज्यादातर इसे प्रभावी कामकाज से जोड़ा जा रहा है. अब तक किसी दूसरे व्यक्ति या निजी समूहों से अपनी जानकारी बचाने की चिंताएं, अब सरकार से अपनी जानकारियां बचाने पर आ पहुंची हैं. सवाल सरकार की कार्यकुशलता बढ़ाने के लिए डाटा के इस्तेमाल और सवा अरब लोगों के डाटा की सुरक्षा का है.
तस्वीर: DW
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दिल्ली स्थित इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन की अनुष्का जैन कहती हैं, "भारत में बहुत तेजी से इस तकनीक का इस्तेमाल बढ़ाया जा रहा है. कहा जा रहा है कि हर पल की निगरानी हमारे लिए अच्छी है. इस अवधारणा को चुनौती देना जरूरी है. इसलिए ऐसा कोर्ट केस लोगों को जागरूक करने में भी मदद करेगा जिन्हें पता ही नहीं है कि उनकी निगरानी की जा रही है.”
चहुंओर निगरानी
पूरी दुनिया में सीसीटीवी एक आम चीज बन गए हैं. इस साल के आखिर तक एक अरब नए कैमरे लगाए जा चुके होंगे. कोम्पारीटेक वेबसाइट के मुताबिक चीन के कुछ शहरों के साथ भारत में हैदराबाद और दिल्ली दुनिया के सबसे अधिक सीसीटीवी वाले शहरों में शामिल हैं.
पिछले साल आई एक रिपोर्ट में तेलंगाना को दुनिया की सबसे अधिक निगरानी वाली जगह बताया गया था. राज्य में छह लाख से ज्यादा सीसीटीवी कैमरे लगे हैं जिनमें से अधिकतर हैदराबाद में हैं. इसके अलावा पुलिस के पास स्मार्टफोन और टैबलेट में एक ऐप भी है जिससे वह कभी भी तस्वीर लेकर उसे अपने डेटाबेस से मिलान के लिए प्रयोग कर सकती है.
ऐमनेस्टी के एआई और बिग डेटा के क्षेत्र में शोध करने वाले मैट महमूदी कहते हैं कि आईबीएम, माइक्रोसॉफ्ट और अमेजॉन जैसे दुनिया की कई बड़ी तकनीकी कंपनियों का घर हैदराबाद जल्दी ही ऐसा शहर बन जाएगा जिसका चप्पा-चप्पा निगरानी में होगा. वह बताते हैं, "बिना फेशियल रिकग्निशन तकनीक की पकड़ में आए कहीं भी जाना असंभव है.”
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खतरे में कमजोर तबके
मानवाधिकार कार्यकर्ता मानते हैं कि ऐसी तकनीक से सबसे ज्यादा खतरा मुसलमानों, दलितों और आदिवासियों को है क्योंकि वे लोग पहले ही पुलिस व्यवस्था के निशाने पर हैं. मसूद द्वारा दाखिल किए गये मुकदमे की सुनवाई इसी साल किसी महीने में होगी. मसूद ने दलील दी है कि तेलंगाना में फेशियल रिकग्निशन अवैध और असंवैधानिक है.
उनकी याचिका कहती है, "कानून-व्यवस्था संभालने वाली एजेंसियों को होने वाले संभावित फायदे के आधार पर इस तकनीक को सही नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि इन फायदों का साबित होना अभी बाकी है.”
हैदराबाद पुलिस का कहना है कि उसे इस तकनीक ने काफी लाभ पहुंचाया है. पुलिस आयुक्त सीवी आनंद ने पिछले महीने मीडिया से कहा, "हम किसी व्यक्ति की निजता का हनन नहीं करते हैं. हम किसी के घर में घुसकर तस्वीरें नहीं खींच रहे हैं. तकनीक का इस्तेमाल अपराधियों और संदिग्धों पर नजर रखने के लिए ही किया जा रहा है.”