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कॉन्शस म्यूजिकः कश्मीर में पनप रहा है बगावती संगीत

५ जुलाई २०२२

कश्मीर में एक बगावत गीतों के जरिए पनप रही है. युवा कलाकार एक नया आंदोलन छेड़े हुए हैं जिसकी भाषा संगीत है. इस संगीत को ‘कॉन्शस म्यूजिक’ कहा जाता है.

कश्मीर में गीत गाते युवा
कश्मीर में गीत गाते युवातस्वीर: Dar Yasin/AP/picture alliance

सरफराज जावेद अपने म्यूजिक वीडियो में अपनी छाती को लयबद्ध थपथपाते हैं. वादी के घने जंगलों में गूंजती हुई उनकी आवाज बहुत दूर तक सुनाई देती है. वह अपने गीत में कहते हैं, "यह कैसा सूत है जिसने आसमान को बुना है. इसने मेरी दुनिया में अंधेरा कर दिया है. क्यों घर में बेगाने घुस आए हैं?"

मुस्लिम बहुल कश्मीर घाटी में खुआफ्तान बांग यानी शाम की नमाज की आवाज एक दर्दनाक सुरलहरी सी लोगों के सीनों में पहुंचती है. अद्भुत सौंदर्य समेटे हिमालय की इस घाटी पर दशकों से खून का रंग पुता हुआ है. आतंकवाद, भारतीय सेना द्वारा दमन और भारत सरकार द्वारा सख्त पाबंदियां इस इलाके के लोगों की जिंदगी का हिस्सा बने रहे हैं. ये तमाम दर्द जावेद के गीतों में नजर आते हैं.

जीशान नबीतस्वीर: Dar Yasin/AP/picture alliance

जावेद मूलतः मर्सिये गाते हैं. वह कहते हैं, "मैं बस अपने आपको कहने के लिए चीखता हूं. जब उसमें सुर मिल जाते हैं तो यह एक गीत बन जाता है." जावेद के पिता और दादा भी कवि रहे हैं. वह विवादित घाटी में कला के उस आंदोलन से जुड़े हैं जिसे पारंपरिक संगीत के साथ मिलाकर एक नये संगीत के रूप में पेश किया जा रहा है. इस संगीत में राजनीति भी है और हिप हॉप भी. संगीतकार इसे ‘कॉन्शस म्यूजिक' या सचेतन संगीत कहते हैं.

इस्लाम और अध्यात्मिक कविता के तत्वों से मिला जुला यह संगत अक्सर धार्मिक उपमाओं को प्रयोग करता है. इन उपमाओं का मकसद उन राजनीतिक पाबंदियों से बच निकलना भी होता है जो भारतीय कश्मीर में प्रशासन द्वारा लगाई गई है. उन पाबंदियों को ये संगीतकार अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला बताते हैं. इन पाबंदियों के कारण कई कलाकारों को अपनी आवाज धीमी करनी पड़ी है, अपने शब्दों को रोकना पड़ा है.

यह संगीत एक काम और करता है. इस्लामिक परंपराओं और आधुनिकता के बीच के पुल का काम क्योंकि कई मामलों में इलाका अब भी पुरातन रूढ़ियों से चिपका हुआ है. जावेद कहते हैं, "यह दशकों से दबे रहे जज्बातों को निकलने के रास्ते जैसा है."

कश्मीर की कविता में राजनीति

कश्मीर में काव्य की लंबी और पुरानी परंपंरा है जिस पर इस्लाम और सूफी परंपराओं का खासा असर रहा है. ये कविताएं और गीत दरगाहों और मजारों के अलावा मस्जिदों में भी गाए जाते रहे हैं. 1989 में जब भारत सरकार के खिलाफ विद्रोह शुरू हुआ तो आजादी के गीत मस्जिदों के लाउड स्पीकरों से भी गूंजे थे जिनमें मारे गए विद्रोहियों की तारीफें भी गाई गई थीं.

मोहसिन हसन बट (बाएं) के साथ सरफराज जावेद (दाएं) तस्वीर: Dar Yasin/AP/picture alliance

दो दशक तक हथियारबंद बगावत की जगह 2008 के आस पास सड़क पर विरोध प्रदर्शनों ने ले लीं और युवाओं ने पत्थरों को हथियार बना लिया. 2010 में राज्य में विशाल विरोध प्रदर्शन हुए थे. तभी कश्मीर ने विद्रोही अंग्रेजी संगीत का विकास भी देखा. हिप हॉप और रैप गीत कश्मीर में विद्रोह की आवाज बन गया.

एमसी कैश नाम से मशहूर गीतकार-गायक रौशन इलाही उस आंदोलन के अगुआ कलाकारों में शामिल थे. वह ऐसे संगीत के लिए जाने गए जो लोगों को गुस्से से भर देता था. उनका संगीत विद्रोह कर रहे युवाओं के बीच खूब प्रचलित हुआ. कैश के गीत राजद्रोह के काफी करीब थे क्योंकि वे कश्मीर पर भारत के अधिकार पर सवाल उठाते थे.

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पिछले कुछ समय में भारत में अभिव्यक्ति की आजादी पर बड़े सवाल उठे हैं. सरकार पर आवाजों के दमन के आरोप लगे हैं और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उसकी तीखी आलोचना हुई है. काश को भी इस दमन को झेलना पड़ा. उनसे पुलिस ने इतनी ज्यादा पूछताछ की कि उन्होंने संगीत से लगभग नाता तोड़ लिया. लेकिन उनके साथ के बहुत से लोगों ने गाना जारी रखा. इन लोगों ने या तो उपमाओं का इस्तेमाल शुरू कर दिया या फिर वे राजनीति से ही दूर हो गए.

कैश कहते हैं, "पहले तो हाथ गर्दन पर थे. अब तो तकिये से मुंह दबाया जा रहा है."

2019 के बाद से

2019 में भारत सरकार ने जब कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म कर दिया तो राज्य में एक बार फिर तनाव बढ़ गया. तब राज्य के लोगों ने भारत सरकार के सबसे कड़े प्रतिबंधों का सामना किया. महीनों तक कर्फ्यू रहा और इंटरनेट बंद रखा गया.

तब से हालात लगातार बिगड़ रहे हैं. हथियारबंद विद्रोहियों ने बड़े हमलों के साथ-साथ जगह चुन-चुन कर लोगों को मारने की रणनीति अपना ली है. राज्य में रहने वाले कश्मीरी हिंदुओं पर हमले बढ़ गए हैं. जगह-जगह मुठभेड़ें हो रही हैं और इनके साथ ही बढ़ रहा है सचेतन संगीत यानी कॉन्शस म्यूजिक. पहले इस संगीत पर अंग्रेजी हावी थी लेकिन अब कलाकार उर्दू और कश्मीरी में भी लिख रहे हैं.

हाल ही में श्रीनगर के करीब एक घर में जीशान नबी के स्टूडियो में युवा कलाकारों की महफिल लगी थी जिसमें सिगरेट के धुएं में खोए युवा तीखी बहसों में उलझे थे कि बात सीधी कही जानी चाहिए या इशारों में. नबी कहते हैं कि "धार्मिक उपमाएं दरवाजे को लगातार खटखटा रही हैं, कभी याद दिलाने के रूप में तो कभी यादों के रूप में."

नबी उम्मीद जताते हैं कि बोलने की आजादी पर लगी रोक अस्थायी है. वह कहते हैं, "आप मुट्ठी कितनी देर तक बंद रख सकते हैं. दबाने वाला एक वक्त तक ही दबा सकता है."

वीके/सीके (एपी)

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