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नालों की सफाई में मारे गए 347 सफाईकर्मी

चारु कार्तिकेय
२० जुलाई २०२२

प्रतिबंध के बावजूद आज भी भारत में गंदी नालियों और सेप्टिक टैंकों की सफाई इंसानों से कराई जाती है. ताजा सरकारी आंकड़ों से पता चला है कि पिछले छह सालों में इस तरह की सफाई करने के दौरान 347 लोगों की मौत हो गई.

Müllfrauen in Indien
तस्वीर: Prakash Singh/AFP/Getty Images

लोक सभा में सामाजिक न्याय मंत्रालय से पूछे गए एक सवाल के जवाब में मंत्रालय ने माना है कि भारत में इंसानों से गंदे नालों और सेप्टिक टैंकों को साफ कराने की प्रथा अभी भी जारी है और इसमें सैकड़ों लोगों की जान जा रही है. मंत्रालय ने बताया कि इस खतरनाक काम को करने के दौरान 2017 में 92, 2018 में 67, 2019 में 116, 2020 में 19, 2021 में 36 और 2022 में अभी तक 17 सफाई कर्मियों की जान जा चुकी है.

यानी कोविड महामारी के दौरान भी यह प्रथा चलती रही और आज भी चल रही है. इतना ही नहीं, यह प्रथा कोविड-19 महामारी की घातक पहली और दूसरी लहरों के बीच भी चल रही थी. कम से कम 18 राज्यों के आंकड़े मंत्रालय के पास हैं. इन आंकड़ों के मुताबिक इन छह सालों में इस तरह की सफाई के दौरान सबसे ज्यादा लोग (51) उत्तर प्रदेश में मारे गए हैं.

क्या अब लोगों को नाले में नहीं उतरना पड़ेगा?

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उसके बाद नंबर है तमिलनाडु का जहां 48 लोग मारे गए. वहीं राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में 44, हरियाणा में 38, महाराष्ट्र में 34 और गुजरात में 28 लोग मारे गए. इस प्रथा को बंद करने की मांग करने वाले ऐक्टिविस्टों का कहना है कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश में आज भी गंदे नालों और सेप्टिक टैंकों की सफाई इंसानों से करवाई जाती है.

कानून भी कमजोर

सरकारें इसे लेकर खेद जरूर व्यक्त करती हैं लेकिन सच्चाई यह है कि इस समस्या के निवारण में कानून भी अभी दो कदम पीछे ही है. मैनुअल स्केवेंजर्स का रोज़गार और शुष्क शौचालय का निर्माण (निषेध) अधिनियम के तहत भारत में हाथ से मैला ढोने की प्रथा को 2013 में ही प्रतिबंधित कर दिया गया था. लेकिन इस कानून में कुछ शर्तों के साथ गंदे नालों और सेप्टिक टैंकों की इंसानों द्वारा सफाई कराने की इजाजत है.

इन शर्तों के तहत सफाई के लिए पर्याप्त सुरक्षा उपकरणों का इस्तेमाल अनिवार्य है, लेकिन अक्सर इस नियम का पालन नहीं किया जाता. सफाई कर्मियों को बिना किसी सुरक्षा उपकरण के नालों और टैंकों में उतरने के लिए कहा जाता है. नालों में लंबे समय से गंदगी के पड़े होने की वजह से जहरीली गैसें बन जाती हैं और अक्सर यही गैसें सफाई कर्मियों की जान ले लेती हैं.

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कई स्थानों पर अब इस तरह की सफाई के लिए मशीनों और रोबोटों के इस्तेमाल पर जोर दिया जा रहा है. मंत्रालय ने भी अपने जवाब में बताया कि केंद्र सरकार की वैज्ञानिक शोध संस्था सीएसआईआर ने एक मशीनी सीवेज सफाई प्रणाली बनाई गई है जिसका इस्तेमाल 5000 और उससे ज्यादा जनसंख्या के घनत्व वाले शहरी और स्थानीय निकाय कर सकते हैं.

मंत्रालय के मुताबिक इस प्रणाली को कंपनियों को औद्योगिक उत्पादन के लिए दे दिया गया है. देखना होगा इसका व्यापक इस्तेमाल कब शुरू हो पाएगा. लेकिन ऐक्टिविस्टों का कहना है कि सिर्फ मैला ढोने पर प्रतिबंध लगाने से काम नहीं चलेगा और सीवर-सेप्टिक टैंकों की इंसानों द्वारा सफाई पर भी बैन लगाना चाहिए.

रमोन मैगसेसे पुरस्कार विजेता और सफाई कर्मचारी आंदोलन के राष्ट्रीय संयोजक बेजवाड़ा विल्सन ने इस मांग को लेकर एक अभियान भी छेड़ा है.

विल्सन का कहना है सत्र दर सत्र इस देश के मासूम नागरिक सीवरों और सेप्टिक टैंकों में मारे जाते हैं और संसद बस मौन हो कर देखती रहती है.

 

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