फुटबॉल में राहत और भविष्य खोजतीं शरणार्थी लड़कियां
२१ जनवरी २०२२उनकी आंखों की चमक, वो जज्बा, वो खुशी. इन्हें बयान करना चाहें, तो शायद ही कोई शब्द न्याय कर सकेगा. यह कहानी है, नाइजीरिया से आई शरणार्थी लड़कियों की, जिनके लिए जिंदगी मुश्किल है, लेकिन मायूस नहीं. वे खुली आंखों से बड़े-बड़े सपने देखती हैं और उन्हें पूरे करने का हौसला भी रखती हैं.
इन लड़कियों के लिए तकलीफें भूलने का सहारा है, फुटबॉल. लेकिन फुटबॉल खेल पाने के लिए जरूरी संसाधन नहीं हैं. इन्हीं संघर्षों के बीच पिछले हफ्ते उनकी जिंदगी का एक बड़ा सपना तब पूरा हुआ, जब उन्हें स्टेडियम में बैठकर अपने देश का फुटबॉल मैच देखने का मौका मिला. अपनी टीम के लिए तालियां बजाते वक्त उनकी खुशी जैसे सातवें आसमान पर थी.
नाइजीरिया से कैमरून का सफर
15 से 20 साल की ये लड़कियां कुछ साल पहले अपने परिवार के साथ भागकर कैमरून आ गई थीं. भागने की वजह थी, आतंकी संगठन 'बोको हराम' द्वारा की जा रही हिंसा. इस्लामी आतंकवादी संगठन बोको हराम नाइजीरिया के स्कूलों को निशाना बनाता रहा है.
ये लड़कियां भी हिंसा और डर के माहौल से भागकर कुछ साल पहले अपने परिवारों के साथ कैमरून आ गई थीं. उन्हें कैमरून के सुदूर उत्तरी हिस्सा में स्थित मिनावाओ के एक शरणार्थी शिविर में जगह मिली. यहां रहते हुए उनकी दोस्ती फुटबॉल से हुई. थोड़े-बहुत जो भी संसाधन मिल सके, उसकी मदद से इन लड़कियों ने न केवल खेल जारी रखा, बल्कि अपनी एक टीम भी बना ली.
कैंप से स्टेडियम
पिछले हफ्ते संयुक्त राष्ट्र की रिफ्यूजी एजेंसी, यूएनएचसीआर की मदद से इन लड़कियों का एक बड़ा सपना सच हो गया. उन्हें अफ्रीकी महाद्वीप के सबसे बड़े फुटबॉल टूर्नामेंट, अफ्रीका कप ऑफ नेशन्स के दौरान नाइजीरिया और सूडान का मैच देखने का मौका मिला. इस खबर की शुरुआत में आंखों की जिस चमक, जिस जोश का जिक्र था, वो दरअसल इसी मैच के दौरान की बात है.
ऐसा नहीं कि बस स्टेडियम में बैठकर लाइव फुटबॉल मैच देखने का मौका मिला हो. और भी कई नए अनुभव मिले इन्हें. मैच देखने के लिए उन्हें कैमरून के गैहुआ शहर में पहुंचना था. इसके लिए उन्होंने 14 जनवरी को एक बस ली. 200 किलोमीटर लंबी यात्रा करके वे गैहुआ पहुंचीं. वहां एक होटल में रात बिताई.
अगली सुबह स्टेडियम के लिए निकलते समय होटल के प्रवेश द्वार पर उन्हें कांच दिखा. लड़कियां कुछ पल वहां रुकीं और खुश होकर कांच में अपनी परछाईं देखती रहीं. मुमकिन है ये सारी चीजें आपको सामान्य लगें. लेकिन इन लड़कियों के लिए यह नया और बेहद रोमांचक अनुभव था.
मैच देखने गईं, स्टार बन गईं
मैच के दौरान सूडान का प्रदर्शन बहुत अच्छा नहीं रहा. उसने एक गोल किया, जबकि नाइजीरिया की टीम ने तीन गोल दागे. टीम के हर गोल पर ये शरणार्थी लड़कियां हाथ में नाइजीरिया का झंडा थामे खुशी से नाचने लगतीं. मैच खत्म होने के बाद उन्हें मैदान में आमंत्रित किया गया. यहां उन्होंने अफ्रीकन फुटबॉल कंफेडेरेशन के अधिकारियों के साथ तस्वीरें खिंचवाईं.
20 साल की सलामता टिमोथी ने चहकते हुए कहा, "ये सब बहुत शानदार है. मैं बहुत खुश हूं." अगले रोज ये लड़कियां मिनावाओ शरणार्थी कैंप वापस लौट गईं. उन्हें टीवी पर देख चुके वहां के बच्चों ने लड़कियों का स्वागत यूं किया, मानो वे कोई बड़ी स्टार हों.
शरणार्थी शिविर का विस्तार
मिनावाओ कैंप अपने आप में एक छोटा सा शहर है. यह इस पूरे क्षेत्र का सबसे बड़ा शरणार्थी शिविर है. इसकी शुरुआत जुलाई 2013 में हुई थी. उस समय बोको हराम के हमले जोरों पर थे. इसके चलते नाइजीरिया से बड़ी संख्या में लोग भागकर पड़ोसी देश कैमरून जाने लगे.
बीते नौ सालों में यह कैंप एक शहर का रूप ले चुका है, जहां करीब 70 हजार लोग रहते हैं. कैंप में एक अस्पताल, कई छोटे-छोटे स्कूल और एक दवाखाना है. शिविर से करीब 50 किलोमीटर दूर एक बाजार भी है, जहां ये शरणार्थी खेतों में उगाई पैदावार बेचते और जरूरत की चीजें खरीदते हैं.
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फुटबॉल खेलना चाहती हैं, साधन नहीं हैं
फुटबॉल की लोकप्रियता देखते हुए इस शिविर में एक पिच भी है. 19 साल की सरातु याकुबू बताती हैं कि वह 2013 में यहां आई थीं. उस वक्त खेलने के लिए जर्सी और जूते थे, मगर अब उनके पास खेलने से जुड़ी जरूरी चीजें नहीं हैं.
वह बताती हैं, "हमारी सेहत, हमारी खुशियों के लिए खेलना बहुत जरूरी है. लेकिन अब तो खेलना जैसे असंभव होता जा रहा है." जर्मनी की सरकार द्वारा दी गई हालिया मदद से लड़कों के लिए जर्सी और फुटबॉल तो आ गई, मगर लड़कियों को कुछ नहीं मिला.
फुटबॉल क्या है इन लड़कियों के लिए?
लुका इजाक मिनावाओ कैंप के प्रतिनिधि हैं. उन्होंने न्यूज एजेंसी एएफपी को बताया, "स्टेडियम जाकर मैच देखना इन लड़कियों के लिए एक ऐसा अनुभव है, जिसे वे कभी नहीं भूल सकेंगी. उन्हें महसूस हुआ कि वे भी सपने देख सकती हैं. इनमें से ज्यादातर बच्चियां थीं, जब यहां आईं. यह पहली बार था, जब वे इस शिविर से बाहर निकली थीं."
लुका को भी अफसोस है कि लड़कियों के पास खेलने के लिए जरूरी संसाधन नहीं हैं. उन्होंने बताया, "नाइजीरिया में उन्होंने जो भी तकलीफें सहीं, उनसे ध्यान बंटाने, उन पीड़ाओं से इतर कुछ सोचने का मौका उन्हें फुटबॉल से मिलता है." यूएनएचसीआर के प्रवक्ता जावियर बुर्जुआ ने कहा कि नाइजीरिया में संकट थोड़ा कम हुआ है. मगर दान देने वाले और मदद करने वाले अब नाइजीरियाई शरणार्थियों को भूलने लगे हैं.
फुटबॉल चाहिए, किताबें भी चाहिए
मिनावाओ की फुटबॉल खिलाड़ियों में से एक 18 साल की लूसी बिट्रस कमाई के लिए शेशिया सिलती हैं. यह स्थानीय लोगों द्वारा सिर ढकने के लिए पहना जाने वाला एक कपड़ा है. लूसी अपने बनाए शेशिया स्थानीय बाजार में बेचती हैं. उनकी मां केक बनाती हैं और पिता एक स्थानीय स्कूल में काम करते हैं.
लूसी के घर में सुख-सुविधा के सीमित साधन हैं. मिट्टी के फर्श पर वह चटाई बिछाकर सोती हैं. सौर ऊर्जा से चार्ज होने वाले लैंप के नीचे पढ़ाई करती हैं. उनके पास जितना कुछ है, वे सारी चीजें जिसे लूसी अपनी संपत्ति कह सकती हैं, उनमें उनकी पसंदीदा है जीवविज्ञान की एक किताब.
उनके कमरे में सजावट के नाम पर इकलौती चीज है, रसायन शास्त्र का एक चार्ट. इन्हीं सीमित संसाधनों के साथ लूसी ने डॉक्टर बनने का ख्वाब देखा है. वह कहती हैं कि एक दिन वह पढ़ाई के लिए विश्वविद्यालय जाएंगी. यह कहते हुए उनकी आंखों में एक गहरी चमक है. वह कहती हैं, "मैं डॉक्टर बनना चाहती हूं. हमें सिर्फ फुटबॉल ही नहीं चाहिए यहां, किताबें भी चाहिए."
एसएम/ओएसजे (एएफपी)