असम में तैयार एनआरसी को कानूनी वैधता प्रदान के मामले पर अब तक कोई फैसला नहीं हुआ है. इस वजह से लाखों लोगों का भविष्य अधर में लटका है.
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असम में तैयार एनआरसी को कानूनी वैधता प्रदान के लिए रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया ने अब तक कोई अधिसूचना जारी नहीं की है. लेकिन इस बीच, एक न्यायाधिकरण ने एक व्यक्ति को भारतीय घोषित करते हुए इसे एनआरसी की अंतिम सूची करार दिया है.
न्यायाधिकरण एक व्यक्ति की नागरिकता पर सुनवाई कर रहा था. हालांकि असम सरकार ने चार सितंबर को जारी एक आदेश में ऐसे न्यायाधिकरणों से एनआरसी पर ऐसी टिप्पणी नहीं करने को कहा था. राज्य में तैयार एनआरसी शुरू से ही विवादों में रही है. दो साल पहले इसकी अंतिम सूची प्रकाशित होने पर लाखों लोग सूची से बाहर रहे थे. उसके बाद राज्य की बीजेपी सरकार ने यह कवायद नए सिरे से करने की सिफारिश की है.
तस्वीरों मेंः जब जब शहर शहर शाहीन बाग बना
शहर-शहर शाहीन बाग
दिल्ली का गुमनाम इलाका शाहीन बाग महिलाओं के विरोध प्रदर्शन और जज्बे के लिए सुर्खियों में है. कभी सार्वजनिक या राजनीतिक मंच पर ना जाने वाली महिलाएं पिछले एक महीने से इलाके में सीएए और एनआरसी के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं.
तस्वीर: DW/M. Javed
शाहीन बाग की महिलाएं
पिछले एक महीने से शाहीन बाग की महिलाएं नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी यानी राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रही हैं. महिलाएं मानती हैं कि नागरिकता कानून से मुसलमानों के साथ भेदभाव होगा और यह संविधान की प्रस्तावना के खिलाफ है.
तस्वीर: DW/M. Javed
पहली बार विरोध प्रदर्शनों में शामिल
शाहीन बाग की कई महिलाओं का कहना है कि वे जामिया मिल्लिया इस्लामिया के छात्रों पर हुई कथित पुलिस ज्यादतियों और नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ विरोध जता रही हैं. प्रदर्शन में अधिकतर महिलाएं ऐसी हैं जो कभी इस तरह के प्रदर्शनों में शामिल नहीं हुई हैं. इसमें कॉलेज जाने वाली छात्राओं से लेकर गृहिणियां तक शामिल हैं.
तस्वीर: DW/M. Javed
बच्चे और बूढ़ी औरतें भी बनीं हिस्सा
शाहीन बाग की औरतों की चर्चा देश और विदेश में हो रही है. ऐसा इसलिए क्योंकि पहली बार इतनी बड़ी संख्या में भारत की मुसलमान महिलाएं अधिकारों की मांग करते हुए विरोध पर बैठी हुई हैं. प्रदर्शन में महिलाएं अपने बच्चों को भी लाती हैं और कई बार घर का काम निपटाने के बाद धरने पर बैठ जाती हैं.
तस्वीर: DW/M. Javed
संविधान के लिए सड़क पर
महिलाओं का कहना है कि वे संविधान को बचाने के लिए सड़क पर उतरी हैं और जब तक यह कानून वापस नहीं हो जाता उनका विरोध प्रदर्शन इसी तरह से जारी रहेगा. महिलाओं का कहना है कि वे हिंदुस्तान से बहुत प्यार करती हैं और धर्म के आधार पर देश में नागरिकता देने का विरोध करती हैं.
तस्वीर: DW/M. Javed
आम महिलाओं का आंदोलन
शाहीन बाग की महिलाओं का आंदोलन पिछले एक महीने से ज्यादा समय से शांतिपूर्ण तरीके से चल रहा है. विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व महिलाएं कर रही हैं और घर के पुरुष उन महिलाओं का समर्थन कर रहे हैं. शाहीन बाग की महिलाओं को समर्थन देने के लिए कला, फिल्म, साहित्य, राजनीति और सामाजिक कार्यकर्ता भी आकर संबोधित कर चुके हैं.
तस्वीर: DW/M. Javed
पंजाब से आए किसान
शाहीन बाग में लगातार लोगों को अन्य जगह से समर्थन मिल रहा है. पंजाब से सैकड़ों की संख्या में लोग शाहीन बाग पहुंचे, इसमें भारतीय किसान यूनियन के सदस्य भी थे. इन लोगों ने धरने पर बैठी महिलाओं के लिए लंगर भी बनाया.
तस्वीर: DW/S. Kumar
दूसरे धर्म के लोगों का समर्थन
शाहीन बाग की महिलाएं दिन और रात, सर्दी और बारिश के बीच 24 घंटे प्रदर्शन कर रही हैं. ऐसे में उन्हें अन्य धर्मों के लोगों का भी समर्थन मिल रहा है. पिछले दिनों सभी धर्मों के लोगों ने मिलकर वहां सर्व धर्म पाठ किया. इसके पहले कई धर्म गुरुओं ने मंच पर आकर संविधान की प्रस्तावना भी पढ़ी और एकता, समानता और शांति का संदेश दिया.
तस्वीर: DW/M. Javed
शाहीन बाग से सीख
पूर्वी दिल्ली के खुरेजी इलाके में भी शाहीन बाग की तर्ज पर महिलाएं विरोध प्रदर्शन कर रही हैं. पहले यहां महिलाएं कम संख्या में प्रदर्शन कर रही थी लेकिन बाद में इसने बड़ा रूप ले लिया. प्रदर्शन में बुजुर्ग महिलाएं भी शामिल हैं और उनका कहना है कि वे इस कानून के खिलाफ सड़क पर आई हैं.
तस्वीर: DW/S. Kumar
कॉलेज की छात्रों का विरोध
दिल्ली यूनिवर्सिटी के रामजस कॉलेज की छात्राओं ने नागरिकता कानून के खिलाफ विरोध किया और संविधान की प्रस्तावना पढ़ी. दूसरी ओर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने 'वंदेमातरम्' के नारे लगाए. रामजस कॉलेज की छात्राओं ने सीएए और एनआरसी के खिलाफ यह प्रदर्शन किया.
तस्वीर: DW/S. Kumar
शहर-शहर शाहीन बाग
शाहीन बाग की तर्ज पर ही कोलकाता के पार्क सर्कस में महिलाएं विरोध प्रदर्शन कर रही हैं. यहां की महिलाओं ने दिल्ली के शाहीन बाग की महिलाओं से प्रेरणा लेते हुए विरोध करने के बारे में सोचा और उनका विरोध भी दिन और रात जारी है.
तस्वीर: DW/S. Bandopadhyay
आंचल बना परचम
दिल्ली और कोलकाता के बाद उत्तर प्रदेश के प्रयागराज की महिलाएं मंसूर अली पार्क पर धरने पर बैठ गई हैं. यह महिलाएं नागरिकता संशोधन कानून का विरोध कर रही हैं. हर बीतते दिन के साथ महिलाओं की संख्या भी बढ़ रही हैं. हालांकि पुलिस ने महिलाओं को धारा 144 का हवाला देते हुए वहां से हटने को कहा है लेकिन वह अब तक नहीं हटी हैं.
तस्वीर: DW/A. Ansari
बुलंद होती आवाज
बिहार के गया में भी महिलाओं ने सीएए और एनआरसी के खिलाफ आवाज बुलंद की. महिलाओं के इस तरह से आगे आने से पुरुष भी उन्हें समर्थन दे रहे हैं.
तस्वीर: DW/Rafat Islam
अधिकार के लिए संघर्ष
झारखंड के जमशेदपुर में भी हजारों की संख्या में महिलाओं ने मार्च निकालकर सीएए का विरोध किया और केंद्र सरकार से कानून वापस लेने की मांग की.
तस्वीर: DW/A. Ansari
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फिलहाल कुछ मामलों में दोबारा सत्यापन की मांग में उसने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है जो लंबित है. उधर, एक गैरसरकारी संगठन ने सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका में एनआरसी को अपडेट करने की कवायद में 360 करोड़ रुपए के दुरुपयोग का आरोप लगाया है.
ताजा मामला
असम के एक न्यायाधिकरण ने सोमवार को एक अहम फैसले में कहा है कि 31 अगस्त 2019 को प्रकाशित राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) की सूची अंतिम है. लेकिन राष्ट्रीय जनसंख्या महापंजीयक ने इसे अभी अधिसूचित नहीं किया है. असम के करीमगंज जिले में स्थित न्यायाधिकरण ने एक व्यक्ति को भारतीय नागरिक घोषित करते हुए कहा कि भले अभी राष्ट्रीय पहचान पत्र जारी नहीं हुआ है. लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि असम में 2019 में प्रकाशित एनआरसी अंतिम है.
न्यायाधिकरण-2 के सदस्य शिशिर डे करीमगंज जिले के बिक्रम सिंह के खिलाफ दर्ज 'डी वोटर' यानी संदिग्ध वोटर के मामले का निपटारा करते हुए एनआरसी को अंतिम माना. यह मामला अवैध प्रवासी (न्यायाधिकरण द्वारा निर्धारण) कानून 1999 के तहत दर्ज किया गया था.
न्यायाधिकरण की ओर से इस मामले में जारी आदेश में कहा गया है कि सिंह का नाम अंतिम एनआरसी में शामिल होने से साफ है कि परिवार के अन्य सदस्यों से उसका रिश्ता है. हालांकि मामला न्यायाधिकरण में लंबित होने की वजह से उसकी नागरिकता कानूनी तौर पर स्थापित नहीं हो सकी.
देखिएः गीत और ढफली बने हथियार
गीत, ढपली और ग्रैफिटी बने विरोध के हथियार
संशोधित नागरिकता कानून और प्रस्तावित नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस (एनआरसी) के खिलाफ देशभर में विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं. बैनर, पोस्टर और ग्रैफिटी के जरिए छात्र अपनी बात सरकार तक पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं.
तस्वीर: Surender Kumar
दीवारें बोलती हैं!
दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्र कई दिन से मुख्य गेट के बाहर डटे हुए हैं. विरोध प्रदर्शनों में छात्रों ने क्रांतिकारी नारे के साथ ग्रैफिटी और बैनर बनाए हैं. जामिया के छात्र संशोधित नागरिकता कानून और एनआरसी के साथ-साथ कैंपस में कथित पुलिस ज्यादती का विरोध कर रहे हैं. छात्रों का कहना है कि अगर सरकार उनकी आवाज नहीं सुन सकती है तो दीवारें बोलेंगी.
तस्वीर: DW/A. Ansari
बीजेपी पर वार
जामिया की दीवारों पर छात्रों ने इंकलाबी नारों के साथ-साथ बीजेपी के राजनीतिक 'एजेंडे' को भी उजागर करने की कोशिश की है. जामिया की एक दीवार पर छात्रों ने राम मंदिर, मूर्ति, मुस्लिम और गाय को बीजेपी का एजेंडा बताया है. ग्रैफिटी बनाने वाले छात्रों का कहना है कि इसके जरिए बहस की दशा और दिशा बदलेगी.
तस्वीर: DW/A. Ansari
पोस्टर-बैनर बना हथियार
हिंदुस्तान जिंदाबाद, हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, आपस में सब भाई-भाई जैसे नारों के साथ दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु, कोलकाता में विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं. सीएए और जामिया के छात्रों पर पुलिस की कथित ज्यादतियों के विरोध में लोग अपनी आवाज बुलंद कर रहे हैं.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/B. Das
शायराना विरोध
दिल्ली में छात्रों के साथ अधिकार समूहों के सदस्य गीत, नारे, कविता, पोस्टर के साथ विरोध की आवाज बुलंद कर रहे हैं. कई बार विरोध प्रदर्शन में संविधान की प्रस्तावना के पोस्टर भी देखने को मिले. तस्वीर में एक प्रदर्शनकारी ने राहत इंदौरी के एक शेर की लाइन को विरोध का जरिया बनाया है.
तस्वीर: DW/D. Choubey
असंतोष का कैनवास
प्रदर्शन में शामिल कई लोगों का आरोप है कि केंद्र सरकार संशोधित नागरिकता कानून के जरिए भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन कर रही है. हालांकि संसद में गृह मंत्री अमित शाह कह चुके हैं कि यह कानून आर्टिकल 14 समेत संविधान के किसी भी अनुच्छेद का उल्लंघन नहीं करता है.
तस्वीर: DW/S. Ghosh
'लाजिम है हम भी देखेंगे'
फैज अहमद फैज की मशहूर नज्म-'लाजिम है कि हम भी देखेंगे, वो दिन कि जिसका वादा है..' लिखे पोस्टर और बैनर के साथ सीएए के विरोध में लोग सड़कों पर उतरे. छात्रों का कहना है कि पुलिस उनकी हड्डी तोड़ सकती है लेकिन उनके विचारों को नहीं तोड़ सकती.
तस्वीर: DW/S. Ghosh
विरोध की ढपली
धरने और प्रदर्शनों में कई बार कला और रचनात्मकता आगे आ जाती है और हिंसा पीछे चली जाती है. छात्र अपनी रचनात्मकता के साथ विचार और अंसतोष जाहिर कर रहे हैं.
तस्वीर: Surender Kumar
बाबा साहेब की तस्वीर के साथ प्रदर्शन
कई बार प्रदर्शनकारी तेज नारेबाजी और भाषणबाजी से दूर रहते हुए सिर्फ तस्वीरों के सहारे अपनी बात दुनिया तक पहुंचाने की कोशिश करते हैं. इस तस्वीर में एक प्रदर्शनकारी डॉ. आंबेडकर की तस्वीर के साथ सीएए का विरोध करता हुआ.
तस्वीर: DW/S. Ghosh
'हिंदुस्तां हमारा'
'हिंदी है हम वतन हैं, हिंदुस्तां हमारा' के पोस्टर के साथ एक प्रदर्शनकारी इस बात पर जोर देता है कि वह भी भारत देश का ही नागरिक है और इस देश पर भी उनके समुदाय के लोगों का उतना ही हक है जितना किसी और मजहब के लोगों का है.
तस्वीर: DW/S. Ghosh
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बिक्रम सिंह इस समय बेंगलुरू में काम करते हैं. उन्होंने न्यायाधिकरण के सामने अपनी भारतीय नागरिकता साबित करने के लिए कई प्रमाण दिए थे. इसमें 1968 में उनके दादा के नाम से जमीन, भारतीय वायु सेना में पिता की नौकरी के सबूत के अलावा एनआरसी की सूची, मतदाता सूची और आधार कार्ड की प्रतियां भी दी गई थी. तमाम सबूतों को देखने के बाद न्यायाधिकरण ने कहा कि हम मानते हैं बिक्रम विदेशी नहीं, बल्कि भारतीय नागरिक हैं.
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सूची पर विवाद
असम सरकार लगातार मांग कर रही है कि कि एनआरसी की सूची को दुरुस्त करने के लिए शामिल हुए लोगों में से 10 से 20 फीसदी तक की दोबारा पुष्टि की जानी चाहिए. अंतिम सूची प्रकाशित होने के बाद से ही राज्य के तमाम संगठन इसे त्रुटिपूर्ण बताते हुए इसे खारिज करने की मांग करते रहे हैं. यह मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है.
वर्ष 2019 में सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में जारी हुई एनआरसी की सूची में 19 लाख लोगों को बाहर कर दिया गया था. इनमें लगभग साढ़े पांच लाख हिंदू और 11 लाख से ज्यादा मुसलमान शामिल थे. एनआरसी के तत्कालीन प्रदेश संयोजक प्रतीक हाजेला ने तब इसे एनआरसी की अंतिम सूची बताया था. लेकिन बाद में असम सरकार ने इस सूची को गलत मानते हुए इसमें हुई गलती के लिए हाजेला को दोषी ठहराया था.
एनआरसी की सूची से बाहर किए गए 19 लाख लोगों अभी तक बाहर निकाले जाने के आदेश की प्रति तक नहीं मिली है. नतीजतन वह लोग इस फैसले को विदेशी न्यायाधिकरण में चुनौती नहीं दे पा रहे हैं.
अधर में भविष्य
सूची पर उठने वाले सवालों की वजह से ही भारतीय रजिस्ट्रार जनरल ने असम की एनआरसी को अब तक अधिसूचित नहीं किया है. नतीजतन पूरा मामला अधर में लटक गया है. इस बीच, राज्य में सत्तारुढ़ बीजेपी ने एनआरसी को त्रुटिपूर्ण बताते हुए उसे खारिज कर दिया है. पार्टी ने यह पूरी कवायद नए सिरे से शुरू करने की बात कही है.
मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने बीती 10 मई को सत्ता संभालने के बाद कहा था कि उनकी सरकार सीमावर्ती जिलों में 20 फीसदी और बाकी जिलों में 10 फीसदी नामों का दोबारा सत्यापन कराना चाहती है. राज्य के एनआरसी संयोजक हितेश देव सरमा ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका भी दायर की थी ताकि अंतिम सूची में त्रुटियों को दूर किया जा सके. सुप्रीम कोर्ट ने इससे पहले केंद्र व असम सरकार की उस अपील को खारिज कर दिया था जिसमें दोबारा सत्यापन की अनुमति देने का अनुरोध किया गया था.
जानिएः एनआरसी को लेकर इतना हंगामा क्यों है
एनआरसी को लेकर इतना हंगामा क्यों है?
नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन यानी एनआरसी की वजह से असम में रहने वाले लाखों लोगों का भविष्य अधर में लटका है. चलिए जानते हैं कि क्या है एनआरसी.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/A. Nath
क्या है एनआरसी
राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर यानी एनआरसी असम में रहने वाले भारतीय नागरिकों की सूची है. जिन लोगों के नाम इस सूची में शामिल नहीं हैं, उन्हें बांग्लादेश से आए अवैध प्रवासी माना जाएगा.
तस्वीर: Thomson Reuters Foundation/A. Nagaraj
बिखरेंगे परिवार
30 जुलाई को प्रकाशित एनआरसी के अंतिम मसौदे में 40 लाख बांग्ला भाषियों के नाम नहीं है. इस तरह दशकों से असम में रह रहे कई परिवारों के बिखरने की आशंका पैदा हो गई है.
तस्वीर: Reuters/A. Hazarika
एनआरसी की जरूरत
कुछ संगठन एनआरसी को बांग्ला भाषी मुसलमानों को निशाने बनाने की कोशिश के तौर पर देखते हैं जबकि सरकार इसे असम में बड़ी तादाद में रह रहे अवैध प्रवासियों की पहचान के लिए जरूरी बताती है.
तस्वीर: Reuters
एनआरसी की कसौटी
24 मार्च 1971 तक जिन लोगों के नाम असम की मतदाता सूचियों में शामिल थे, उन्हें और उनके बच्चों को एनआरसी में शामिल किया गया है. इस तरह दशकों से असम में रहे कई लोग भी शर्त पूरा करने की स्थिति में नहीं होंगे.
तस्वीर: Thomson Reuters Foundation/A. Nagaraj
सुरक्षा सख्त
एनआरसी में 40 लाख लोगों के नाम ना होने से तनाव बढ़ने की आशंका हैं जिन्हें देखते हुए सुरक्षा के कड़े इंताजम किए गए हैं. केंद्र सरकार ने असम में अतिरिक्त सुरक्षा बल भेजे हैं.
तस्वीर: picture-alliance/NurPhoto/D. Talukdar
देश निकाला?
सरकार ने साफ किया है कि फिलहाल 40 लाख लोगों में किसी को न तो जेल में डाला जाएगा और न ही बांग्लादेश भेजा जाएगा. उन्हें नागरिकता साबित करने का पूरा मौका दिया जाएगा.
तस्वीर: Thomson Reuters Foundation/A. Nagaraj
पहला एनआरसी
भारत के विभाजन के बाद तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (मौजूदा बांग्लादेश) से आने वाले अवैध आप्रवासियों की पहचान के लिए राज्य में 1951 में पहली बार एनआरसी को अपडेट किया गया था.
तस्वीर: Thomson Reuters Foundation/A. Nagaraj
घुसपैठ की समस्या
उसके बाद भी घुसपैठ लगातार जारी रही. खासकर वर्ष 1971 में बांग्लादेश बनने के बाद असम में इतनी भारी तादाद में शरणार्थी पहुंचे कि राज्य में आबादी का स्वरूप ही बदलने लगा.
तस्वीर: Reuters/A.Hazarika
आंदोलन
अखिल असम छात्र संघ (आसू) ने अस्सी के दशक की शुरुआत में असम आंदोलन शुरू किया था. लगभग छह साल तक चले इस आंदोलन के बाद 1985 में असम समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे.
तस्वीर: picture alliance/ZUMAPRESS/L. Chaliha
लटकता रहा मामला
इस समझौते के मुताबिक 25 मार्च 1971 के बाद से असम में अवैध रूप से रहने वालों के नाम एनआरसी में शामिल नहीं होंगे और एनआरसी को अपडेट किया जाएगा. लेकिन यह काम किसी न किसी वजह से लटका रहा.
तस्वीर: Imago/Indiapicture
पहला चरण
सुप्रीम कोर्ट के निर्देश और उसकी देख-रेख में 2015 में यह काम शुरू हुआ. असम में 3.29 आवेदकों में से 1.9 करोड़ के नाम इस साल जनवरी में ही भारतीय नागरिकों के तौर पर दर्ज हो गए.
तस्वीर: DW/P. Samanta
अधर में भविष्य
ताजा मसौदा प्रकाशित होने के बाद में अब कुल 2.89 करोड़ लोगों के नाम भारतीय नागरिक के तौर पर दर्ज किए गए हैं. जिन 40 लाख लोगों के नाम इसमें शामिल नहीं है, उनका भविष्य फिलहाल डांवाडोल है.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/A. Nath
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एनआरसी की अंतिम सूची को अधिसूचित नहीं किए जाने की वजह से इसे अब तक कानूनी वैधता नहीं मिल सकी है. नतीजतन इस सूची में शामिल लोगों का भी आधार कार्ड नहीं बन सका है. सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्देश में कहा था कि आधार कार्ड उनको ही मिलेगा जो अंतिम एनआरसी का हिस्सा होंगे. लेकिन फिलहाल जो सूची सामने है वह अंतिम नहीं है.
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि एआरसी को अपडेट करने की कवायद अब तक बेमतलब और लोगों का सिरदर्द बढ़ाने वाली ही साबित हुई है. इसमें शामिल लोगों को भी आधार कार्ड जैसे जरूरी दस्तावेज नहीं मिल सके हैं. दूसरी ओर, जो लोग इस सूची से बाहर हैं वे इस फैसले को चुनौती भी नहीं दे पा रहे हैं. फिलहाल सबकी निगाहें सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर टिकी हैं. लेकिन वह फैसला कब तक आएगा, इस बारे में कोई ठोस कुछ बताने की स्थिति में नहीं है.