भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी इसरो ने गुरुवार 16 जनवरी को ‘स्पेस डॉकिंग एक्सपेरिमेंट’ के तहत उपग्रहों की ‘डॉकिंग’ में सफलता हासिल की है. क्या होती है डॉकिंग और भारत के लिए यह जरूरी क्यों है?
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भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) गुरुवार 16 जनवरी को ‘स्पेस डॉकिंग एक्सपेरिमेंट' (स्पेडेक्स) के तहत उपग्रहों की ‘डॉकिंग' करने में सफल हुआ. भारत ने यह मिशन पूरा करके शून्य गुरुत्वाकर्षण में जटिल तकनीकी उपलब्धि हासिल की है. इस ऐतिहासिक उपलब्धि के बाद इसरो ने सोशल मीडिया 'एक्स' पर अपने हैंडल से पोस्ट शेयर किया "भारत ने अंतरिक्ष इतिहास में अपना नाम दर्ज कर लिया है. इस क्षण का गवाह बनकर गर्व महसूस हो रहा है."
यह बड़ी बात इसलिए भी है क्योंकि इससे पहले केवल अमेरिका, चीन और रूस ही अंतरिक्ष में सैटेलाइट डॉकिंग कर पाए हैं. अब भारत ने भी इस छोटी सी लेकिन महत्वपूर्ण फेहरिस्त में अपना नाम दर्ज करा लिया है.
क्या होती है सैटेलाइट डॉकिंग?
डॉकिंग एक बहुत ही जटिल प्रक्रिया है जिसमें उपग्रहों को आगे-पीछे ले जाया जाता है जिसे इसरो ने अंतरिक्ष में दो उपग्रहों के "रोमांचक हैंडशेक" के रूप में वर्णित किया है.
इसरो ने 30 दिसंबर 2024 को स्पेस डॉकिंग एक्सपेरिमेंट लॉन्च किया था. डॉकिंग तकनीक तब आवश्यक होती है जब सामान्य मिशन के लिए कई रॉकेट लॉन्च करने की जरूरत होती है. इसके पहले 12 जनवरी को इसरो ने डॉकिंग का ट्रायल किया था क्योंकि इस कठिन प्रक्रिया में कई ट्रायल यानी कि कोशिशें लग जाती हैं.
कब जरूरी होती है डॉकिंग?
इस मिशन की कामयाबी पर चंद्रयान-4, गगनयान और भारतीय अंतरिक्ष स्टेशन जैसे मिशन निर्भर थे. चंद्रयान-4 मिशन में चंद्रमा की मिट्टी के सैंपल पृथ्वी पर लाए जाएंगे, वहीं गगनयान मिशन में इंसान को अंतरिक्ष में भेजा जाएगा.
इसरो के लिए इस मिशन का सफल होने बहुत जरूरी था. दरअसल इसका उपयोग उपग्रहों की सर्विसिंग, अंतरिक्ष स्टेशन संचालन और ग्रहों के बीच आपस में चल रहे मिशनों में होता है. भारत की सफल उपग्रह डॉकिंग अंतरिक्ष में छिपे कई और रहस्य और जानकारी के लेन-देन में बहुत काम आएगी.
चांद पर पहुंच गया भारत
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भारत के लिए मिशन क्यों जरूरी?
इसरो ने पीएसएलवी सी 60 रॉकेट से इन उपग्रहों को श्रीहरिकोटा स्थित सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से लॉन्च किया. रॉकेट ने उड़ान भरने के करीब 15 मिनट बाद लगभग 220 किलोग्राम वजन वाले दो छोटे अंतरिक्ष यानों को 475 किलोमीटर की कक्षा में प्रोजेक्ट किया.
तकनीकी दक्षत के साथ साथ इस मिशन के जरिए भारत वैश्विक कमर्शियल अंतरिक्ष मार्केट में अपनी जगह सुनिश्चित कर रहा है. 2030 तक 1 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंचने की उम्मीद है, फिलहाल भारत की हिस्सेदारी सिर्फ 2% या 8 बिलियन डॉलर है. सरकार का लक्ष्य 2040 तक इसे बढ़ाकर 44 बिलियन डॉलर करना है.
अंतरिक्ष में मंडराता खतरा
धरती के आस पास 10,000 क्षुद्र ग्रह मंडराते हैं. अंतरिक्ष के कई शोधों में इसका बार बार पता चला है. यूरोप में ऐसा सिस्टम बनाया जा रहा है जो क्षुद्र ग्रहों की टक्कर की पहले ही चेतावनी दे सकता है.
तस्वीर: AP
यूरोपीय चेतावनी सिस्टम
धरती के पास मंडराते क्षुद्र ग्रह कभी भी गंभीर खतरा बन सकते हैं. यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी ईएसए इटली के फ्रासकाटी में इसकी चेतावनी देने का तंत्र बना रहा है. टेनेरिफ में बनी इस वेधशाला का डाटा इटली पहुंचेगा.
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धमाके की गूंज
15 फरवरी 2013 को रूस के चेलयाबिंस्क में उल्का पिंड टकराया. धमाके की ताकत 100 से 1,000 टन टीएनटी धमाके के बीच थी. 1,500 लोग जख्मी हुए. इस घटना से अर्ली वार्निंग सिस्टम की अहमियत समझी जा सकती है.
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टल गई आफत
पृथ्वी के वायुमंडल में घुसने से पहले क्षुद्र ग्रह का व्यास करीब 20 मीटर था. वायुमंडल में घुसते ही यह विखंडित हो गया और कोई टुकड़ा एक किलो से ज्यादा का नहीं बचा. इन टुकड़ों ने बर्फ में छह मीटर गहरा छेद कर दिया.
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जितना बड़ा, उतना खतरनाक
'2012डीए14' नाम का क्षुद्र ग्रह ज्यादा खतरनाक था. उसका वजन 1,30,000 टन था. 15 फरवरी 2013 के दिन ही ये धरती के बहुत करीब से गुजरा. इसकी धरती से दूरी 27,000 किलोमीटर थी. इससे दूर तो कई इंसानी उपग्रह हैं.
तस्वीर: NASA/Science dpa
टला नहीं खतरा
कई और क्षुद्र ग्रह और उल्का पिंड इस साल भी धरती के करीब आने वाले हैं. वैज्ञानिक इन पर बारीक नजर रखे हुए हैं. एक छोटा सा टुकड़ा भी घातक हो सकता है.
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उल्का पिंड और टूटते तारे
उल्का पिंड गैस, चट्टान और धूल के बने होते हैं. जब ये धरती के वायुमंडल में दाखिल होते हैं तो घर्षण की वजह से इनका तापमान 3,000 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच सकता है. ऐसा होते ही यह चमकने लगते हैं और टूटे तारे कहलाते हैं.
तस्वीर: picture alliance / dpa
तारों की मशहूर बरसात
चमकते हुए तेजी से गुजरते तारों को परसियड्स कहा जाता है. हर साल धरती की कक्षा पार करते उल्का पिण्डों से ऐसा नजारा दिखाई पड़ता है. परसियड्स का नाम उन तारामंडलों के आधार पर रखा जाता है, जिनके करीब ये देखे जाते हैं. यूनानी दंतकथाओं के पात्र परसियस के नाम पर इसे परसियड्स कहा जाता है.
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जब उल्का पिंड न जले
आम तौर पर छोटे मोटे क्षुद्र ग्रह हमारे वायुमंडल में जल जाते हैं. धरती पर गिरने के बाद भी ये आम तौर पर नुकसान नहीं करते. इनका आकार भी छोटे पत्थरों जितना होता है. लेकिन अगर आकार बड़ा हो, तो चिंता की बात है. 50,000 साल पहले अमेरिका के एरीजोना में एक क्षुद्र ग्रह ने 1,000 मीटर चौड़ा गड्ढा कर दिया.
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युग का अंत
6.5 करोड़ साल पहले एक विशाल क्षुद्र ग्रह युकाटान मेक्सिको के पास धरती से टकराया. इससे 180 किलोमीटर चौड़ा गड्ढा बना. विशेषज्ञों के मुताबिक इसी टक्कर ने धरती पर डायनासोर का जीवन खत्म कर दिया. हाल में आई जानकारी के मुताबिक दो क्षुद्र ग्रहों की 16 करोड़ साल पहले हुई टक्कर की वजह से यह घटना हुई.
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ब्रह्मांड से आई जली हुई चट्टानें
क्षुद्र ग्रह जली हुई चट्टानों से दिखते हैं. पृथ्वी के वायुमंडल में घुसते समय बाहरी आवरण जल जाने की वजह से परत बदल सी जाती है. क्षुद्र ग्रहों से दूसरे ग्रहों की भी टक्कर होती है. नासा के ऑपरच्यूनिटी रोवर ने 2005 में मंगल पर ऐसे ही बाहरी क्षुद्र ग्रहों को खोजा.
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धूल और गैस
उल्का पिंडों और क्षुद्र ग्रहों के साथ पृथ्वी पर धूल भी आती है. विशेषज्ञों को लगता है कि ग्रहों के निर्माण के दौरान बची खुची चीजों से ये बने. इनमें सौरमंडल के जन्म के राज भी छिपे हो सकते हैं.
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अंतरिक्ष से आए पत्थर
धरती पर मिलने वाले ज्यादातर धूमकेतु क्षुद्र ग्रहों का हिस्सा हैं. किसी ग्रह की उत्पत्ति के समय ही क्षुद्र ग्रह भी बनते हैं. उनका अपना वायुमंडल नहीं होता है और उनमें गुरुत्वाकर्षण बल भी नहीं के बराबर होता है.
तस्वीर: picture-alliance/ dpa
चैन की सांस
फिलहाल इंसान चैन की सांस ले सकता है. अगले 100 साल तक धरती से किसी क्षुद्र ग्रह के टकराने की संभावना बहुत कम है.