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रसोई गैस महंगी होने से प्रदूषित हो रही भारत की हवा

२७ जनवरी २०२२

भारत में बढ़ते रसोई गैस के दामों के चलते कई गरीब परिवार फिर से खाना पकाने के पारंपरिक ईंधनों का रुख कर रहे हैं. ये ईंधन स्वास्थ्य के लिए बेहद खतरनाक माने जाते हैं इसलिए बढ़ते एलपीजी दामों को लेकर चिंता जताई जा रही है.

Weltspiegel | Punjab, India | Protest gegen steigende Benzinpreise
तस्वीर: AFP

भारत में पिछले एक साल में एलपीजी सिलेंडर की तेजी से बढ़ती कीमतें कई घरों पर भारी पड़ रही हैं. भारत के ज्यादातर राज्यों में एलपीजी सिलेंडर का दाम 900 रुपये से भी ज्यादा हो गया है, जो करीब 1 साल पहले 600 रुपये हुआ करता था. यानी एक साल में 50 फीसदी से भी ज्यादा की बढ़ोत्तरी. चूंकि इस दौरान मई 2020 से ही सिलेंडर भरवाने पर सब्सिडी नहीं मिल रही इसलिए यह खर्च कई घरों को फिर से लकड़ी, कोयले या गोबर के उपलों की ओर लौटने पर मजबूर कर रहा है. काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरमेंट एंड वाटर (सीईईडब्ल्यू) नाम की संस्था ने यह जानकारी दी है.

गरीब परिवारों को एलपीजी गैस मुहैया कराने की केंद्र सरकार की उज्जवला योजना को 5 साल हो चुके हैं. इस दौरान सरकार ने 8 करोड़ एलपीजी कनेक्शन देने की बात कही है. इतने ही समय में भारत में एलपीजी वितरकों की संख्या भी करीब 18 हजार से बढ़कर 25 हजार को पार कर गई है. कई स्वतंत्र संस्थान उज्जवला योजना का आकलन कर इसके फायदे गिना चुके हैं लेकिन लगातार बढ़ते रसोई गैस के दाम इन अच्छे प्रभावों को फिर खतरे में डाल रहे हैं.

गरीब आबादी वाले राज्य सबसे प्रभावित

ग्लोबल बर्डेन ऑफ डिजीज स्टडी 2019 के मुताबिक हर साल वायु प्रदूषण के चलते भारत में 6 लाख से ज्यादा मौतें होती हैं. उज्जवला जैसी योजनाओं के चलते इसमें सुधार की आशा थी लेकिन रसोई गैस के ऊंचे दामों से यह आशा धूमिल हुई है. सीईईडब्ल्यू के मुताबिक, अब भी 30 फीसदी भारतीय घर बायोमास जैसे लकड़ी, कोयला और गोबर के उपलों पर ही निर्भर हैं. अन्य 24 फीसदी एलपीजी के साथ इन ईंधनों का उपयोग भी करते हैं.

सीईईडब्ल्यू में रिसर्च एनलिस्ट सुनील मणि के मुताबिक खाना पकाने के ईंधन के तौर पर बायोमास का इस्तेमाल करने वाले ज्यादातर घर ग्रामीण इलाकों में हैं. खासकर बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, ओडिशा और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों के ग्रामीण इलाकों के कई परिवार अब भी खाना पकाने के लिए लकड़ी, कोयला और गोबर के उपलों पर निर्भर हैं. साथ ही शहरी इलाकों की झुग्गी बस्तियों में भी इन ईंधनों का जमकर इस्तेमाल होता है.

कुल कमाई का 10 फीसदी रसोई गैस पर

सुनील मणि सुझाव देते हैं कि वायु प्रदूषण पर असर को कम करने के लिए कम कमाई वाले घरों के लिए एलपीजी रीफिल पर सब्सिडी को बढ़ाया जाना चाहिए क्योंकि अभी के दामों पर एक औसत भारतीय परिवार को अपनी कुल कमाई का करीब 10 फीसदी केवल रसोई गैस पर खर्च करना पड़ रहा है. पिछले एक साल में रसोई गैस पर होने वाला उनका खर्च दोगुना हो गया है.

उनके मुताबिक पिछले सालों में कोरोना महामारी के चलते लोगों की नौकरियों और आय पर भी असर पड़ा है ऐसे में एलपीजी पर रोजाना खाना पकाने की उनकी आर्थिक स्थिति भी प्रभावित हुई है. कम कमाई वाले परिवारों को एलपीजी सिलेंडर रीफिल पर सब्सिडी देकर इसे कम किया जा सकता है.

10 लाख के बजाए 2.5 लाख कमाई पर सब्सिडी

गांवों में रहने वाले लोगों से बात करने पर पता चला कि एलपीजी के जरिए खाना पकाने का काम तो होने लगा है लेकिन अब भी ज्यादातर ग्रामीण सर्दियों में पानी गर्म करने, विवाह आदि में खाना पकाने या जानवरों के खाने के लिए कोई चीज पकाने के लिए अब भी मिट्री के चूल्हों का ही इस्तेमाल कर रहे हैं और वे इस प्रक्रिया में जल्द कोई बदलाव भी नहीं करना चाहते हैं. उज्जवला का लाभ लेने वाले 30 फीसदी परिवार ही साल में 5 से ज्यादा रसोई गैस सिलेंडर इस्तेमाल में लाते हैं.

इस पर सुनील मणि सुझाव देते हैं कि सरकार को एक साल में सात से आठ सिलेंडरों को सब्सिडी के दायरे में लाना चाहिए. इसके अलावा अच्छी कमाई वाले परिवारों को सब्सिडी से बाहर करके भी कम कमाई वाले परिवारों को दी जाने वाली सब्सिडी में बढ़ोत्तरी की जा सकती है. इसके लिए वे सब्सिडी का लाभ लेने वाले परिवारों के लिए तय 10 लाख से कम कमाई की सीमा को घटाकर 2.5 लाख प्रति वर्ष करने का सुझाव देते हैं. या फिर ऐसे परिवारों को रसोई गैस सब्सिडी न दिए जाने का सुझाव देते हैं, जिनके पास कार हो.

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टीबी जैसी बीमारियों की जड़

सीईईडब्ल्यू की इंडिया रेजिडेंशियल एनर्जी सर्वे (आईआरईएस, 2020) रिपोर्ट में भारत में रसोई ईंधन परिदृश्य में सुधार की बात कही गई थी. रिपोर्ट में बताया गया था कि एलपीजी गैस भारत में बायोमास को पीछे छोड़कर सबसे ज्यादा इस्तेमाल होने वाली रसोई ईंधन बन गई थी. इसी सर्वे के मुताबिक भारत में 85 फीसदी लोगों के पास गैस का कनेक्शन था और 71 फीसदी लोग खाना पकाने के मुख्य आधार के तौर पर इसका इस्तेमाल कर रहे थे. जबकि एक दशक पहले सिर्फ 30 फीसदी लोग ही मुख्य ईंधन के तौर पर इसका इस्तेमाल करते थे. यह प्रगति भी खतरे में पड़ गई है.

खाना पकाने के पारंपरिक ईंधनों से बढ़ने वाले प्रदूषण के डर के बीच जानकार टीबी जैसी बीमारियों में बढ़ोतरी का डर भी जता रहे हैं. टीबी से पीड़ित महिलाओं को ज्यादातर डॉक्टर एलपीजी गैस पर ही खाना बनाने की सलाह देते हैं. हाल ही में प्रकाशित हुए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे (एनएफएचएस- 5) में भी बताया गया है कि जिन घरों में अब भी खाना बनाने के लिए ठोस ईंधन का इस्तेमाल होता है, उनमें टीबी के मामले ज्यादा देखे गए हैं.

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