एक दशक में भी आधार में शामिल नहीं किए गए भारत के ट्रांसजेंडर
२७ नवम्बर २०१९
भारत में 'आधार' को वर्ष 2009 में पेश किया गया था. लेकिन आज भी बड़ी संख्या में ऐसे ट्रांसजेंडर और बेघर लोग हैं जिनके पास आधार नहीं हैं और इसके कारण उन्हें कल्याणकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिल पा रहा है.
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भारत में सभी नागरिकों की बायोमीट्रिक आईडी के तौर पर 2009 में 'आधार' को पेश किया गया था. यह भारत की राष्ट्रीय डिजिटल पहचान प्रणाली बन चुकी है. पासपोर्ट बनवाने लेकर बैंक खाता खुलावाने और सरकारी योजनाओं का लाभ लेने के लिए यह महत्वपूर्ण हो गया है. लेकिन हाल में आधार को लेकर किए गए एक अध्ययन में यह बात सामने आयी है कि काफी संख्या में बेघरों और ट्रांसजेंडरों का आधार कार्ड नहीं बना है. इस वजह से वे कई सारी जरूरी सुविधाओं का लाभ नहीं ले पा रहे हैं.
सरकारी आंकड़ों के अनुसार भारत में 1.2 अरब लोगों को आधार कार्ड जारी किया गया है. यह दुनिया की सबसे बड़ी बायोमिट्रिक पहचान प्रणाली है. इसके तहत 12 अंकों वाले एक नंबर का इस्तेमाल स्कूल में नामांकन से लेकर टैक्स जमा करने तक में हो रहा है. अंतरराष्ट्रीय कंसल्टिंग फर्म डलबर्ग ने ओमिद्यार नेटवर्क इंडिया की मदद से तैयार एक रिपोर्ट जारी में बताया है कि अब भी देश के करीब 10 लाख लोगों के पास आधार कार्ड नहीं है. इनमें से 30 प्रतिशत लोग बेघर रहने वाले हैं और एक चौथाई से ज्यादा तादाद ट्रांसजेंडर लोगों की है.
रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि बिना आधार कार्ड वाले 90 प्रतिशत लोग भारत के उत्तर-पूर्वी राज्य असम में केंद्रित हैं. इसी राज्य में अगस्त महीने में एनआरसी की फाइनल लिस्ट जारी की गई थी जिसमें करीब 20 लाख लोगों के नाम नहीं थे. रिपोर्ट में कहा गया, "समाज के अंतिम पायदान पर खड़े लोगों के पास आधार होने की संभावना सबसे कम है और उनके आधार में गलतियों की संभावना भी सबसे अधिक है. गलतियों की वजह से उन्हें कई कल्याणकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिल पाता है." आधार की देखरेख करने वाले भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई) के प्रवक्ता ने इस मामले पर पूछे गए सवाल पर किसी तरह की प्रतिक्रिया नहीं दी.
आधार में व्यक्ति विशेष का चेहरा, फिंगरप्रिंट और आंखों की पुतलियों के निशान होते हैं. इसे कल्याणकारी भुगतान को कारगर बनाने और सार्वजनिक मद में फालतू खर्च में कम करने के लिए पेश किया गया था. मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और तकनीकी विशेषज्ञों ने डाटा की गोपनीयता और सुरक्षा, बायोमेट्रिक्स की संवेदनशीलता की विफलता और निगरानी के लिए डाटा के दुरुपयोग के बारे में चिंता जाहिर की है.
कई सेवाओं के लिए आधार को अनिवार्य किए जाने पर सुप्रीम ने 2014 में फैसला सुनाया कि यह कल्याणकारी योजनाओं के लाभ के लिए आवश्यक नहीं हो सकता है. पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने आधार की वैधता को बरकरार रखा लेकिन इससे जुड़ी गोपनियता पर चिंता जाहिर की. साथ ही सरकार द्वारा पेंशन से लेकर दूरसंचार हर जगह इसे अनिवार्य बनाए जाने के फैसले पर रोक लगा दी. वहीं यूआईडीएआई ने डाटा गोपनीयता और इसके दुरुपयोग की रिपोर्ट का खंडन करते हुए कहा कि यह अनिवार्य नहीं था.
अध्ययन में यह बात सामने आई कि सभी आदेशों और प्रतिक्रियाओं के बावजूद बैंक अकाउंट, मोबाइल सिम कार्ड और स्कूल में नामांकन के लिए आधार अनिवार्य है. गैर-लाभकारी संगठन डिजिटल इमपॉवरमेंट फाउंडेशन के निदेशक ओसामा मंजर कहते हैं, "इरादे और क्रियान्वयन के बीच एक बड़ा अंतर है. सेवाएं देने से बचने के लिए इसका इस्तेमाल किया जा रहा है. समाज के अंतिम पायदान पर खड़े लोग इससे सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं."
नई दिल्ली में एडवोकेसी ग्रुप हाउसिंग एंड लैंड राइट नेटवर्क की कार्यकारी निदेशक शिवानी चौधरी कहती हैं, "बड़ी संख्या में बेघर इससे प्रभावित होते हैं क्योंकि आधार बनवाने के लिए उनके पास आवासीय पहचान पत्र नहीं होता है. ऐसे में उनके अन्य सरकारी दस्तावेज भी नहीं बन पाते हैं और वे सरकार द्वारा चलाई जाने वाली कल्याणकारी योजनाओं से वंचित रह जाते हैं."
दुनिया भर में ऐसे तकरीबन डेढ़ करोड़ लोग हैं जिन्हें कोई भी देश अपना नागरिक नहीं मानता. नागरिकता विहीन लोग मूलभूत मानवीय अधिकारों के लिए तरस रहे हैं लेकिन किसी भी देश को इनकी चिंता नहीं है.
तस्वीर: Arte France & Nova Production
म्यांमार
म्यांमार एक बौद्ध बहुल देश है. साल 1982 में म्यांमार में पारित हुए एक नागिरकता कानून ने लाखों रोहिंग्या मुसलमानों को बेघर कर दिया. रोहिंग्या लोगों के खिलाफ हुई जातीय हिंसा के चलते लाखों लोग म्यांमार छोड़कर बांग्लादेश भाग गए. बांग्लादेश में तकरीबन नौ लाख रोहिंग्या लोग रह रहे हैं. इन लोगों को ना तो म्यांमार और ना ही बांग्लादेश अपना नागरिक मानता है.
तस्वीर: DW/M.M. Rahman
आइवरी कोस्ट
आइवरी कोस्ट में तकरीबन 6.92 लाख ऐसे लोग हैं जिनके पास किसी भी देश की नागरिकता नहीं है. इनमें से अधिकतर ऐसे प्रवासियों के वंशज है जो खासकर बुर्किना फासो, माली और घाना में काम करने आए थे. 20वीं शताब्दी के दौरान आइवरी कोस्ट के कॉफी और कपास के बागानों में काम करने के लिए दुनिया भर से लोगों को लाया गया था.
तस्वीर: Getty Images/AFP/I. Sanogo
थाईलैंड
पर्यटकों के बीच लोकप्रिय थाईलैंड में रहने वाले तकरीबन 4.79 लाख लोग किसी भी देश के नागरिक नहीं है. नागरिकता ना पाने वालों की श्रेणी में देश की याओ, हमोंग और करेन जैसी पहाड़ी जनजातियों के सदस्य भी शामिल हैं. ये जनजातियां म्यांमार और लाओस के साथ सटे पहाड़ी सीमा के इलाकों में रहते हैं.
तस्वीर: Reuters/S. Zeya Tun
एस्टोनिया/लातविया
जब सोवियत संघ का विघटन हुआ तो कई रूसी जनजातियां नए बाल्टिक राज्यों में फंस गई, जिन्हें बाद में "गैर-नागरिक" माना गया. आज तकरीबन 2.25 लाख गैर नागरिक लातविया में और तकरीबन 78 हजार लोग एस्टोनिया में रह रहे हैं. इनमें से अधिकतर ऐसे लोग हैं जिन्हें नागरिकता पाने में तमाम मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है और कई मौकों पर भेदभाव भी झेलना पड़ता है.
तस्वीर: Getty Images/R. Pajula
सीरिया
साल 1962 में देश के उत्तरपूर्वी इलाकों में रहने वाले हजारों कुर्दों से नागरिकता छीन ली गई. इस कदम को ह्यूमन राइट्स वॉच "अरबीकरण" की कोशिश कहता है. संयुक्त राष्ट्र के डाटा के मुताबिक सीरिया में गृहयुद्ध शुरू से पहले पहले तकरीबन तीन लाख कुर्द बिना नागिरकता के रहते थे लेकिन अब इनकी संख्या तकरीबन 1.50 लाख के करीब रह गई है.
तस्वीर: picture-alliance/AP/K. Mohammed
कुवैत
कुवैत में रहने वाली खानाबदोश बिदुएन जनजाति भी साल 1961 के बाद नागिरकता पाने में विफल रही. माना जाता है कि बिदुएन लोगों के पूर्वज बिदून कहलाते थे. अरबी में बिदून का मतलब होता है "नागरिकता विहीन." संयुक्त राष्ट्र की ओर से जारी डाटा के मुताबिक कुवैत में आज भी करीब 92 हजार बिदुएन लोग रहते हैं. इन लोगों को अकसर मुफ्त शिक्षा और कई नौकरियों से दूर रखा जाता है.
तस्वीर: Getty Images/AFP/Y. Al-Zayyat
इराक
इराक में तकरीबन 47 हजार ऐसे लोग हैं जिन्हें कोई देश अपना नागरिक नहीं मानता. ऐसे लोगों में बिदून, फलस्तीनी रिफ्यूजी, कुर्द और अन्य जातीय समूह हैं जो सदियों से इराक-ईरान पर सीमा पर रहते आए हैं.
तस्वीर: picture-alliance/Y. Akgul
यूरोप
दसवीं शताब्दी में भारत में पलायन कर यूरोप पहुंचाने वाली बंजारा जनजाति रोमा के भी हजारों लोग यूरोप के कई मुल्कों में बिना नागरिकता के रह रहे हैं. चेकोस्लोवाकिया और यूगोस्लाविया के विघटन के बाद बने नए देशों ने इस बंजारा जनजाति को अपना नागरिक मानने से इनकार कर दिया. रोमा समुदाय कोसोवो और बोसनिया में भी बिना नागरिकता के रह रहा है.
तस्वीर: DW/J. Djukic Pejic
कोलंबिया
संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक वेनेजुएलाई नागरिकों के तकरीबन 25 हजार बच्चे जो राजनीतिक और आर्थिक संकट के चलते कोलंबिया भाग गए उनमें से अधिकतर बगैर नागरिकता के रह रहे हैं. कोलंबिया के नागरिकता कानून के मुताबिक नागरिकता पाने के लिए मां-बाप में से कम से कम एक किसी व्यक्ति को कोलंबिया का नागरिक होना चाहिए.
तस्वीर: DW/Lucy Sherriff
नेपाल
नेपाल हमेशा कहता रहा है कि वहां कोई नागरिकता विहीन व्यक्ति नहीं है. लेकिन यूएन के डाटा के मुताबिक नेपाल में ऐसे लोगों की अच्छी खासी संख्या है जिन्हें 90 के दशक में भूटान ने अपने देश से बाहर कर दिया था. (स्रोत: संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी कार्यालय, इंस्टीट्यूट ऑन स्टेटलैसनेस एंड इनक्लूजन )